Tuesday, 6 January 2015

रूठना-मनाना यहाँ कहाँ हैं लोग ही बडे हैं

किसी एक को पानें की कोशिश तो एक छूट सा जाता हैं.. किसी एक की तलब में दूसरा रूठ सा जाता हैं.. किसे स्वीकार करें.. खुद को.. या किसी के खुशियों को।

बहोत मुश्किल और उल्झा हुआ सा दिखता हैं यह सब। इंसान को एक बार में एक ही खुशी मिलती हैं.. एक चीज़ पर होना.. एक चीज़ की ही खुशी देती हैं। बहोतों पे ध्यान रखना पद-भ्रमित करती हैं। यदि आप किसी विषय से जुडे हो और कोई दूसरा.. जो आपके करीब हो.. आपकों बस यह समझ करके के आप अब उसके नहीं रहें.. आपसे नाराज़ हो जाएं या आपसे रिश्ता तोड ले तो कुसूर समझ नहीं आता।

कुछ बातें समझ से परें होती हैं, यह मनुष्य की प्रकृति हैं.. वर्ना मनुष्य भी भगवान होतें। ज़िन्दगी जहाँ बहोत कुछ सीखाती हैं.. तो वहीं यहीं ज़िन्दगी तकलीफ भी बहोत देती हैं। खुद को संवारें या किसी के खुशियों को। ग़र मेरी मानें तो बात यहीं तक हैं.. ग़र कोई आपसे अकारण नाराज़ होता हैं तो उसका पीछा करना छोड दे.. ग़र वो कुछ कहना नहीं चाहता तो उसे उसकी दिशा में जानें दे, क्यूंकि जो छोटी-छोटी बातों पे रूसवां हो जाएं तो उसे बाद में मनाना बहोत मुश्किल हो जाता हैं।

अब तो इन राहों पर सारें रूसवां ही खडे हैं
रूठना-मनाना यहाँ कहाँ हैं लोग ही बडे हैं

नितेश वर्मा

No comments:

Post a Comment