ये कौन यूं आकर इन ख़ामोशियों में लिपट जाता है
ये कौन-सा शक्ल है, जिसे दिल बारहां रट जाता है।
ख़ूँ-ख़राबों से भी मसाईल हल होते हैं क्या बेवकूफ़
ये क्या है तुझमें जो हर-बार यहाँ मर मिट जाता है।
रिहा करके सोया था उस परिंदों को मैं रात भर जो
सुबह फ़िर वो परिंदा आके मुझसे ही सट जाता है।
ज़िंदगी से परेशां होकर अब क्या ख़ुदकुशी करना
माना दु:ख है, दर्द है, लेकिन सब तो कट जाता है।
बचपन से बुढ़ापे तक के सफ़र में मैंने देखा है जो
सच मानिये तो सब कुछ आहिस्ता निपट जाता है।
जब भी उसके पत्थर के बदले पत्थर ढ़ूँढी थी वर्मा
एक है यही इंसानियत जो सामने आ डट जाता है।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
ये कौन-सा शक्ल है, जिसे दिल बारहां रट जाता है।
ख़ूँ-ख़राबों से भी मसाईल हल होते हैं क्या बेवकूफ़
ये क्या है तुझमें जो हर-बार यहाँ मर मिट जाता है।
रिहा करके सोया था उस परिंदों को मैं रात भर जो
सुबह फ़िर वो परिंदा आके मुझसे ही सट जाता है।
ज़िंदगी से परेशां होकर अब क्या ख़ुदकुशी करना
माना दु:ख है, दर्द है, लेकिन सब तो कट जाता है।
बचपन से बुढ़ापे तक के सफ़र में मैंने देखा है जो
सच मानिये तो सब कुछ आहिस्ता निपट जाता है।
जब भी उसके पत्थर के बदले पत्थर ढ़ूँढी थी वर्मा
एक है यही इंसानियत जो सामने आ डट जाता है।
नितेश वर्मा
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