Monday, 25 April 2016

अब नहीं होती हैं तुम्हारी जैसी लड़कियाँ

अब नहीं होती हैं तुम्हारी जैसी लड़कियाँ
जो थोड़ी सी बदमिजाज हो
या कोई खुलीं किताब की अल्फ़ाज़ हो
जिसे मैं जब चाहूँ पढ़ सकूँ, छू सकूँ
बाहों के दरम्यान कसकर रख सकूँ
कभी कोई रोमांटिक सी जो सीन देख ले
कुछ पल को वो मुझसे शर्मां जाए
फिर मेरे ही कांधे पर बेफिक्र सो जाए
कोल्ड-ड्रिंक्स और समोसे से हटकर
गर्म चाय की कभी कोई आरज़ू करें
किसी पार्क में घंटों बैठीं बतियाती रहे
मेरी शर्तों पर अब कोई जीता नहीं
यकीनन मैं ही उस वक़्त भी गलत था
वर्ना तुम्हारे बाद कोई एक तो समझता
पर जब भी मैं सोचता हूँ लगता है कि
वाकई ही..
अब नहीं होती हैं तुम्हारी जैसी लड़कियाँ
जो थोड़ी सी बदमिजाज हो
या कोई खुलीं किताब की अल्फ़ाज़ हो।

नितेश वर्मा

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