Sunday, 28 September 2014

खंज़र हैं इतनें [Khanjar Hai Itne]

हैं उल्झन ऐसी की यें आवाज़ें भी नम हैं
खंज़र हैं इतनें, मगर कातिल ही कम हैं

सहम गयी हैं ये फ़िजा, ये आँखें, ये रातें
बेवजह थीं जो बारिश गयी आज़ थम हैं

सबनें हिस्सों से हैं इक कहानी बताया
कट गयी ज़ुबां मेरी यें साँसें जो कम हैं

सबर रख-कर इक इम्तिहान भी दे दी
मगर थीं जो बातें उसमें आज़ भी दम हैं

उठा लो इन परिंदों का ये बसा बसेरा तुम
जब ये जमाना ही लूट के खानें में रम हैं

नितेश वर्मा

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