Tuesday, 18 October 2016

के फिर लौटकर आऊँ वो सहर नहीं हूँ मैं

के फिर लौटकर आऊँ वो सहर नहीं हूँ मैं
सब्ज़ आँखों से भी छूटूँ तो ज़हर नहीं हूँ मैं।

क्यूं हर बार मैं ही हार जाता हूँ इस ज़ंग में
इंसान हूँ, कोई ख़ुदा-ओ-रहबर नहीं हूँ मैं।

माना तुम्हारे सवालों का जवाब नहीं हुआ
कुछ कहूं भी ना इतना कमतर नहीं हूँ मैं।

हालांकि! ग़लतियाँ तमाम मेरी ही रही थी
फ़िर भी तुम फ़ेंक दो वो पत्थर नहीं हूँ मैं।

दूर बस्तियों में इक चिंगारी जलती है अब
जबसे माना है सबने के कहर नहीं हूँ मैं।

ज़माना फ़िर से गले लगाना आया था वर्मा
जो बाद यकीन हुआ के बद्तर नहीं हूँ मैं।

नितेश वर्मा

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