Tuesday, 31 May 2016

मुतमईन हूँ के अब जला दिया गया हूँ मैं

मुतमईन हूँ के अब जला दिया गया हूँ मैं
जब तक जिंदा था ये जिस्म ढो रहा था मैं।

नितेश वर्मा

बदमिज़ाज शायर हमें इल्म नहीं है बह्र का

बदमिज़ाज शायर हमें इल्म नहीं है बह्र का
मग़रूर है ख़ुदमें होश भी नहीं है शहर का।

नितेश वर्मा

वो खुद में जैसे ठंडी हवा सी है हर पल

वो खुद में जैसे ठंडी हवा सी है हर पल
मैं बारिश होके उसपे बरसता हूँ बेवज़ह।

नितेश वर्मा

सवालें ख़ूब कर मिज़ाज बदल जाऐंगे

सवालें ख़ूब कर मिज़ाज बदल जाऐंगे
हसीं सफ़र कर तो राज़ बदल जाऐंगे।

दर्द तेरे हिस्से ही क्यूं रहता है मेहरबां
ख़त भेज दे तो ये दराज़ बदल जाऐंगे।

तू मुतमईन भी हो सकता है सब्र रख
बेसब्र होके कौन से ताज बदल जाऐंगे।

हवाओं का रूख़ कभी मेरा नहीं हुआ
जब होगा तो ये सामाज बदल जाऐंगे।

नितेश वर्मा

मेरी आँखों का यकीन कर ये लफ़्ज़ कुछ कहती है अकसर

मेरी आँखों का यकीन कर ये लफ़्ज़ कुछ कहती है अकसर..
मैं जो जमाने से नहीं कह पा रहा हूँ वो ये कहती है अकसर।

नितेश वर्मा

मुझे अब जरूरत नहीं तुम्हारी उस मुहब्बत की

मुझे अब जरूरत नहीं तुम्हारी उस मुहब्बत की
उन हसीन जुल्फों की काली घनी छांव की
मुझे कोई तक़ाज़ा नहीं कि अब शाम ना ढ़लें
मुझे अब खुली बारिशों की कोई आस नहीं
मैं चाँदनी रातों में अब जगता नहीं
मुझे सर्दियों की रात अब शायरी नहीं सुझाती
मैं फिक़्रमंद नहीं अब तुम्हारे हवाले से
मुझे कोई फ़र्क़ नहीं उन काले-स्याह गड्ढों के
मैं रोज़गार के तलाश में रोज़ निकलता हूँ
खुद को बेचता हूँ तो काफ़ी कमा लेता हूँ
घर से अलग एक मुहल्ले का ख़र्च उठाता हूँ
जाने कौन सी बात दिल को लग गई थीं
नाजाने तुम्हारे बाद मुझे क्या हो गया था
या नसीबियत से सबकुछ ये समेट पाया हूँ
या तुम्हारे अलावा सारे दर्द मैं घर ले आया हूँ
तुम शायद कोई मुश्किल सी क़िताब थी
जिसे याद करके फिर मैं भूल भी आया हूँ।

नितेश वर्मा

हर तरफ जलाया चराग़ और बुझा भी दिया

हर तरफ जलाया चराग़ और बुझा भी दिया
ऐसा किया था काम के नाम डूबा भी दिया।

किसी उम्मीद से निकले थे परदेश कभी जो
तेरी आँसूओं ने फिर मुझे घर बुला भी दिया।

उसके जाने पर शराब की लत लग गई मुझे
ज़माने ने फिर ये सब आदत छुड़ा भी दिया।

मिलके मुकम्मल हो जाता मैं भी उससे वर्मा
जिसने बारिशों में था मुझको रूला भी दिया।

नितेश वर्मा

हौसलों ने ही बस बाँध रक्खा है मुझे

हौसलों ने ही बस बाँध रक्खा है मुझे
वर्ना कबसे बिखरा हुआ हूँ मैं खुदमें
किसी रोज़ किसी चाहत में लिक्खे थे
वो ख़त जो कभी पते पे ना भेजा मैंने
वो किसी उम्र सी मुझमें ठहर गईं है
मैं गुमशुदा हूँ खुद एक उम्र पे आके
ये दर्द की तहरीरे तस्वीर बन गई हैं
सुर्ख़ और ज़र्द का फर्क नहीं है मुझे
हौसलों ने ही बस बाँध रक्खा है मुझे
वर्ना कबसे बिखरा हुआ हूँ मैं खुदमें।

नितेश वर्मा

महज़ घर के दस्तावेज़ों में नाम था उसका

महज़ घर के दस्तावेज़ों में नाम था उसका
आज कमरे अलग हुए तो वो तन्हा हो गया।

एक ख़लिश ने कबसे समेट रक्खा था मुझे
जवाबदारी के वक़्त फिर मैं बेजुबाँ हो गया।

नितेश वर्मा और दस्तावेज़

हर रोज़ ये दिले आरज़ूएँ दबाई जा रही हैं

हर रोज़ ये दिले आरज़ूएँ दबाई जा रही हैं
इश्क़ करके भी निगाहें छिपाई जा रही हैं।

ये असली औदेदार कहीं और ही जा बैठे है
नज़्में किसी और जुबाँ से सुनाई जा रही हैं।

माना की ग़लतियों का भी हिसाब होगा ही
फिर आज क्यूं उंगलियाँ उठाई जा रही हैं।

सब रब की मर्जी से होता है सच है ये वर्मा
पता है अब हर दफ़ा क्यूं बताई जा रही हैं।

नितेश वर्मा

Monday, 23 May 2016

जब तक खुदके कदम चलते हैं सब साथ होते हैं

जब तक खुदके कदम चलते हैं सब साथ होते हैं
मुसीबत में सिक्के भी कौन से अपने हाथ होते हैं।

गम की आँधियाँ एक साथ चलकर पास आती हैं
बुरे वक़्त में कहाँ पास कोई बयाने ज़ज्बात होते हैं।

नितेश वर्मा

दर्द इतने मुस्कुराते हैं, के अब हमसे सहे नहीं जाते

दर्द इतने मुस्कुराते हैं, के अब हमसे सहे नहीं जाते
नाजाने क्या हुआ है हमे, हमसे कुछ कहे नहीं जाते
दिन भर की थकन शाम तक अब बिस्तर हो गई है
पर एक नाम है जो वो ना ले तो हमसे रहे नहीं जाते।

नितेश वर्मा

मेरा कोई जुर्म नहीं था

मेरा कोई जुर्म नहीं था
मैं बस इश्क़ में ही था।

वो ग़लती किसकी थी
हर्फ़ कौन सा सही था।

दुआ काम कहाँ आईं
मैं गुमाँ ख़ुद कहीं था।

तबीयत सुधरी कब ये
जिस्म कबसे यही था।

इश्क़ भी क्या कर गई
मैं पहले बहुत हँसीं था।

नितेश वर्मा

इतना प्यार क्यूं आता है मुझे उसपर

इतना प्यार क्यूं आता है मुझे उसपर
परेशां हूँ मैं कबसे बस यही सोचकर।

वो चाहती है कि मैं उसमें उलझा रहूँ
नहीं चाहती वो, मैं रहूँ उसे छोड़कर।

इस कदर कहना था उससे इश्क़ था
बारिश जैसे हुई थी खुलके बरसकर।

मेरा इंतख़ाब मुझे ही सताता रहा था
वो रोती रही मुझपे निगाहें ओढकर।

मैं इक रोज़ इतना जला के मर गया
फिर वो भी गुजर गई थी तड़पकर।

चंद लम्हों की ख़्वाहिशे थी वो वर्मा
वो मुझसे दूर थी मुझमें कहीं होकर।

नितेश वर्मा

किसी और की परेशानी सर बांधकर घूमते रहे

किसी और की परेशानी सर बांधकर घूमते रहे
और मेरे घरवाले मुझे ही शह्र भर में ढूंढते रहे।

बस इतना सा इलाज हो जाता तो बेहतर होता
अंदर की इंसानियत लेके रात भर जागते रहे।

मुल्ज़िम कौन है औ' निज़ाम कौन है यहाँ देखो
घर का पता लेकर कस्बे-कस्बे हम भागते रहे।

मुतमईन तो बिलकुल भी नहीं मैं अपने आप से
ये क्या बनाया है तुमने मुझे जो बस दाग़ते रहे।

इक शीतलहर सी थी उसके आने भर से वर्मा 
इक वहीं नाव जिसकी पतवार हम माँगते रहे।

नितेश वर्मा

पहले तो हम गुमाँ हुए, फिर हम परेशां हुए

पहले तो हम गुमाँ हुए, फिर हम परेशां हुए
तेरे लबों से जो लगे हम हर्फ़ फिर दुआ हुए।

टूटें फिर खुदमें सिमटे फिर जाके बरसे भी
इस कदर इश्क़ ने बांधा के हम बावरां हुए।

नितेश वर्मा

एक तस्वीर है जिसे सीने से लगा रक्खा है

एक तस्वीर है जिसे सीने से लगा रक्खा है
कोई बात है जो इन लबों पे दबा रक्खा है।

कहना चाहूँ भी तो अब मैं तुमसे क्या कहूँ
एक नाम है जो मेरे नाम को बना रक्खा है।

अब कहाँ से फिर तुम वक़्त लेके आओगी
दिल में जो भी है आज सब दिखा रक्खा है।

लफ़्ज़ों की कमी थी, तो लफ़्ज़ समेट लाये
मैंने कहा ही था एक नाम लिखा रक्खा है।

नितेश वर्मा

हमको परेशां देख के, वो परेशां हो गए

हमको परेशां देख के, वो परेशां हो गए
सारे शह्र में फैली आग सब हैरां हो गए।

इस क़दर समेटा के उंगलियाँ जल गई
बाद में मुस्कुराएँ तो हम मेहमां हो गए।

पत्ता-पत्ता तो इशारे पे रहा सदियों तक
किसी बारिश में फूल ही ख़फ़ा हो गए।

इस इश्क़ का भी कोई इलाज करो तो
हम पागल थे तो अब कैसे जाँ हो गए।

इन घरों पे पत्थरों का कोई असर नहीं
दिल जो था वो कहीं और जुदा हो गए।

नितेश वर्मा

उसने जब इंकार ही कर दिया

उसने जब इंकार ही कर दिया..
तो अब कोई सवाल नहीं है..
मुहब्बत हमारी एक तरफा ही रही..
फिर भी मलाल नहीं है..
वो जितनी दूर हमसे जाती रही..
हम उसके उतने करीब हो गए..
उसके चेहरे को दिखा फिर उससे पूछा..
के क्या पसंद ये हमारी कमाल नहीं है।

नितेश वर्मा और पसंद।

Wednesday, 11 May 2016

वक़्त रेत की मानिंद इन हाथों से फिसल गए

वक़्त रेत की मानिंद इन हाथों से फिसल गए
वो कोई और था जिसे तुमने संभाले रखा था।

दिल निकाल के सीने से रख दूं कदमों में तेरे
तुम्हारे ख़ातिर ही साँसें अपने हवाले रखा था।

नितेश वर्मा

ख़तों का सिलसिला अब भी उससे जारी हैं

ख़तों का सिलसिला अब भी उससे जारी हैं
ये मुहब्बत भी लग रही मुझे एक बीमारी है।

बहोत कट-कटके अब वो भी रहने लगी हैं
दुश्मनी में भी उसकी बहुत दिमाग़दारी है।

वो इक चराग़ जलाके शह्र रोशन करती हैं
बाद में कहती है सब ख़ुदा की मेहरबानी है।

अब क्या करेंगे सियासत समझकर हम भी
जो हो रहा हैं सब वो क्या कम मग़ज़मारी है।

नितेश वर्मा

सोचता हूँ तेरी तस्वीर ही लगा लूं कमरे में

सोचता हूँ तेरी तस्वीर ही लगा लूं कमरे में
तुझे पूरी नज़र तो हमने भी देखा नहीं है।

नितेश वर्मा

ये कविता पूरी क्यूं करूँ

ये कविता पूरी क्यूं करूँ
क्यूं अल्फ़ाज़-ए-मुहब्बत लिखूँ
क्यूं चीख़ूँ इस वीराने में
क्यूं मैं देशभक्ति के नारे गाऊँ
क्यूं कहीं कोई परचम लहराऊँ
क्यूं मैं पानी में रंग मिलाऊँ
दारू पे कोई जंग कराऊँ
हवाओं में सरगम फैलाऊँ
गीतों में जानदार ग़ज़ल लाऊँ
क्यूं मैं ये हो-हल्ला मचाऊँ
मेरी इन कविताओं से होता क्या है
ना निज़ाम बदलता है
ना ग़रीबी ही जाती है
ना प्रेमिका ही मानती है
फिर क्यूं कोई जिद मैं पूरी करूँ
ये कविता पूरी क्यूं करूँ।

नितेश वर्मा

माँ

अपनी सारी जिंदगी जो लूटा दे वो माँ होती है
जिसे तुम भूल जाते हो अकसर वो माँ होती है।

रंगीन खिलौनों की जिद में जो बाले खींचते हो
उस दर्द को भूलाके जो मनाएँ वो माँ होती है।

जिसे रातों में भी बेचैनी चैन से सोने नहीं देती
तुमको गोद में ले लोरी सुनाएँ वो माँ होती है।

यूं किसी खेल में ही तुम्हारे बस गिर जाने पर
नम हो जाती हैं जिसकी आँखें वो माँ होती है।

तुमको मुसीबत में कभी आता हुआ देखकर
जो अपनी कंगन गिरवी रख दे वो माँ होती है।

जिसे तुम याद आते रहते हो हरपल हँसीं सी
नहीं भूलाएँ जाते जिससे कभी वो माँ होती है।

यूं दुआओं में जिसके तुम ही दुहराये जाते हो
जो लब तुमपे हैं बद्दुआ नहीं वो माँ होती है।

किसी ख़ास दिन का मोहताज़ नहीं प्यार वो
हर पल जो रहे खुद में ख़ास वो माँ होती है।

नितेश वर्मा और माँ।

लोग जिद पे उतर जाते हैं यूंही शराब पीने को

लोग जिद पे उतर जाते हैं यूंही शराब पीने को
इक मृगतृष्णा है ये जिन्दगी हसीन सी जीने को।

उनके आगे तो आज भी हम यूंही हार जाते है
और लोग कहते हैं कोई काम नहीं कमीने को।

नितेश वर्मा

तुम जाने क्या हो, ख़ुदा की कारीगरी

तुम जाने क्या हो, ख़ुदा की कारीगरी
एक चेहरा ये मुझे सोने भी नहीं देता।

बहोत हुआ बारिश, अब रूक जाओ
उसका चेहरा मुझे रोने भी नहीं देता।

माना जिद पे आये हो, तो जाँ लोगे ही
वो चेहरा मुझे मेरा होने भी नहीं देता।

अब चैन से हो जाओ, कहानी आगे है
ये चेहरा मुझे कहीं खोने भी नहीं देता।

नितेश वर्मा और चेहरा तेरा।

गरीबी चीख-चीखके सताई जा रही हैं

गरीबी चीख-चीखके सताई जा रही हैं
आम लोगों की बातें बताई जा रही हैं।

दो वक़्त का राशन भी नहीं हो पाता है
मंहगी-मंहगी बर्तन दिखाई जा रही हैं।

माँ-बाप आसरे ढूंढते जमीं पर सो गए
हालांकि रोज़ मकाने बनाई जा रही हैं।

मेरा तो सब लूट गया, मैं बर्बाद हूँ अब
दो गली दूर ये दावतें मनाई जा रही हैं।

दिल भर गया इश्क़ से, अब दर्द हूँ मैं
ये कौन सा गम है जो खाईं जा रही हैं।

मेरे किस्से भी बड़े मजेदार के हैं वर्मा
मेरे मरने के बाद भी सुनाई जा रही हैं।

नितेश वर्मा

तन्हाईयों को भी हमने रूसवां कर दिया हैं

तन्हाईयों को भी हमने रूसवां कर दिया हैं
इन आँसूओं को आज मेहमां कर दिया हैं।

निकल जाऐंगे सब दर्द एक-एक करके यूं
आज खुदको हमने भी आसमां कर दिया हैं।

नितेश वर्मा

Monday, 2 May 2016

इस कहानी का भी वहीं हश्र होगा

इस कहानी का भी वहीं हश्र होगा
थोड़ा मरहम तो ज्यादा दर्द होगा।

तेरी दहलीज़ पे जाने क्या रखा है
लगता है मुझे यहाँ मेरा कब्र होगा।

तुझपे ही आके सब ख़त्म होता हैं
तुझे पाके ही अब मुझे सब्र होगा।

इन हवाओं को भी यकीन नहीं है
रोउँ जो आँसूओं से भरा अब्र होगा।

अब तमन्ना जो भी थी सब जुदा हैं
जिंदा भी नहीं हूँ मैं जो जिक्र होगा।

उलझा इस कदर हूँ मैं खुदसे वर्मा
मूसल्लत मुझपर कोई चक्र होगा।

नितेश वर्मा

मैं खुद से ही खुद को आखिर चुराऊँ कब तक

मैं खुद से ही खुद को आखिर चुराऊँ कब तक
इन आँखों से भी आँसू आखिर बहाऊँ कब तक।

मैं चाहता हूँ कि फिर से तुम्हें बाहों में छिपा लूं
इस चाह में खुद को आखिर जलाऊँ कब तक।

ये बारिश नहीं हैं ये मैं हूँ जो हर दफा रोता हूँ
बताओ तुम खुदको आखिर सताऊँ कब तक।

कोई जगह ढूंढकर चैन से मैं मरना चाहता हूँ
हाल-ए-दिल ये मेरा आखिर बताऊँ कब तक।

इस तरह मैं रहता हूँ जाने खुदसे परेशान क्यूं
इन हवाओं को मैं आखिर समझाऊँ कब तक।

मुझको मेरी कमी बस तेरे ना होने से होती है
नहीं पता मुझे मैं आखिर मर जाऊँ कब तक।

नितेश वर्मा

अब कोई परेशान ही क्यूं होता है यहाँ

अब कोई परेशान ही क्यूं होता है यहाँ
जो होना होता है, वो होता है यहाँ
आँखों में धूल की भी जगह होती है
तूफानों में फिर जोर क्यूं होता है यहाँ
टूटता है फिर शिकायतें करता है
ख़ुदपरस्त अब तू क्यूं रोता है यहाँ
मंजिल तक सफ़र का इंतज़ाम करके
बीच रास्ते में ही क्यूं तू सोता है यहाँ
हवाओं में जब भी जिक्र होता है यहाँ
तू ही तू फिर मुझमें होता है यहाँ
तू ही तू फिर मुझमें होता है यहाँ।

नितेश वर्मा

छोड़ो तुमको बेइज्जत नहीं करते है

छोड़ो तुमको बेइज्जत नहीं करते है
जो तुमने किया था हमसे
जाओ हम वो तुमसे नहीं करते है
छोड़ो तुमको बेइज्जत नहीं करते है

ना कोई शिकायत करते है और
ना ही तुमको कहीं बदनाम
कुछ आरज़ू तुमने भी तोड़े थे
कुछ बातें किए थे सरेआम
कहीं मुझपे ही तोहमतें रखीं थी
कहीं पकड़ा था तुमने गिरेबान
अँधेरा है दिल-ए-मकाँ मेरा अब
पर इसे अब अज़मत नहीं करते है
छोड़ो तुमको बेइज्जत नहीं करते है
जो तुमने किया था हमसे
जाओ हम वो तुमसे नहीं करते है
छोड़ो तुमको बेइज्जत नहीं करते है

कसक सीने में ही दबा रहने दो
कुछ ना पूछो गमज़दा रहने दो
कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होगी
छुपा हैं जुर्म जिससे वो पर्दा रहने दो
तुम नज़र मुझपर अब ना रखो
ना ये सवाले मुझसे कोई करो
मेरी आँसूओं का भी हिसाब नहीं
ना खुदपे अब कोई रहमत करते है
छोड़ो तुमको बेइज्जत नहीं करते है
जो तुमने किया था हमसे
जाओ हम वो तुमसे नहीं करते है
छोड़ो तुमको बेइज्जत नहीं करते है

जो कुछ भी कर्ज़ है सब अता होगी
जिंदगी भी देखो कितनी बेवफ़ा होगी
इल्ज़ाम मुझपर ही सारे डाले गए है
एक कचहरी मुझे भी बा-वफ़ा होगी
जिस्म ढल रहा हैं और जवानी उतर
फिर भी नहीं मुझे कोई होशों खबर
ऐसा कब तक रहेगा ख़ुदाया मेरे घर
यूं फ़ासलों में क़ुरबत नहीं करते है
छोड़ो तुमको बेइज्जत नहीं करते है
जो तुमने किया था हमसे
जाओ हम वो तुमसे नहीं करते है
छोड़ो तुमको बेइज्जत नहीं करते है।

नितेश वर्मा

मेरी होश की मुझे ख़बर नहीं जाने कहाँ हूँ मैं

मेरी होश की मुझे ख़बर नहीं जाने कहाँ हूँ मैं
कभी महफूज़ तो कभी सहमी जाने कहाँ हूँ मैं।

सबकी आँखों में फूल सा अक़्स मेरा रहता है
तेरी आँखों में नहीं हूँ, तो रही जाने कहाँ हूँ मैं।

कोई किनारे पे मेरे इंतजार में हैं कबसे रूका
मैं तो थी बेदर्द या ये दर्द बड़ी, जाने कहाँ हूँ मैं।

अब तुम्हें भी ना हो यकीं तो और बात है वर्मा
तेरे यादों में थीं, पता नहीं मरी जाने कहाँ हूँ मैं।

नितेश वर्मा

कोई जुल्फ हसीन जब भी शामों में छा जाती है

कोई जुल्फ हसीन जब भी शामों में छा जाती है
बारिशें मुझमें भी आकर कहीं से समा जाती है
मैं जो तड़पता रहता हूँ दिन-भर जिस प्यास में
समुंदर आखिर में आके खुद उसे बुझा जाती है

नितेश वर्मा

जब भी खामोशियाँ सुनी, हम परेशान हो गये

जब भी खामोशियाँ सुनी, हम परेशान हो गये
दर्द बहुत रहा, चीखें भी फिर बेज़ुबान हो गये।

एक रोज़ फिर से कोशिश करके देख ही लेंगे
आखिर इस इश्क़ में आके क्यूं बेजान हो गये।

वो नम आँखें तो कुछ और ही बातें करती थी
एक हम ही थे जो उसे देखकर हैरान हो गये।

अब तो सब बँटवारे की यूं बात करते हैं वर्मा
जैसे कोई मुल्क हम भी ये हिन्दुस्तान हो गये।

नितेश वर्मा