मुझे झूठा बताकर कहीं को रहा
दिनों-रातों सुकूँ भी नहीं को रहा।
हमारे ही जिस्म पर.. कई दाग़ थे
मुकरना भी इसी से हमीं को रहा।
क़िताबों में हुआ था ज़िक्रे-आपका
जिसे कहना नहीं था यहीं को रहा।
मिले थे जो किसी मोड़ पर वो ज़ुबाँ
बहुत रोये मग़र शब वहीं को रहा।
सुकूने-क़ैद में थे मुसाफ़िर सभी
रिहाई भी मुश्किल उन्हीं को रहा।
ख़ुदा ही जानता है जख़्मे-हाल अब
शिकायत भी किया तो जमीं को रहा।
नितेश वर्मा
दिनों-रातों सुकूँ भी नहीं को रहा।
हमारे ही जिस्म पर.. कई दाग़ थे
मुकरना भी इसी से हमीं को रहा।
क़िताबों में हुआ था ज़िक्रे-आपका
जिसे कहना नहीं था यहीं को रहा।
मिले थे जो किसी मोड़ पर वो ज़ुबाँ
बहुत रोये मग़र शब वहीं को रहा।
सुकूने-क़ैद में थे मुसाफ़िर सभी
रिहाई भी मुश्किल उन्हीं को रहा।
ख़ुदा ही जानता है जख़्मे-हाल अब
शिकायत भी किया तो जमीं को रहा।
नितेश वर्मा
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