Wednesday, 12 October 2016

यूं ठुकराया जाना किसे पसंद होता है

यूं ठुकराया जाना किसे पसंद होता है
ख़तों के सिलसिले के दरम्यान
चयनकर्ताओं से अपनी पहचान
बाज़ारों के बीच पुरानी सी दुकान
बची हुई झूठी सी अपनी शान
मंज़ूर नहीं होता है किसी को
यूं बेवज़ह का ठुकराया जाना
लेकिन फ़िर हवा उठती है इक
कोई लहर भी आता है अज़ीबोग़रीब
और फिर वक़्त बदलता है
इंसान भी बदलते हैं कई शक्ल लेकर
और रिवाज़ चल पड़ता है फ़िर से
बदले की, द्वेष की, स्वतंत्रता की
स्वाधीनता की और आंदोलनों की
फ़िर लाज़िम होता है ठुकराया जाना
प्रेमी मुहब्बत ठुकरा देता है
निज़ाम मुल्क को
अफ़सानानिगार साहित्य को
क़िताब-ए-हर्फ़ मानी को
बादल बारिश ठुकरा देते हैं
पेड़ पत्तों को
दोस्त सोहबत को
और धर्म कर्तव्य को
और फ़िर जारी रहता हैं यहाँ
अनादिकाल तक ठुकराया जाना
पर सोचिये ख़ुदको उदाहरण लेकर
यूं ठुकराया जाना किसे पसंद होता है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

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