गुलाब की पंखुड़ियाँ अब सूख चुकी हैं
उन किताबों के वरक़ भी मुरझा गए हैं
मुहब्बत स्याह हो चुकी है हर मायने में
दाग़ जिस्म से होकर दिल में बैठ गई है
जबसे चाँद मेरे आँगन से गायब हुआ है
अल्फ़ाज़ बेमानी से लगते है नजाने क्यूं
उनके ना होने का जिक्र भी रहा मुझमें
वो मौसम ही बदले हैं शायद.. मैं नहीं
अब खिली धूप और खुली हवा नहीं हैं
गुलाब की पंखुड़ियाँ अब सूख चुकी हैं
उन किताबों के वरक़ भी मुरझा गए हैं।
नितेश वर्मा
उन किताबों के वरक़ भी मुरझा गए हैं
मुहब्बत स्याह हो चुकी है हर मायने में
दाग़ जिस्म से होकर दिल में बैठ गई है
जबसे चाँद मेरे आँगन से गायब हुआ है
अल्फ़ाज़ बेमानी से लगते है नजाने क्यूं
उनके ना होने का जिक्र भी रहा मुझमें
वो मौसम ही बदले हैं शायद.. मैं नहीं
अब खिली धूप और खुली हवा नहीं हैं
गुलाब की पंखुड़ियाँ अब सूख चुकी हैं
उन किताबों के वरक़ भी मुरझा गए हैं।
नितेश वर्मा
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