Friday, 8 April 2016

सुबह अब कभी 11 बजे से पहले नहीं होती

सुबह अब कभी 11 बजे से पहले नहीं होती
ना ही सुबह जग जाने की कोई कशमकश
ना ही कुछ पा लेने की कोशिश होती है
और ना ही गमों में डूबे रहने की आदत है
इतना सब कुछ होते हुए, ये सब जानते हुए
दिल जाने क्यूं खुद से मुतमईन नहीं होता
हर वक़्त एक अजीब अनुभूति
जो बयां करने से परे होती हैं
मुश्किल होता है कभी-कभी खुदको समझाना
या हर दफा जब भी कोई बात थोपी जाती हैं
नुकसानदेह हो जाता है जीना
बोझ चंद साँसों की खुदको उठने नहीं देती
बिस्तर जिस्म को खुद में समेटकर सो जाता है
आँखों जगती हैं और साँसें भी चलती है मगर
सुबह अब कभी 11 बजे से पहले नहीं होती।

नितेश वर्मा

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