Friday, 19 September 2014

परिंदे ये देखते रहें बैठे अपने शाख पे

लौट आयें हैं हम फिर से उसी बात पे
दफ़न कर रक्खा था जिसे कई रात से

गुज़र गयी वो तूफ़ां अंधेरी काली रात
मकाँ अब तक हैं रुसवां इस मात पे

किस्मत का जो लिखा हैं मिटाया नहीं
आँखें आज भी हैंरां हैं इस इम्तिहां पे

जल गया शहर पूरा संग मेरे राख के
परिंदे ये देखते रहें बैठे अपने शाख पे

आज तो बस धुँआ धुँआ हैं कमरे में
चेहरें रूके हैं बस तेरे इक इंतज़ार में

कुसूर बस मेरा इतना ही था ऐ वर्मा
उसके लबों में डूबा रहा इक इमां पे

नितेश वर्मा

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