Monday, 26 May 2014

..जो गुनाहों के शहर..

..दर्द का दर्द समेटें चला हैं..
..वो मासूम हैं..
..जो गुनाहों के शहर..
..खुद को समेटें चला हैं..

..हर मंदिर-मस्ज़िद से हैं वो हो आया..
..सर पे लगा हैं इल्ज़ाम ऐसा..
..जो खुदा भी ना उसका हैं मिटा पाया..

..वो आहिस्तें-आहिस्तें ही करता हैं..
..ज़िक्र अपनी इरादों का..
..धडकनों में जो हैं बसा..
..वो ख्वाबों से उसे जोड आया हैं..

..हर आहटों पे वो तकता हैं रातें कई..
..पता ना किया हैं वो ज़ुर्म क्या..
..जो खुद से परेशां रहता हैं..

..दर्द का दर्द समेटें चला हैं..
..वो मासूम हैं..
..जो गुनाहों के शहर..
..खुद को समेटें चला हैं..!

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