Thursday, 14 April 2016

रात की इस ख़ामोशी में मुझमें कौन आता है

रात की इस ख़ामोशी में मुझमें कौन आता है
मैं लापता हूँ कहीं ये मुझको कौन बतलाता है।

इस वीराने में भी वो एक लौ जलती रहती है
हवा ये बेतहाशा क्यूं हर बार उसे बुझाता है।

ना सब्र उसको है ना मुझे इस इश्क़ पे यक़ीन
फिर जाने है क्या जो मुझे उसके पास लाता है।

वो गुनहगार बनके बैठा है खुद की नज़रों में
उसके जिक्र से उसका हाल बयां हो जाता है।

जला डाला हैं उन सारे ख़्वाबों के निशाँ वर्मा
जिसमें हर दफा नुकसान मुझे ही सताता है।

नितेश वर्मा

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