Tuesday, 27 May 2014

ज़िन्दगी जीनें का सलीका सीखाती हैं।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं, सामाज में रहनें के साथ उसे सामाज़िक प्रतिक्रियाओं के प्रति जबाब भी देना पडता हैं। वो सामाज के रीति-रिवाजों को अपनें हिसाब से करना चाहता हैं, जो कि इस संसार के नियमों के विरूद्ध हैं। मनुष्य को अपनें अतीत से सीखनें की कोशिश करनी चाहिए ना कि अतीत में उलझ के वर्तमान और भविष्य को दूषित। इंसान के कार्य करनें के कई रास्तें हो सकतें हैं परंतु हमें सदैव अच्छें रास्तें का अनुसरण करना चाहिए। हां बेशक इसमें देर हो सकता हैं कई अडचनें आ सकती हैं परंतु इसमें परिणाम सदैव इंसा के हक में ही होती हैं। यदि समय रहतें हम अपनें बहकें कदमों को नहीं सँभालते हैं तो वो हमें हमारी अंत के करीब ले जाता हैं, जो वास्तव में बेहद ही दुखदायी होता हैं। यदि एक बार कोई इंसान यह शपथ ले ले की वो आमरण सच्चाई के राह पे चलेगा तो हो सकता हैं वो सामाज़िक मतभेदों में फ़ँस जाएं लेकिन वो वास्तव में मन के मतभेदों को दूर कर वहीं मिलनें के लिए तैयार हो जाऐगा जहा से वो आया हैं। या यों कहें सुबह का भूला शाम को अपनें घर जाऐगा। ज़िन्दगी जीनें का सलीका सीखाती हैं ना कि उलझनों की राह दिखाती हैं।

..गुज़र चुका जो पल फिर से ना आऐगा..
..ज़िन्दगी ने दिखा दिया जो रंग..
..फिर से दिखानें ना आऐगा..

..सँभाल सको तो सँभाल लो तुम कदम अपनें..
..हकीकत की राह पे तुम्हें..
..गुनाह समझानें फिर ये नाम ना आऐगा..!

..नितेश वर्मा..


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