Monday, 5 September 2016

यूं ही एक ख़याल सा..

उस समय तक मैं अच्छी शायरी करने लगा था.. और वो कुछ और जवाँ हो चली थी। समझ के साथ.. आये दिन हममें बहसबाज़ियाँ होने लगी थी। वो ना तो ख़ुद से ही मुतमईन थी और ना ही उसे अब इस मुहब्बत पर यकीन रहा था। शायद! कहीं दूर से कोई एक अंजान सा रिश्ता आकर हम दोनों के बीच बैठ गया था। वो मुझसे ख़फा-ख़फा सी रहने लगी थी।
इसका एक और कारण भी माना जा सकता है, कि मैं भी उससे कुछ दूरियां बनाने लगा था.. हालांकि जो पूरी तरह से सही नहीं हैं। जाने क्या रहा था हम दोनों के बीच जो हर वक़्त हमें एक शर्मिंदगी से बांधें परेशान रखता था। राब्ता अब बिलकुल ख़त्म होने ही वाला था कि अचानक.. फिर से मरी हुई मुहब्बत ने एक चाल चली, अचानक से उसे मुझपर एतबार हो गया और मुझे उसकी मुहब्बत पर एक तरफ़ा यकीन। मैं ख़ुद को उससे पल भर भी जुदा नहीं रखना चाहता था। एक डर उससे जुदा होने भर का.. मुझे ना तो सोने देती और ना ही जागने देती। मैं मरना नहीं चाहता था और ना ही वो मेरे बिना जीना चाहती थी। किसी रब की कोई मेहरबानी नहीं हुई और ना ही फ़रिश्तों की कोई साज़िश।
मुहब्बत में फ़िर हम दोनों मुकम्मल हो गए। बस बदलते वक़्त ने साथ नहीं दिया। इसलिए.. वो अब किसी और घर की छांव है और मैं किसी और शहर का आफ़ताब जो हर रोज़ उसके आँगन में भी चला जाता है.. उसके लाख़ रोने-धोने और मना करने के वावज़ूद। �

नितेश वर्मा
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