Monday, 22 September 2014

दो टुक [Do Took]

एक वक्त था जब कई उम्मीदें जुडी हुई थीं इस नाम से मेरा बेटा ये बनेगा, वो बनेगा, कभी माँ तो कभी पापा तो कभी हित-रिश्तेदार, परिवार वालें सब कोई ना कोई उम्मीदें लगाकर ही बैठे हुएं थें, आखिर हो भी क्यूं ना घर का वारिश जो था मैं। आप लोगों को शायद ये वारिश वाली बात समझ में ना आएं लेकिन पहलें का वक्त हुआ करता था जिसमें सभी रिवाज़ों, समाज़ो और रीतियों को अपनें सर लेकर चलना पडता था। हालांकि मैं इसे बोझ ना अभी समझता हूँ और ना ही कभी इसके बारें में सोचा था, लेकिन हाँ घबराहट हर वक्त हुआ करती थीं।

इतनी उम्मीदें..
एक नन्ही सी जान.. विरोध का भाव.. दोस्त होते हुएं भी अकेलापन शायद कोई गर्ल-फ़्रेंड ना थीं इसलिए इतना खिंचाव बना रहा था। खैंर जो होना था हुआ मेरे साथ और सबकी उम्मीदों को मैनें पानी में मिला दिया एक शराब के बोतल के साथ। लत लग गयी थीं, चाह कर भी कुछ ना कर पा रहा था या शायद हर शाम बोतल की पुकार ने मुझे कहीं जकेड रक्खा था या सबकी उम्मीदों का बोझ अब मेरा सर सह नहीं पा रहा था। जब भी कोई खत या कोई मिलनें आया करता लाखों सवालें, उम्मीदें, परेशानियाँ ना जानें किन-किन चीज़ों की पहाडे अपनें साथ लाया करता। इन सब चीजों से मैं हार गया था, माँ की उम्मीदें अब बस नाउम्मीद का नाम रहकर रह गयी थीं। बेटा इंजीनियर बने भले से वो ऊँचा औदा ना हासिल कर पाएं, कोई परवाह नहीं लेकिन बने जरूर। अपनें कंघन को गिरवीं रखकर भेजा था माँ ने शहर मुझको, मैं यें किसे बताता किसे सुनाता अब की तरह तो पहलें गर्ल-फ़्रेंड भी नहीं हुआ करती जो मेरी परेशानियों को सुनती।

थोडा हास्यंपद हो सकता हैं मेरा कहना लेकिन जब कोई सुननें वाला ना हो तो बस हैंरानियाँ और परेशानियों के सिवा और कुछ नहीं होता। मगर ये बातें सबको मार्मिक ही करती हैं.. सबके दिलों को टींसती रहती हैं.. खफ़ा होनें का एक वजह बना देती हैं, कुछ के दिलों में उतरना तो कुछ के दिलों में चुंभना ये तो बस बातें ही किया करती हैं। अगर मैं ये समझ के भी ऐसी बातें करूं तो इससे बडी अपमान की बात क्या हो सकती हैं। आज़-तक वो बात समझ में नहीं आई क्यूं माँ ने अपना सब कुछ बस एक मेरे भविष्य में लूटा दिया.. पापा ने अपनी पूरी कमाई आखिर क्यूं मुझपे क्यूं लूटा दी। मैं समझ नहीं पाया था ना ही मैं अब तक समझ पाया हूँ।

मुझे लेखक बनना था शायर बनके बस रह गया.. कभी कभार कुछ थोडा बहोत लेखको जैसे लिख लेता हूँ लेकिन वो हर बार नहीं होता कहानियाँ बुननी मुश्किल होती हैं.. लम्हें में तो शायरी ही की जा सकती हैं। ज़िन्दगी मैनें दर-असल लम्हों में ही जीया था कभी कभार जब घनी काली अंधेरी रातों में चाय की चुस्कियों को लेकर अपनें शहर के बारें में छत पे अकेला बैठा ये सोचा करता था कि आखिर क्यूं कभी मेरें अपनों ने मुझे वो क्यूं नहीं करने दिया जिसे मैं करना चाहता था। लेकिन अब समझ आता हैं मैं चाहता ही क्या था दिल मेरा हमेशा से चोर हुआ करता था कभी किसी की तो कभी किसी की हर वक्त मेरे घर पडोसीयों से मेरे हवालें के शिकायत आया करती थीं। माँ द्रवित होती थीं लेकिन उन्हें मुझमें इक उम्मीद की किरण हर वक्त दिखाई देती थीं। शिकायतों का क्या था वो तो कल बंद ही हो जानी थीं। माँ को सब इतना कुछ कैसे पता होता था। शायद उनका ही असर रहा होगा जो मैं इतने काम के, कमाल के शे'र कर लेता हूँ।

खलल आज़ भी उस बात को लेकर हैं माँ के गिरवीं कंघन को ना छुडा पाया। चाहता था मैं कुछ करू लेकिन कभी वक्त तो कभी अपनों ने मुझसे मुँह मोड लिया। आखिर कब तलक कोई साथ देता हैं मैनें ये सोचतें हुएं उन्हें नज़रंदाज या माफ़ आप जो कहों कर दिया। अब कोई पीडा नहीं हैं ना मुझे ही और ना ही मेरे अपनें को माँ-पापा को गुजरें अब पूरें 11 साल हो गए हैं। पहले मेरी मजबूरियों के समझनें वाला भी कोई था अब तो बस तन्हाई डंसती हैं.. आखें रूलाती हैं.. कानें वो आवाज़ तलाशती हैं जो उम्मीदों से भरें था.. आज़ भी निवालों का हाथ भरें रात मुझे जगा दिया करता हैं। क्यूं ऐसा नहीं होता लोगों के बाद ये यादें क्यूं नहीं उनके साथ ही चली जाया करती हैं। लेकिन मैं क्या करूं खुद को हारा हुआ कैसे स्वींकार करूं। इतनी हिम्मत कहाँ बची हैं मुझमें अब तो दम भी घुंटता रहता हैं इस माहौल में.. उबन सी बसी हुई हैं इस सरकार में.. इस राज्य में। देश-हित की बातें किया करतें थें पापा, कैसे हमारें पुरखों ने अपनें देश के लिए अपना खून बहाया था, देश की भक्ति होती थीं।

ठीक ही हुआ आज़ पापा नहीं रहें वर्ना ऐसा हाल.. क्या कहता मैं। आखिर युवा पीढीं में होना एक ज़िम्मेदार होना और उसके हैसियत से ये कहना कुछ गलत नहीं होगा.. क्यूंकि आज़ आँखों के सामनें सब हो जाता हैं लेकिन ज़ुबां जाँ की फिक्र में खामोश रह जाती हैं। अब बस कुछ कहना नहीं चाहता और ना ही आपकों कहीं उलझानां चाहता हूँ। क्यूं और कैसे..? तलाश ये जारी रहेगी माँ की उम्मीदें थोडी ही सही लेकिन पूरी जरूर होगी और उनके कंघन के बारें में भी मैनें सोचा हैं एक दिन ऐसा आयेगा जब मैं पापा को भी एक भरी उम्मीद से अपनी नज़रें मिला पाऊँगा।

नितेश वर्मा

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