Saturday, 13 September 2014

इन होंठों से मत पूछों [In Hotho Se Mat Puchho]

बदलतें मौसम से अब ना पूछों ये बे-रंग कैसा हैं
मेरी बातों को ना समझों तुम ये व्यंग्य कैसा हैं

लूट अब महज रोटियों तक की ही होती हैं यहाँ
डाकूओं से मत पूछों ये हिसाबे-किताब कैसा हैं

फिर से ले आया जो किनारा ये समुन्दर का
सीपियों से मत पूछों मोतियों का विरह कैसा हैं

इस भरी ठंडी धूंध में भी जो निकल पडता हैं
उस बाप से मत पूछों कंबल का छावं कैसा हैं

आसमानों में दिन गुजार के जो लौट आये हैं
उन परिन्दों से मत पूछों अब ये शाम कैसा हैं

बे-वजह जो दिल तोड के खामोश बैठा रहा हैं
ये मुहब्बत में किया अपराध मत पूछो कैसा हैं

कुछ ख्वाहिशी लम्हें ही गुजारें थें उसनें बाहों में मेरें
मेरे दिल का जो हुआ सुकूं अब इन होंठों से मत पूछों

नितेश वर्मा

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