Tuesday, 31 May 2016

मुझे अब जरूरत नहीं तुम्हारी उस मुहब्बत की

मुझे अब जरूरत नहीं तुम्हारी उस मुहब्बत की
उन हसीन जुल्फों की काली घनी छांव की
मुझे कोई तक़ाज़ा नहीं कि अब शाम ना ढ़लें
मुझे अब खुली बारिशों की कोई आस नहीं
मैं चाँदनी रातों में अब जगता नहीं
मुझे सर्दियों की रात अब शायरी नहीं सुझाती
मैं फिक़्रमंद नहीं अब तुम्हारे हवाले से
मुझे कोई फ़र्क़ नहीं उन काले-स्याह गड्ढों के
मैं रोज़गार के तलाश में रोज़ निकलता हूँ
खुद को बेचता हूँ तो काफ़ी कमा लेता हूँ
घर से अलग एक मुहल्ले का ख़र्च उठाता हूँ
जाने कौन सी बात दिल को लग गई थीं
नाजाने तुम्हारे बाद मुझे क्या हो गया था
या नसीबियत से सबकुछ ये समेट पाया हूँ
या तुम्हारे अलावा सारे दर्द मैं घर ले आया हूँ
तुम शायद कोई मुश्किल सी क़िताब थी
जिसे याद करके फिर मैं भूल भी आया हूँ।

नितेश वर्मा

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