Monday, 29 September 2014

निसार कर दूं [Nisar Kar Doon]

तुम जो कहो तो मैं इश्क का इज़हार कर दूं
खातिर तुम्हारें मैं जां भी ये निसार कर दूं

तस्वीर से निकल बाहों में चली आई हो तुम
कहो जो तुम तो तेरी ज़ुल्फ़ों में मैं रात कर दूं

इन लबों से लब लगकर भी कुछ कहते हैं जां
हुक्म जो करो तो मैं भी ये आँखें चार कर दूं

लेकर तो ये सब मैं गुजरा ही था अए वर्मा
तुम जो कहो तो वो मुक्कमल किताब रख दूं

नितेश वर्मा

Sunday, 28 September 2014

खंज़र हैं इतनें [Khanjar Hai Itne]

हैं उल्झन ऐसी की यें आवाज़ें भी नम हैं
खंज़र हैं इतनें, मगर कातिल ही कम हैं

सहम गयी हैं ये फ़िजा, ये आँखें, ये रातें
बेवजह थीं जो बारिश गयी आज़ थम हैं

सबनें हिस्सों से हैं इक कहानी बताया
कट गयी ज़ुबां मेरी यें साँसें जो कम हैं

सबर रख-कर इक इम्तिहान भी दे दी
मगर थीं जो बातें उसमें आज़ भी दम हैं

उठा लो इन परिंदों का ये बसा बसेरा तुम
जब ये जमाना ही लूट के खानें में रम हैं

नितेश वर्मा

..मुहब्बत वो मिलता नहीं.. [Muhabbat Wo Milta Nahi]

..अब सुकूं कहीं मिलता नहीं..
..मिल तो जाएं वो..
..मगर मुहब्बत वो मिलता नहीं..

..चाहता था मैं भी बताना ज़मानें को..
..मगर जमानें को भी कहीं..
..अब सुकूं मिलता नहीं..

..कहे तो सब एक साथ थें मेरे..
..मगर बेकफ़न कब तक थी लाश..
..खबर ये मिलता नहीं..

..आ जाऐंगे इस जद में सब..
..मगर काफ़िरों को..
..कभी ठिकाना मिलता नहीं..

..यूं ही गर उठती रही आवाज़ मेरी..
..हो जाऐंगे सबके आँखें नम..
..मगर बारिशों में..
..कभी कोई खबर मिलता नहीं..

..टूट चूकां हैं मुहब्बत..
..कही हर अफसानों से..
..मगर इन परिन्दों को कभी..
..ये खबर मिलता नहीं..

..नितेश वर्मा..

हमारें सब [Humare Sab]

किस कदर रूठे हैं हमसे हमारें सब
इल्जाम सर कर दिया हैं हमारें सब

अब मनानें को मैं किस गली जाऊँ
हमसे ही रूठे बैठे हैं जो हमारें सब

बदलें की नफ़रत कितनी मारती हैं
हैंरा हैं हालत देख के ये हमारें सब

जो सुकूं मिलता किसी के बाहों में
चले आतें किसी बहानें हमारें सब

लो हद हो गयी इस बात की वर्मा
मुहब्बत में क्यूं मरे ये हमारें सब

नितेश वर्मा

कर लिया उसनें [Kar Liya Usne]

हैंरानियत को भी जो पढ लिया उसनें
मुहब्बत ये कैसा अब कर लिया उसनें

ये तिनका ही सहीं जो मेरे नसीब का
इस नसीब का यकीं जो कर लिया उसनें

चल-कर ही इस सफर का थकान मिटा
आँखों से जो मेरें पानी पी लिया उसनें

इंतज़ार की हैं उसनें मेरे आने तक की
मिला जो ना खुद को जला लिया उसनें

रूठा था दिल जो किसी बात पे, देख अब
तस्वीर को मेरे सीनें से लगा लिया उसनें

उसनें शायद ठीक ही कहा था कभी वर्मा
हिसाबों का जो किताब कर लिया उसनें

नितेश वर्मा

लिक्खें जाऐंगे [Likhhe Jayenge]

इन्तकाम पे जो सब उतर आयेंगे
इंसान अबके हैवान ही कहे जाऐंगे

मन किस कदर रूठा है सबका यहाँ
हिसाब अब सब यहाँ लिक्खें जाऐंगे

जो होना था हो चुकां सब यहाँ मेरा
दुश्मनी ही सहीं अब निभाएं जाऐंगे

कितना कमज़र्फ़ निकला मन मेरा
मुद्दतों तक ये जुबाँ सताएं जाऐंगे

अब ना की हैं उसने कोई फरेबी वादें
फिर भी वो शायद कहीं मुकर जाऐंगे

वो आसमां से सफ़र कितना सुहाना था
ख्वाबों में फिर वो शक्ल बनाएं जाऐंगे

नितेश वर्मा

करता हैं [Karta Hai]

तेरें यादों में जो हुआ था हाल मेरा
सुरूर अब भी ये बताया करता हैं

इंसानों के गम कभी छुपतें ही नहीं
भरी रात ख्वाब ये सताया करता हैं

अब तक जो रहा था माँ के आँचल में
अब वो भरे बाज़ार बेटियाँ उठाया करता हैं

एहसान फ़रामोश निकल गए परिन्दे सारें
घनी रात ये आसमां बताया करता हैं

लेकर चला था जो इक उम्मीद मुझसे
कैसे कहूँ अब भी वो याद आया करता हैं

लग चुकी हैं हायं इस ज़माने को वर्मा
फ़ितरत ये तेरा अब दिखाया करता हैं

नितेश वर्मा

Monday, 22 September 2014

दो टुक [Do Took]

एक वक्त था जब कई उम्मीदें जुडी हुई थीं इस नाम से मेरा बेटा ये बनेगा, वो बनेगा, कभी माँ तो कभी पापा तो कभी हित-रिश्तेदार, परिवार वालें सब कोई ना कोई उम्मीदें लगाकर ही बैठे हुएं थें, आखिर हो भी क्यूं ना घर का वारिश जो था मैं। आप लोगों को शायद ये वारिश वाली बात समझ में ना आएं लेकिन पहलें का वक्त हुआ करता था जिसमें सभी रिवाज़ों, समाज़ो और रीतियों को अपनें सर लेकर चलना पडता था। हालांकि मैं इसे बोझ ना अभी समझता हूँ और ना ही कभी इसके बारें में सोचा था, लेकिन हाँ घबराहट हर वक्त हुआ करती थीं।

इतनी उम्मीदें..
एक नन्ही सी जान.. विरोध का भाव.. दोस्त होते हुएं भी अकेलापन शायद कोई गर्ल-फ़्रेंड ना थीं इसलिए इतना खिंचाव बना रहा था। खैंर जो होना था हुआ मेरे साथ और सबकी उम्मीदों को मैनें पानी में मिला दिया एक शराब के बोतल के साथ। लत लग गयी थीं, चाह कर भी कुछ ना कर पा रहा था या शायद हर शाम बोतल की पुकार ने मुझे कहीं जकेड रक्खा था या सबकी उम्मीदों का बोझ अब मेरा सर सह नहीं पा रहा था। जब भी कोई खत या कोई मिलनें आया करता लाखों सवालें, उम्मीदें, परेशानियाँ ना जानें किन-किन चीज़ों की पहाडे अपनें साथ लाया करता। इन सब चीजों से मैं हार गया था, माँ की उम्मीदें अब बस नाउम्मीद का नाम रहकर रह गयी थीं। बेटा इंजीनियर बने भले से वो ऊँचा औदा ना हासिल कर पाएं, कोई परवाह नहीं लेकिन बने जरूर। अपनें कंघन को गिरवीं रखकर भेजा था माँ ने शहर मुझको, मैं यें किसे बताता किसे सुनाता अब की तरह तो पहलें गर्ल-फ़्रेंड भी नहीं हुआ करती जो मेरी परेशानियों को सुनती।

थोडा हास्यंपद हो सकता हैं मेरा कहना लेकिन जब कोई सुननें वाला ना हो तो बस हैंरानियाँ और परेशानियों के सिवा और कुछ नहीं होता। मगर ये बातें सबको मार्मिक ही करती हैं.. सबके दिलों को टींसती रहती हैं.. खफ़ा होनें का एक वजह बना देती हैं, कुछ के दिलों में उतरना तो कुछ के दिलों में चुंभना ये तो बस बातें ही किया करती हैं। अगर मैं ये समझ के भी ऐसी बातें करूं तो इससे बडी अपमान की बात क्या हो सकती हैं। आज़-तक वो बात समझ में नहीं आई क्यूं माँ ने अपना सब कुछ बस एक मेरे भविष्य में लूटा दिया.. पापा ने अपनी पूरी कमाई आखिर क्यूं मुझपे क्यूं लूटा दी। मैं समझ नहीं पाया था ना ही मैं अब तक समझ पाया हूँ।

मुझे लेखक बनना था शायर बनके बस रह गया.. कभी कभार कुछ थोडा बहोत लेखको जैसे लिख लेता हूँ लेकिन वो हर बार नहीं होता कहानियाँ बुननी मुश्किल होती हैं.. लम्हें में तो शायरी ही की जा सकती हैं। ज़िन्दगी मैनें दर-असल लम्हों में ही जीया था कभी कभार जब घनी काली अंधेरी रातों में चाय की चुस्कियों को लेकर अपनें शहर के बारें में छत पे अकेला बैठा ये सोचा करता था कि आखिर क्यूं कभी मेरें अपनों ने मुझे वो क्यूं नहीं करने दिया जिसे मैं करना चाहता था। लेकिन अब समझ आता हैं मैं चाहता ही क्या था दिल मेरा हमेशा से चोर हुआ करता था कभी किसी की तो कभी किसी की हर वक्त मेरे घर पडोसीयों से मेरे हवालें के शिकायत आया करती थीं। माँ द्रवित होती थीं लेकिन उन्हें मुझमें इक उम्मीद की किरण हर वक्त दिखाई देती थीं। शिकायतों का क्या था वो तो कल बंद ही हो जानी थीं। माँ को सब इतना कुछ कैसे पता होता था। शायद उनका ही असर रहा होगा जो मैं इतने काम के, कमाल के शे'र कर लेता हूँ।

खलल आज़ भी उस बात को लेकर हैं माँ के गिरवीं कंघन को ना छुडा पाया। चाहता था मैं कुछ करू लेकिन कभी वक्त तो कभी अपनों ने मुझसे मुँह मोड लिया। आखिर कब तलक कोई साथ देता हैं मैनें ये सोचतें हुएं उन्हें नज़रंदाज या माफ़ आप जो कहों कर दिया। अब कोई पीडा नहीं हैं ना मुझे ही और ना ही मेरे अपनें को माँ-पापा को गुजरें अब पूरें 11 साल हो गए हैं। पहले मेरी मजबूरियों के समझनें वाला भी कोई था अब तो बस तन्हाई डंसती हैं.. आखें रूलाती हैं.. कानें वो आवाज़ तलाशती हैं जो उम्मीदों से भरें था.. आज़ भी निवालों का हाथ भरें रात मुझे जगा दिया करता हैं। क्यूं ऐसा नहीं होता लोगों के बाद ये यादें क्यूं नहीं उनके साथ ही चली जाया करती हैं। लेकिन मैं क्या करूं खुद को हारा हुआ कैसे स्वींकार करूं। इतनी हिम्मत कहाँ बची हैं मुझमें अब तो दम भी घुंटता रहता हैं इस माहौल में.. उबन सी बसी हुई हैं इस सरकार में.. इस राज्य में। देश-हित की बातें किया करतें थें पापा, कैसे हमारें पुरखों ने अपनें देश के लिए अपना खून बहाया था, देश की भक्ति होती थीं।

ठीक ही हुआ आज़ पापा नहीं रहें वर्ना ऐसा हाल.. क्या कहता मैं। आखिर युवा पीढीं में होना एक ज़िम्मेदार होना और उसके हैसियत से ये कहना कुछ गलत नहीं होगा.. क्यूंकि आज़ आँखों के सामनें सब हो जाता हैं लेकिन ज़ुबां जाँ की फिक्र में खामोश रह जाती हैं। अब बस कुछ कहना नहीं चाहता और ना ही आपकों कहीं उलझानां चाहता हूँ। क्यूं और कैसे..? तलाश ये जारी रहेगी माँ की उम्मीदें थोडी ही सही लेकिन पूरी जरूर होगी और उनके कंघन के बारें में भी मैनें सोचा हैं एक दिन ऐसा आयेगा जब मैं पापा को भी एक भरी उम्मीद से अपनी नज़रें मिला पाऊँगा।

नितेश वर्मा

Friday, 19 September 2014

परिंदे ये देखते रहें बैठे अपने शाख पे

लौट आयें हैं हम फिर से उसी बात पे
दफ़न कर रक्खा था जिसे कई रात से

गुज़र गयी वो तूफ़ां अंधेरी काली रात
मकाँ अब तक हैं रुसवां इस मात पे

किस्मत का जो लिखा हैं मिटाया नहीं
आँखें आज भी हैंरां हैं इस इम्तिहां पे

जल गया शहर पूरा संग मेरे राख के
परिंदे ये देखते रहें बैठे अपने शाख पे

आज तो बस धुँआ धुँआ हैं कमरे में
चेहरें रूके हैं बस तेरे इक इंतज़ार में

कुसूर बस मेरा इतना ही था ऐ वर्मा
उसके लबों में डूबा रहा इक इमां पे

नितेश वर्मा

आँखें तेरी [Aankhein Teri]

इन आँखों से चूम लूं मैं यें पढी आँखें तेरी
लबों से चुरा लूं मैं थमीं हर इक नज़र तेरी

ख्बावों का मतलब कुछ और बदल देगा
सीनें में तू आ तो इक चेहरा उतार लूं तेरी

ये फ़िज़ा तो यूं ही मुझे इशारा ना बताती हैं
बाहों में जो तू आ तो ये ज़ुल्फें संवार दूं तेरी

लिक्खे खत को जो जला दूं मैं फिकर क्या
करीब आ मैं ये गलत-फहमीं उतार दूं तेरी

नितेश वर्मा

लम्हें का [Lamhein Ka]

हैं मुझे प्यार फिर से उसी किसी कहें लम्हें का
किया था जो मैनें कभी इकरार जिस लम्हें का

मुहब्बत जगाता फिरता हैं वो जो आँखों में मेरे
दर्द हैं जो वो दिखाया नहीं कभी उस लम्हें का

दिल की खामोशियाँ अब जुबाँ की धमकियाँ हैं
तुम्हें दिखाया था मैनें जो ख्वाब इस लम्हें का

इंतज़ार में ज़िन्दगी बस अब कट के रह गयी
या खुदा! मिलता नहीं सुकूँ मेरे कहें लम्हें का

रह नहीं सकता वो बिन मेरे मेरे सोहबत के वर्मा
हवाएँ भी याद दिलाती हैं तेरे संग हर लम्हें का

नितेश वर्मा


क्यूं जीयां हैं [Kyu Jiya Hai]

नाउम्मीद होकर भी जो जीयां हैं
बिन मक्सद भी वो क्यूं जीयां हैं

धूल गए हैं जो सब चेहरें बेंरग तेरे
कश्ती से तू समुन्दर क्यूं पीया हैं

मेरा जां लेना ना था बस का तेरे
तू ये समझा तो अबतक जीयां हैं

मग़र आँखें तेरी आज़ भी खामोश
तेरी लफ़्ज़ों को अब ये क्या हुआ हैं

बिछडता बस एहसास हैं दिल में
नम ज़िन्दगी अबतक क्यूं किया हैं

नितेश वर्मा

Monday, 15 September 2014

जाती हैं [Jaati Hai]

अब भी वो तकलीफ़ दे जाती हैं
जबभी वो मुझे याद आ जाती हैं

भूलाता हूँ मैं जो चेहरें बदल के
बेहर्श वो आँखों में आ जाती हैं

मेरे रूह को सुकूं आता ही नहीं
और वो सीनें में उतर जाती हैं

इस कदर सा परेशां हूँ मैं अब
नाम ज़ुबां पे यूं ही आ जाती हैं

फिक्र ना कोई मलाल हैं उसका
क्यूं बिन वज़ह वो रूठ जाती हैं

मेरे दिल की और तस्वीर क्या
बाहों में जो वो अब आ जाती हैं

नितेश वर्मा

Sunday, 14 September 2014

हिन्दी दिवस [Hindi Diwas]

हिन्दी हमारें और आपकें सबकों दिलों से जुडी हमारें अपनेतित्वय का एक प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यह हमें हिन्दुस्तानी होनें का प्रमाण देती हैं। भाषा जब एक होती है तो एक हद तक समझ भी एक ही हो जाती हैं।
आज हिन्दी दिवस हैं आज का दिन हमारें जीवन में हर्षों-उल्लास ले के आयें यही हमारी कामना हैं। आप सभी को हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं।

नितेश वर्मा

लोग ज़िन्दा जलातें रह गयें [Log Zinda Jalate Rah Gaye]

इस ग़म में भी जीएं तो अब क्या जियें
अपना कोई रहा नहीं अब हम क्या कहें

वो जो अपनी नफ़रत जता कर चले गए
दिल बेचैंन ना-जानें क्यूं मनाते रह गयें

उनकी सितम, उनके वादें और उनके इरादें
क्यूं ना समझ हम उनको उठातें चले गयें

लौट के आया ही था सुबह का भूला वो इंसा
कमरें का आईना उसे आँसू दिखातें रह गयें

सब देख कर भी वो अब तक खामोश हैं रहीं
और इल्ज़ाम सब उसके सर गिनातें रह गयें

हैंरा हैं अब तक मेरी की उम्मीदों की हर रातें
नसीब कैसा जो लोग ज़िन्दा जलातें रह गयें

नितेश वर्मा

बंद कर दिया [Band Kar Diya]

मैनें अब ये मुस्कुरानां भी बंद कर दिया
जबसे तुमनें मुझे सताना बंद कर दिया

तुझसे ही जुडी थीं हरेक थमीं साँसे मेरी
जुल्फों ने अब बताना भी बंद कर दिया

नज़र की खामोशी दूर तक चली आई थीं
आईना ने अब चेहरा बताना बंद कर दिया

नितेश वर्मा

Saturday, 13 September 2014

इन होंठों से मत पूछों [In Hotho Se Mat Puchho]

बदलतें मौसम से अब ना पूछों ये बे-रंग कैसा हैं
मेरी बातों को ना समझों तुम ये व्यंग्य कैसा हैं

लूट अब महज रोटियों तक की ही होती हैं यहाँ
डाकूओं से मत पूछों ये हिसाबे-किताब कैसा हैं

फिर से ले आया जो किनारा ये समुन्दर का
सीपियों से मत पूछों मोतियों का विरह कैसा हैं

इस भरी ठंडी धूंध में भी जो निकल पडता हैं
उस बाप से मत पूछों कंबल का छावं कैसा हैं

आसमानों में दिन गुजार के जो लौट आये हैं
उन परिन्दों से मत पूछों अब ये शाम कैसा हैं

बे-वजह जो दिल तोड के खामोश बैठा रहा हैं
ये मुहब्बत में किया अपराध मत पूछो कैसा हैं

कुछ ख्वाहिशी लम्हें ही गुजारें थें उसनें बाहों में मेरें
मेरे दिल का जो हुआ सुकूं अब इन होंठों से मत पूछों

नितेश वर्मा

आज वो शर्मिंदा हैं [Aaj Wo Sharminda Hai]

इस इल्जाम को लिये वो जो ज़िन्दा हैं
करता था जो प्यार आज वो शर्मिंदा हैं
जुल्फें सवारं लेना अदा कुछ और था
तेरा मुकर जाना ये बहोत ही गंदा था

नितेश वर्मा

जां भी हारी हैं [Jaa Bhi Haari Hai]

यह उम्र अब मुझपें कितनी भारी हैं
बिन तेरे तो अब यें जां भी हारी हैं

संभाला जाता नहीं आँखों का दरियां
यें इक कतरा हैं जो बेहोशी तारी हैं

बना लिया जो मैनें फिरसे मकाँ वहीं
रूठां हैं जैसे की कोई फतवा जारी हैं

माँगता था जो दानें बिन आहटों के
परिंदा सहमा हैं जैसे अबला नारी हैं

चैंन नहीं उसे इक पल का भी यहाँ
बेवजह उसनें कही हैं बातें सारी हैं

नितेश वर्मा

चेहरा [Chehra]

हरेक इंसान के ज़िन्दगी में एक ऐसा चेहरा होता हैं जो उसके सुकूं, उसके रूह, उसके आत्मीयता से जुडा हुआ होता हैं। वो उस चेहरें में इक मदहोशी, इक कामयाबी, इस मंज़िल, इक प्यार को पाता हैं। या यूं कहें तो वो उसे अपनी ज़िन्दगी मान बैठता हैं। चेहरा किसी का भी हो सकता हैं। रूप बदल सकते हैं लेकिन मायनें तो बस वही रहता हैं जो एक दिल को दूसरें दिल से जोड दें। भावुकता एक अलग विचार हैं और प्रेम अलग। चेहरें से ही प्यार और नफरत होती हैं। चेहरा ही इक आईना और इक माध्यम हैं जो मनुष्य के विचार को प्रदर्शित करती हैं। मन भावनाएं को साकार एक चेहरा ही करता हैं। यहाँ तक तो इंसान भगवान को ही एक काल्पनिक रूप में स्वीकार करता हैं जबकि उसनें ना कभी उन्हें देखा हो। यहीं तक सोच हैं शब्दों को यहीं तक बाँधनें की क्षमता क्यूंकि भगवान से आगें की कोई बात हो तो वो मेरी पहोच से काफी दूर हैं जो मैं इस ज़िन्दगी में तो नहीं पा सकता।

बदलना चाहा था
अब तक जिस चेहरें नें
डूबा हैं वो खुद
अब तक इक चेहरें में
कोई नमीं रही नहीं
बची इन आँखों में
खुदा कैसे पत्थर में
ढूँढतें कोई चेहरें तेरे
मैं मुक्कमिल था शायद
आईना ही शराबी निकला
बेपरवाह झूमतां हैं
बाहों में लिये सपनें कई
कैसे रंग रंगता हैं
चेहरों पे भी चेहरें
कोई कैसे रखता हैं
पुराना गर मेरा तस्वीर हुआ
कोना तो सही
मगर उसे नसीब तो कुछ हुआ
बदलनें लगे है अब तो
आँखों से किये इशारें भी
चूमतां था जो लब
जलनें लगे हैं उफ्फ!
समुन्दर के लहरों से भी
बदनसीब हारेगा
करनें दो मन की मर्जी उसे
परवाह नहीं कोई इतंजार नहीं
मुहब्बत हैं क्या कोई एतबार नहीं
मैं तो ना अब कुछ कहूँगा
इसे जब खुद
इसे खुद का ख्याल नहीं
चेहरा उदास हैं
मगर दिल की बात हैं
तो वो भी बेपरवाह हैं
सुनें भी तो कौन
अब इसे पढें तो कौन
चेहरा ही हैं दिखे भी तो क्या
जो गम में रहें
यादों से कहा तो सही
अब जुबां से कौन कहें
बंद कर दी तलाश वहीं
मुहब्बत में लगी थीं
कैसी बिन बुझी वो आग
आज भी सताया हैं
दिल को फिर से
जब वो चेहरा याद आया हैं
जब वो चेहरा याद आया हैं।

..नितेश वर्मा..

लिखना [Likhna]

पहलें लिखना एक शौक था.. फिर आदत सी बन गयी कुछ इसकी.. धीरें-धीरें ये एक काम सा लगनें लगा.. अब तो हालात कुछ ऐसी हो गयी हैं की लिखना बस एक मजबूरी बन के रह गयी हैं.. ना ही मुझमें ही कुछ ऐसा बचा हैं और ना ही जमानें में जो फिर से एक शौक सा लगें।
बस हर दिन एक रात का इंतजार.. आपका इंतजार..
फुरसत में ही तो कुछ बातें की जा सकती है.. आपकी राय मेरी लेखनी में स्याहीं का काम करती हैं। आप सदा ऐसे ही मुझसे और मेरी जिन्दगी में बनें रहें।

रोज-रोज की वहीं शायरी और वही ग़ज़ल सोचा आज कुछ बातें ही करता चलूं। आखिर एक पहचान भी तो होनी चाहिएं। आप मुझसे कुछ जानना चाहतें हो तो नि:संकोच पूछ सकते हैं।

नितेश वर्मा

कहता हैं [Kahta Hai]

मुझसे ही मेरा अक्स अब कुछ कहता हैं
करूं सौ सवाल तो इक जवाब कहता हैं

बदल गई हैं मेरी बे-लगाम नज़र मासूम
मेरे कमरें का कोना ये मलाल कहता हैं

हाथों में खन्ज़र और चेहरें पे करके फरेब
और वो सियासती मुझको गद्दार कहता है

खुद पे जो बीता उसे अब-तक याद रहा हैं
जो मेरी तिश्नगी को अब सराब कहता है [तिश्नगी=प्यास] [सराब= मृगतृष्णा]

देश के नाम पर मिटकर जो शहीद हैं सब
जमाना उन्हें आज बस बदनाम कहता हैं

नितेश वर्मा

मिलता नहीं [Milta Nahi]

मुझसे मेरा ही ख्याल मिलता नहीं
दिल खफ़ा है मगर वो मिलता नहीं

भरें बाजार था जिसे तालाशता मैं
वो हवाओं में भी अब मिलता नहीं

जैसे को तैसा हर कहानी का उपदेश
कहता है किताब मगर मिलता नहीं

नासूर दिल पे भी इक राहत दिखी है
मगर बीमारी में भात मिलता नहीं

खफ़ा होना ही हिसाब का था बस तेरें
मगर मरनें के बाद कोई मिलता नहीं

चला था परिन्दा इक आसमां चुरा के
मगर सुकूं उसे अब कहीं मिलता नहीं

नितेश वर्मा

डाल देता है [Daal Deta Hai]

मेरे हाथों में जो वो हाथ डाल देता हैं
कितना खुबसूरत एहसास डाल देता हैं

मैं पतंग की डोर में इक गांठ सा हूँ
वो मांझे में मुझकों कैसे डाल देता है

नाम लेना मुश्किल हैं मेरा जमानें में
वो एतिहातन कागज में डाल देता है

हर्श की फिक्र फिर से सताती रही हैं
ख्याल ये सीनें में खंजर डाल देता है

रूठ के जो ये तुम मुझसे बेगानी रही
ईश्क में ये सबक खलल डाल देता हैं

फिर से वही बात दुहराई हैं मैनें वर्मा
जैसे चोर दरवाजें पे रोटी डाल देता हैं

नितेश वर्मा

चेहरा भूल आया है आईना अक्स अपना

चेहरा भूल आया है आईना अक्स अपना
दिखता था जो पुराना कोई शक्स अपना

सलवटों सी बस बची रही ज़िन्दगी मौला
मिलता कहाँ कोई जिसमें हो रक्त अपना

नितेश वर्मा

इक सबक बाकी हैं [ik Sabak Baaki Hai]

जा रही है जान बस इक सबक बाकी हैं
मैं ज़िंदा हूँ मगर ये सौ कफ़न हाजिर हैं

लेके उड गया ख्वाब परिन्दा आँगन का
सीनें में था जज्बात आँखों में हाजिर हैं

पुरानें मकानों की तरह तस्वीर बनाई हैं
जो उतर आओं तुम तो ये दिल हाजिर हैं

क्या हुआ जो ये जमाना मतलबी हुआ
मेरी आँखों में देख ज़रा राज़ हाजिर है

होंगी कोई और उल्झी सी बातें तेरी तो
तुम्हारें आलिंगन में तो ये बाहें हाजिर है

मिट गए लिक्खें सारें आशिकों के नाम
और तुमपे मुक्कमल किताब हाजिर है

नितेश वर्मा

ज़िन्दगी बुझ सी गयी है [Zindagi bujh Si Gayi Hai]

क्यूं बेवजह ये ज़िन्दगी बुझ सी गयी है
साँसें भी थमीं और जुबां रूक सी गयी है

घिस के खराब हुए है सिक्कें सारें सुहानें
आँखों की ये ख्वाब क्यूं सूझं सी गयी है

बदलें की आग में झुंलस के सब राख है
बारिश की हुई नमीं क्यूं रूठ सी गयी है

माना है गाँव का बागीचा मेरा पुराना ही
नहर की ठंडी पानी क्यूं सूख सी गयी है

चलो कर आए हिसाब हम अपना पुराना
बदला खून का और ज़मीं सूख सी गयी है

दिल बेजान है आज भी कुछ इस कदर
टूटा है दिल और सूरत बिखर सी गयी है

नितेश वर्मा




ख्वाब सी लगी [Khwab Si Lagi]

हर हँसी रात इक ख्वाब सी लगी
तेरी हर साथ भी खरास सी लगी

दुनिया बदलने को चला था मैं
और रिश्तेदारों की परवाह लगी

मुठ्ठी से रेंत गिरके सँभल से गए
समुन्दर को खुद की आह लगी

हो जो इक कशिश आँखों में मेरे
मुझे दर्द में भी तेरी फरियाद लगी

हैं छुपा कहाँ मेरे कत्ल का सामान
खंज़र तो मुझे मीलों दूर की लगी

सीनें में बस इक ही बात थीं खली
क्यूं बेवजह जमानें की लात लगी

नितेश वर्मा