Monday, 25 April 2016

उम्रदराज़ चेहरें

उम्रदराज़ चेहरें, बडी-बडी इमारतें, खिसियाती ये सूरज की किरणें और तुम्हें यूं साडी में अचानक देखना.. ऐसा तो छोडकर बिलकुल भी नहीं गया था मैं। शायद मेरे इस निजी सफ़र में सबकुछ बदल गया है, अब जो तुम्हें पाने आया हूँ तो अल्फ़ाज़ ही नहीं है.. लौट रहा हूँ बिन बताएं.. कुछ कसक हैं जो अब बयां नहीं हो पाऐंगे.. अमानत के तौर पे लिये जा रहा हूँ और ना ही कभी इसके बारें में कोई जिक्र होगा।
इस अमानत में कभी कोई ख़यानत नहीं आयेगी, मेरा यकीन रखना। तुम्हें और तुम्हारे इस शहर को अलविदा किये जा रहा हूँ, अब कभी मुलाकात नहीं होगी।

नितेश वर्मा

इस ख़ामोश से लम्हे में

इस ख़ामोश से लम्हे में
एक नादां दिल टूट गया
बात उस दिल की नहीं
दिलों के टूट जाने की हैं
वो अल्फ़ाज़े ढूंढता रहा
शायद बयां करने को दर्द
पता करता रहा वो पता
जहाँ से हर दफा दुआएं
लौट आती हैं अकसर
ये बहाने लेकर.. के -
पता ही ये ग़लत था
वहाँ कोई रहता ही नहीं।

नितेश वर्मा

कहानी

कहानी जो किसी उम्मीद में सुनाओगे तो फिर बिखर जाऐंगे हम
कई दफा सोची है घर जाने की इस दफा जिक्र पे ही मर जाऐंगे हम
अब जो आग ही लगाकर बैठे हो खुद के घर में तो क्या कहें वर्मा
इस आग से बचाओगे तो जिल्लत से ही घुटकर मर जाऐंगे हम।

नितेश वर्मा

अब नहीं होती हैं तुम्हारी जैसी लड़कियाँ

अब नहीं होती हैं तुम्हारी जैसी लड़कियाँ
जो थोड़ी सी बदमिजाज हो
या कोई खुलीं किताब की अल्फ़ाज़ हो
जिसे मैं जब चाहूँ पढ़ सकूँ, छू सकूँ
बाहों के दरम्यान कसकर रख सकूँ
कभी कोई रोमांटिक सी जो सीन देख ले
कुछ पल को वो मुझसे शर्मां जाए
फिर मेरे ही कांधे पर बेफिक्र सो जाए
कोल्ड-ड्रिंक्स और समोसे से हटकर
गर्म चाय की कभी कोई आरज़ू करें
किसी पार्क में घंटों बैठीं बतियाती रहे
मेरी शर्तों पर अब कोई जीता नहीं
यकीनन मैं ही उस वक़्त भी गलत था
वर्ना तुम्हारे बाद कोई एक तो समझता
पर जब भी मैं सोचता हूँ लगता है कि
वाकई ही..
अब नहीं होती हैं तुम्हारी जैसी लड़कियाँ
जो थोड़ी सी बदमिजाज हो
या कोई खुलीं किताब की अल्फ़ाज़ हो।

नितेश वर्मा

सब्र कब तक रहें हम बेसब्रों के पास

सब्र कब तक रहें हम बेसब्रों के पास
जाँ आकर घुट गयीं है कब्रों के पास।

सियासत चली थी तेज हवाओं की यूं
लाशें बिछ गईं महज़ खबरों के पास।

आँखों में इतने आँसू मुख़्तलिफ बने
पानी भी गुमसुम हैं यूं अब्रों के पास।

अब क्या करके तुम मानोगे बातें मेरी
डर है ये कैसा मुझे मकबरों के पास।

मैं इस तल्ख़ में जीता रहा हूँ ऐ वर्मा
मन्नतें अधूरी हैं मेरी रहबरों के पास।

नितेश वर्मा

Friday, 22 April 2016

मुझे पता है इतनी खामोशी में

मुझे पता है इतनी खामोशी में
मेरा लिखना असर नहीं होगा
ना तुम अर्ज़ का इरशाद करोगे
ना मैं सुनाने की कोई गुस्ताख़ी
ना तो कोई महफ़िल होगी और
ना ही कोई कहीं मुझसे पर्दा
मगर यह सबकुछ होते हुए भी
एक कमी होगी जो मुझमें ही
कहीं एक कसक सी छिपी होगी
मेरी खामोशियाँ मुझमें बेचैन होगी
मैं यातनाओं में रहूँगा शायद
फिर भी सबकुछ जानते हुए
नजाने क्यूं
ये कलम रूकती नहीं है
शायद लगता है इसे के
सबकुछ बदलेगा इक दिन
मैं, तुम और इस खामोशी के मायने।

नितेश वर्मा

क्या इतना ही गुनाह था कि हम गुलाब थे

क्या इतना ही गुनाह था कि हम गुलाब थे
काँटे भी थे हिस्से में दिल भी इज़्तराब थे।

हमने सजदे में ही गुजारी जिन्दगी तमाम
हमें कहाँ पता था के घर में भी शराब थे।

बड़े मुश्किल से ये जान बचाकर आये है
इतने नहीं थे परेशां जब हममें अज़ाब थे।

उनके तिश्नगी के चर्चें इस कदर थे वर्मा
शायर पागल औ' चेहरे हँसीं हिजाब थे।

नितेश वर्मा

इस दरिया पे नाज़ था जिनको भी बहुत

इस दरिया पे नाज़ था जिनको भी बहुत
अब वो प्यासे हैं इस दरिया में उतरकर।

वह मेहरबानी जताते रहें ताउम्र हमारी
एक हमही थे खामोश वो आँखें पढ़कर।

नितेश वर्मा

लेकर तन्हाई कहाँ तक फिरेंगे आप

लेकर तन्हाई कहाँ तक फिरेंगे आप
अब शायद कहीं इश्क़ करेंगे आप।

गम-ए-बोझ सिर्फ़ मुझ पर थोड़ी है
होकर परेशान थोड़ा तो रहेंगे आप।

बेहाल है हाल इस मौसम भी हमारा
मेहरबानी होगी जो यूं बरसेंगे आप।

एक ओर तमाम ख़्वाहिशात है वर्मा
बूंदों से प्यास कब तक भरेंगे आप।

नितेश वर्मा और आप।

वाहिद हूँ तेरे शहर में मैं मुहब्बत

वाहिद हूँ तेरे शहर में मैं मुहब्बत
लग जाऊँ गले जो दे दो इजाज़त।

नज़रे-सानी फरमाए वासोख़्त पर
दूर होके जीना भी होगा अज़ीयत।

नर्म दिल की किताब आप होंगी
वर्ना कौन रखता है दर्दों हैसियत।

दुश्मने-जाँ परेशां हैं यूं नकरा से
बैठ जाओ दो पल मेरी सोहबत।

लिबास ज़िस्म को सुकूँ देगी वर्मा
पर मुझको है जलाने की आदत।

नितेश वर्मा

मुश्किल कितना रहते हो तुम

मुश्किल कितना रहते हो तुम
खुद को क्या समझते हो तुम।

दरिया से मेरे जिस्म के प्यास
समुंदर मुझको लगते हो तुम।

उन सर्दियों में नजाने क्या थीं
अब तक जो सुलगते हो तुम।

तुम्हारे साथ ही सफ़र हँसीं हैं
ख्यालों में यूं बहकते हो तुम।

नज़रें भी इबादतों सी हैं वर्मा
इन दुआओं में बहते हो तुम।

नितेश वर्मा और तुम।

तुम ख्यालों में आती हो मेरे

तुम ख्यालों में आती हो मेरे
एक हँसीं ख़्वाब की तरह
तुमको तलाशा था जाने कबसे
हो मुझमें तुम सराब की तरह
एक दफा तुमको देखा जभी मैंने
मैं खोया रहा तुममें गुमनाम सा
मुझको मेरी ना अब ख़बर है कहीं
मैं तुममें ही रहता हूँ गुलाब की तरह
तुम ख्यालों में आती हो मेरे
एक हँसीं ख़्वाब की तरह

के देखके तुमको गुजरती है
रातें भी सारी तुममें संवरती है
मेरी बेचैनियों में तुम रहती हो कहाँ
किसी दुआ की जैसे तुम जन्नती जहां
तुमपे ही आके सवालें गुम हैं
तुम हो जैसे कोई जवाब की तरह
तुम ख्यालों में आती हो मेरे
एक हँसीं ख़्वाब की तरह।

नितेश वर्मा

Thursday, 14 April 2016

रात की इस ख़ामोशी में मुझमें कौन आता है

रात की इस ख़ामोशी में मुझमें कौन आता है
मैं लापता हूँ कहीं ये मुझको कौन बतलाता है।

इस वीराने में भी वो एक लौ जलती रहती है
हवा ये बेतहाशा क्यूं हर बार उसे बुझाता है।

ना सब्र उसको है ना मुझे इस इश्क़ पे यक़ीन
फिर जाने है क्या जो मुझे उसके पास लाता है।

वो गुनहगार बनके बैठा है खुद की नज़रों में
उसके जिक्र से उसका हाल बयां हो जाता है।

जला डाला हैं उन सारे ख़्वाबों के निशाँ वर्मा
जिसमें हर दफा नुकसान मुझे ही सताता है।

नितेश वर्मा

किस चीज़ की जल्दी है आपको इस शहर में

किस चीज़ की जल्दी है आपको इस शहर में
जब कोई मकाँ रहने लायक नहीं इस घर में।

क्यूं उलझनों में भागे फिरते हो तुम यूं अकेले
मयस्सर नहीं जब सुकूनेलम्हा किसी पहर में।

क्या कर लिये तुम मुझे मेरे हाल पे छोड़कर
बेचारे हम हो गए तुम्हारे ही खोजों-ख़बर में।

लाईलाज़ बीमारी थी कोई दवा काम न आया
जिंदगी परेशां रही इसी कश्मेकश सफ़र में।

ये दुनिया सुखनवरों की तुमसे अलग हैं वर्मा
नहीं किसी को है प्यास समुंदर की भंवर में।

नितेश वर्मा

हमारी किताबत को समझिये हमसे उलझिये

हमारी किताबत को समझिये हमसे उलझिये
मुहब्बत ना सही तो ना हरकतें तो ये बदलिए।

आवारगी में रहिये या बेफिक्र होके मचलिए
हर शाम ज़नाब घर भी तो फोन कर लीजिए।

नितेश वर्मा और घर। 😊

उन सारें ख़तो को जला डाला, बस एक तेरी तस्वीर छिपा ली

उन सारें ख़तो को जला डाला, बस एक तेरी तस्वीर छिपा ली
जब जाना हमने के तुम नहीं रही, सीने में फिर आग लगा ली।

नितेश वर्मा

ये हवाएं भी ख़ामोश कब तक रहेगी

ये हवाएं भी ख़ामोश कब तक रहेगी
ख़बर नहीं मुझे होश कब तक रहेगी।

मुझे यकीं नहीं है मैं हैंरत में रहता हूँ
आँखें ये मेरी बेहोश कब तक रहेगी।

जब भी उनसे हक़ की बातें की मैंने
पूछा तेरी सरफरोश कब तक रहेगी।

अब तो ज़िंदा जिस्म मयस्सर नहीं हैं
ये जाँ जहां मदहोश कब तक रहेगी।

कोई ग़र्द हैं जो जाती ही नहीं है वर्मा
दो बदन की ये द्वेष कब तक रहेगी।

नितेश वर्मा

मुझे लड़ने की आदत नहीं है

मुझे लड़ने की आदत नहीं है
आपबीती हैं, कहावत नहीं है।

मैं भी जागता रहता हूँ रातों में
ये इश्क़ कोई बग़ावत नहीं है।

तोड़ कर दिल मेरा पूछते हो
तुमको अब भी राहत नहीं है।

किसी गली में गुमराह हैं लोग
मयस्सर उन्हें मुहब्बत नहीं है।

मायने जिन्दगी के क्या हैं वर्मा
परेशानी कोई आफ़त नहीं है।

नितेश वर्मा और नहीं है।

Friday, 8 April 2016

अब वो कहाँ आयेगा मेरे बुलाने पर

अब वो कहाँ आयेगा मेरे बुलाने पर
वो जो ठान बैठा है मुझे रूलाने पर।

उससे सौदा है तो जबाबदेही भी है
देर हुआ तो जाँ जायेगी जनाजे पर।

तुमसे इश्क़ की बात कब तक करें
खर्च होता है ये वक्त मुस्कुराने पर।

रात की खामोशी मुझमें बेचैन रही
जैसे लगा तन आग हो बुझाने पर।

नहीं प्यास है औ' ना ही कुआँ यहाँ
फिर भी सब पी लेते हैं पिलाने पर।

उम्मीद के रास्तों पे मेरा नाम नहीं
मिलेगा यह मंजिल मिल जाने पर।

नितेश वर्मा

ये ख्याल तेरा अज़ीयत के सिवा और कुछ भी नहीं

ये ख्याल तेरा अज़ीयत के सिवा और कुछ भी नहीं
मेरा माज़ी मेरे जिल्लत के सिवा और कुछ भी नहीं
बेकार सी बोझिल तमन्नाओं का सफ़र था मेरा
ये मुहब्बत बगावत के सिवा और कुछ भी नहीं।

नितेश वर्मा

सुबह अब कभी 11 बजे से पहले नहीं होती

सुबह अब कभी 11 बजे से पहले नहीं होती
ना ही सुबह जग जाने की कोई कशमकश
ना ही कुछ पा लेने की कोशिश होती है
और ना ही गमों में डूबे रहने की आदत है
इतना सब कुछ होते हुए, ये सब जानते हुए
दिल जाने क्यूं खुद से मुतमईन नहीं होता
हर वक़्त एक अजीब अनुभूति
जो बयां करने से परे होती हैं
मुश्किल होता है कभी-कभी खुदको समझाना
या हर दफा जब भी कोई बात थोपी जाती हैं
नुकसानदेह हो जाता है जीना
बोझ चंद साँसों की खुदको उठने नहीं देती
बिस्तर जिस्म को खुद में समेटकर सो जाता है
आँखों जगती हैं और साँसें भी चलती है मगर
सुबह अब कभी 11 बजे से पहले नहीं होती।

नितेश वर्मा

तेरे कैद में हम भी कैद हो जाये

तेरे कैद में हम भी कैद हो जाये
आसमां से लिपटे आसमां हो जाये
तुमको ख़बर भी खुद की ना होने दे
बेखबर तेरी ग़ज़लों से बयां हो जाये
प्यार हम भी कुछ ऐसा कर जाये
तुमको चाहें बस औ' तुमपे मर जाये
ना कुछ बोलें तुमसे ना ही सुनाने दें
बस देखते ही तुमको उम्र भर रह जाये
तेरे कैद में हम भी कैद हो जाये
आसमां से लिपटे आसमां हो जाये।

नितेश वर्मा

कोई हसीं शमां तेरे नाम का

कोई हसीं शमां तेरे नाम का
ये शामों-सुबहा तेरे नाम का
साँसों में तू हर वक़्त है
लबों पे हैं दुआ तेरे नाम का
सफ़र है हसीं तुझमें मेरा
तू है सिला कोई
मेरे हसीं अंजाम का
कोई हसीं शमां तेरे नाम का
ये शामों-सुबहा तेरे नाम का

होने लगी हैं बातें अजीब अब
खोया रहता है दिल मेरा रक़ीब अब
चाहता हैं तुझसे कुछ बातें करें ये
सोचता है अकसर हर्फ़-ए-हसीं अब
छूने की कोशिश करता हूँ तुझको
हो जा तू मेरे किसी काम का
कोई हसीं शमां तेरे नाम का
ये शामों-सुबहा तेरे नाम का

नितेश वर्मा

तेरे हाथों की लकीरों की गुस्ताख़ किताबत हूँ मैं

तेरे हाथों की लकीरों की गुस्ताख़ किताबत हूँ मैं
जिसको तेरी नज़रें कभी ना पढ़े वो आफ़त हूँ मैं
हमसफ़र मैं तुझे अपना कैसे ना कहूँ अब
तेरी बेचैनियों में आकर लगे के कोई राहत हूँ मैं।

नितेश वर्मा

Thursday, 7 April 2016

मेरा उसपे कोई इख़्तियार नहीं है

मेरा उसपे कोई इख़्तियार नहीं है
ये इश्क़ है कोई कारोबार नहीं है।

वो यूं खुश रहेगी मुझसे दूर होकर
अब जाके लगा उसे प्यार नहीं है।

आँखों से उसका चेहरा हटता नहीं
दिल भी ये मेरा समझदार नहीं है।

छुप जाता है वो मुझसे से भी पहले
कभी था जो अब तलबगार नहीं है।

क्यूं ये जिन्दगी बेबसी में बर्बाद है
शायद कोई है जो शर्मसार नहीं है।

नितेश वर्मा

गुलाब की पंखुड़ियाँ अब सूख चुकी हैं

गुलाब की पंखुड़ियाँ अब सूख चुकी हैं
उन किताबों के वरक़ भी मुरझा गए हैं
मुहब्बत स्याह हो चुकी है हर मायने में
दाग़ जिस्म से होकर दिल में बैठ गई है
जबसे चाँद मेरे आँगन से गायब हुआ है
अल्फ़ाज़ बेमानी से लगते है नजाने क्यूं
उनके ना होने का जिक्र भी रहा मुझमें
वो मौसम ही बदले हैं शायद.. मैं नहीं
अब खिली धूप और खुली हवा नहीं हैं
गुलाब की पंखुड़ियाँ अब सूख चुकी हैं
उन किताबों के वरक़ भी मुरझा गए हैं।

नितेश वर्मा

खामोशियाँ नहीं है मुझमें तेरे बाद

खामोशियाँ नहीं है मुझमें तेरे बाद
परेशां है दिल मेरा मुझमें तेरे बाद

किसी धूप का कोई असर नहीं है
छांव बेकरार सी है मुझमें तेरे बाद

सवाल भी इन लबों के मेरे नहीं है
एक किरदार है यूं मुझमें तेरे बाद

चल पड़ा जो वो जिक्र तेरा मुझमें
रात-भर जागा वो मुझमें तेरे बाद

यूं उम्मीद से ज्यादा नाउम्मीद है
खो गया जाने क्या मुझमें तेरे बाद।

नितेश वर्मा

थोड़ा ज़ज्बाती तौर का लेखक था वो

थोड़ा ज़ज्बाती तौर का लेखक था वो
शाम की उस जिक्र में पापा ने कुछ ऐसे ही बताया था
डोमटोली में कोई पुरानी सी साइकिल चोरी हो गई थी
अखबार वाला अब 3 दिनों तक नहीं आनेवाला था
प्राइमरी स्कूल के इम्तिहान शुरु थे
कल सुबह दीदी को ससुराल लेकर जाना था
माँ के आचार महीनों से बे-बौय्याम थे
दादी की वो चारों धामों की जिरह अलग थी
और तुम्हारा वो फोन कॅाल करके कह देना-
के अब मैं तुम्हारी नहीं रही
जैसे लगा के शरीर में अब जाँ ही नहीं रही
कोलाहल सी वो शाम मायूस हो गई
फिर पड़ोस की काकी ने बताया
कि तुमने मुझे किसी बहाने सुबह बुलाया है
फिर लगा जैसे की सबकुछ ठीक ही है
उस लेखक का मरना
बड़े लोगों के शामों की जिक्र
डोमटोली का रोना-धोना
अखबार वाले के नित नये पैंतरे
बच्चों के इम्तिहान
घर के महिलाओं की खातिरदारी
बस एक तुम्हारे मेरे साथ हो जाने से
कैसे सब कुछ बेहतर हो गया।

नितेश वर्मा

इन लबों पे जो मुस्कुराहट है

इन लबों पे जो मुस्कुराहट है
साँसों के दरम्यान आहट है।

हँसीं शक्लें मुझमें बनती रही
जिंदगी को थोड़ी सी राहत है।

नितेश वर्मा

ज़िन्दगी हमने ऐसे ही गुजारी है

ज़िन्दगी हमने ऐसे ही गुजारी है
जो है, जितनी है, सब उधारी है।

कोई काम नहीं तो चुप रहते है
ना कुछ है तो भी जिम्मेदारी है।

बदन को मयस्सर नहीं लिहाफ
जिस्म में खुद एक जाँ भारी है।

बूंद-बूंद गिर रहा मुझसे बेसब्र
साँसें भी सारी हुई व्यापारी है।

अब तो दाग़ ही है चाँद में वर्मा
आईने में कहाँ कोई बेगारी है।

नितेश वर्मा

उसको मैंने चाहा बहोत है

उसको मैंने चाहा बहोत है
ज़बानी कुछ ठीक-ठीक
मैं बता भी नहीं सकता
हालांकि ये समझाने की मैंने
कई दफा कोशिश की है
पुकारा है उसे दिल से
कई बार गुजारी है रात
इस वियोग में के वो आएगी
लौटकर मेरी इन बाहों में
फिर मैं भी हो जाऊँगा
बिलकुल ठीक
ठीक उसकी तरह जैसे के
वो रहती है मेरे दिल के दरम्यान।

नितेश वर्मा

यूं गुनहगारों में भी शामिल नहीं है हम

यूं गुनहगारों में भी शामिल नहीं है हम
करें शिकायतें हुए काबिल नहीं है हम।

हर रोज़ लिखें औ' मशहूर भी हो जाये
इतने बड़े अदबी कामिल नहीं है हम।

जाँ लेके जाओगे तो क्या जाओगे तुम
हसरतों के जाति साहिल नहीं है हम।

पत्थर हमारे घर पे क्यूं मार देगा कोई
अब इतने भी नाकामिल नहीं है हम।

ये चंद रोज़ पहले की बात है सुनो तो
अदब-ए-जबाँ है जाहिल नहीं है हम।

नितेश वर्मा और नहीं है हम।