Thursday, 1 January 2015

कितनी परेशां सी हैं रात इस कमरें में

इक खामोशी सी हैं इस कमरें में
बेजान सी बेआवाज हैं इस कमरें में
कोई सुनता नहीं शायद मीनारों की
कितनी परेशां सी हैं रात इस कमरें में

यूं ही बे-धडक चली आती हैं हवाएँ
जैसे सर्द रात आग हैं इस कमरें में
डूब चुका हैं ख्याल उसका आँखों में
सौंध सी बची हैं वो बस इस कमरें में

नितेश वर्मा
और
इस कमरें में

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