Tuesday, 27 January 2015

इन आँखों से नजानें बूंदे कब-तक बरसती रही

इन आँखों से नजानें बूंदे कब-तक बरसती रही
पूछा तो कही खातिर ये तुझ-तक तरसती रही

सौ दिनों का प्यासा परिंदा यूं ही भटकता रहा
और घनी बादल उसके मरने-तक गरजती रही

क्यूं सियासत-बंदी अब दुकानों में बंद हो गयी
साँसें भी अब बातों पर आने-तक मुकरती रही

वो ख्वाबों का सपना दिखा के कब का गया हैं
और बैठी पगली दीवानी अब-तक संवरती रही

नितेश वर्मा

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