Monday, 28 March 2016

हैप्पी होली

अभी पिछले बरस की गुलाल उतरीं ही नहीं थी.. रंग जो चढा था वो अभी भी ठीक से निकल नहीं पाया था- कि फिर ये होली आ गई। फिर से किसी की जिद थी चूनरी भिंगोने की, इन गालों को छू लेने की, बंधी इन जुल्फों को खोल देने की, इन नर्म उंगलियों को थाम लेने की, मेरे बचती-बचाती नज़रों में खुद को कहीं देख लेने की।
मगर अब मैं नहीं चाहती भींगना और ना ही किसी के रंग में रंगना चाहती हूँ। मैं अब उगता गईं हूँ हर बार की इस हैप्पी होली से। किसी की जाम में नहीं उतरना चाहती, पर्दे के पीछे से कुछ नहीं छांकना चाहती। अब मैं नहीं चाहती कोई भी हैप्पी होली, जो मुझमें मनाई जाएं.. मेरी नामंजूरी के बावजूद भी। ख़ैर आपको हैप्पी होली हर दफा की तरह इस बार भी बिना किसी गुलाल के.. बस एक खामोश मुस्कान से। 😊

नितेश वर्मा और हैप्पी होली।

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