Wednesday, 12 October 2016

यूं ही एक ख़याल सा- सब मिला दिलनशीं, एक तू ही नहीं ..

आज भी जब कभी पीछे पलटकर देखता हूँ मुहब्बत इक प्यास में तड़पती दिखाई देती है, दिल को बहलाता हुआ एक आईना है कमरे में.. जिसके ज़र्रे-ज़र्रे में बस तुम बसी हुई हो। इस शहर के आलीशान से बंगलो के बीच एक वो बंगला भी है.. जो बादलों को तो बेशक छू लिया करता है लेकिन उन बादलों से कभी कोई दरख़्वास्त नहीं करता कि वो कभी मुझपर यकायक बरस पड़े। बाहर एक लॅान भी बनवाया है जहाँ शहर की कोई भूली-बिसरी आवाज़ नहीं आती और ना ही कोई निगाहें उठकर वहाँ आती हैं.. मैं घंटों चुपचाप वहाँ बिलखकर रो लेता हूँ।
और अब इस रोज़ की भागादौड़ की बात करे तो मुहब्बत ख़ुद अपना गला घोंटकर बैठ जाएं। सुब्ह से शाम तक कंस्ट्रक्शन के शोर में मरो और फ़िर रात को तुम्हारी यादों में रतजगा करो। हाल ये है कि इस ज़िंदगी के दरम्यान कइयों दर्द मिले.. कइयों राहतें.. कई बार उफ़्फ़! भी किया तो कई बार हाय! कहकर ख़ामोशी से सब सह गया।
अलमिया ये है कि जिस्म अब ऊबन बर्दाश्त नहीं करती और ख़याल ये है कि फ़िर से सब छोड़कर वापस लौट जाना कोई समझदारी नहीं है। इंसान जब ज्यादा बुद्धिजीवी हो जाए तो उसके साथ ही कई परेशानी शुरु हो जाती है। वो हर बात का विरोध करता है, उसे परखता है और फ़िर हारकर वही करता है जो उसे उसके दिमाग़ ने इज़ाजत दिया होता है।
अब देखो ना.. बातों-बातों में बताना भूल ही गया वो फ़िल्म तुम्हें याद होगी जान-ए-मन.. सौ दर्द हैं.. सौ राहतें.. जिसमें गाना था। तुम इस गाने को कैसे भूल सकती हो मेरी एक इयरफ़ोन छीनकर ये गाना सुना करती थी और हर बार इस वाली लाईन पर आकर-
सब मिला दिलनशीं, एक तू ही नहीं..
मुझसे ही छिपकर मुझे एक भर देख लिया करती थी। तुम्हारी चोरी हर बार पकड़ी जाती थी मग़र मुझमें वो हिम्मत बंधती ही नहीं थी कि मैं कभी कुछ कह सकूँ। पहले ये राग़ अलापता था-
शहर की सड़को पे, लावारिस उड़ता हुआ..
और आज तुम्हारी याद हर वक़्त बेसबब ये कहलवाती है -
सब मिला दिलनशीं, एक तू ही नहीं..
ये मुहब्बत भी बहुत बदमिज़ाज चीज़ है एक शर्त लेकर चलती है और जब रूठ जाती है तो सौ बहानों में सिमट जाती हैं। ख़ैर! अब जहाँ भी हो तुम अपने इयरफ़ोन से ये गाना सुनो इस बार और भी ज्यादा अच्छा लगेगा सुनकर.. दो धड़कते दिल जब एक ही गाना एक साथ जब दो अलग-अलग जगहों पर बैठकर सुन रहे होंगे। 😊

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

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