Sunday, 13 March 2016

मेरा तो अपना कोई था नहीं

मेरा तो अपना कोई था नहीं
इसलिए दूर तुमसे हुआ नहीं।

मुझको तो अब रोना आता है
माँगी थी दुआ बद्दुआ नहीं।

यूं गाँव से शहर तक आ गये
उससा हसीं कोई मिला नहीं।

कमरों की तन्हाई पसर गयीं
फिर भी मयस्सर निशाँ नहीं।

गंगा-हरिद्वार-काशी नहाये
रोग था ऐसा जो छूटा नहीं।

ज़बानदानी में उलझे रहे हम
कामिल शे'र कोई बना नहीं।

मौहलत कम थी जिंदगी की
मौत ने पकड़ा तो छोड़ा नहीं।

किससे जाकर माँगूँ हक़ मैं
जब मेरा है कोई ख़ुदा नहीं।

पैर भी सुन्न रहता है सिर सा
ख्याली बाज़ार जाँ लगा नहीं।

मैं अलग हूँ शहर में भी यारा
तेरे सिवा यूं कोई जँचा नहीं।

पत्थर निशानें पे जाकर लगीं
करी जिसकी उसने पूजा नहीं।

भीख भी जात पूछकर देते है
खाया उनका मगर मज़ा नहीं।

माँ की अक़ीदत में गुजर गया
मगर इसको कहीं लिखा नहीं।

आँखों से फिर गिर गये आँसू
दर्द कैसा जो हुआ बयां नहीं।

मैं इश्क़ में बिखर गया वर्मा
हुनर मुझको यही अता नहीं।

नितेश वर्मा और नहीं।

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