तमाम इतिहास पन्नों में सिमटती है
क़िताब जब भी उठाईं बिलखती है।
मातम होता है हर रोज़ गुजरने पर
वो वक्त जभ्भी यकायक खुलती है।
क्या यही बात थी कि मैं नहीं हूँ मैं
मैं उलझता हूँ जो बातें सुलझती है।
हर दौर एक सवाली गुजरता रहा
पत्थर फिर बेहिसाब ही गिरती है।
इल्म भी तो वज़ूद में नहीं था वर्मा
हकदारी ही अब आँखें मलती है।
नितेश वर्मा
क़िताब जब भी उठाईं बिलखती है।
मातम होता है हर रोज़ गुजरने पर
वो वक्त जभ्भी यकायक खुलती है।
क्या यही बात थी कि मैं नहीं हूँ मैं
मैं उलझता हूँ जो बातें सुलझती है।
हर दौर एक सवाली गुजरता रहा
पत्थर फिर बेहिसाब ही गिरती है।
इल्म भी तो वज़ूद में नहीं था वर्मा
हकदारी ही अब आँखें मलती है।
नितेश वर्मा
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