Monday, 5 September 2016

हमलोग इधर से पत्थर फ़ेंक रहे थे.. और वो लोग उधर से लाठियाँ बरसा रहे थे।

बारहवीं के दिनों की बात है.. जब स्कूल में लंठई करते हुए आये दिन सस्पेंड होना पड़ता था। एक बार इसी तरह एक लौंडे की जबरदस्त कुटाई कर दी और जब मास्साब डंडा लेकर पीछे दौड़ें.. तो स्कूल के पीछेवाली गली से रफूचक्कर हो गया। गले में लटका हुआ बस्ता.. ज़ालिम हुआ जा रहा था और घर लौट के अभी जा भी नहीं सकता था। बस्ते में रखा टिफिन खोला और बीच रोड पर चलते-चलते मुँह में ठूंसने लगा। हलक जब पराठों की गर्मी से उग़ता गया तो फिर स्कूल की ओर भागा। पानी अभी पी ही रहा था कि देखा- कुछ लौंडे मास्साब को लेकर चापाकल की तरफ़ दौड़ें हुये चले आ रहे हैं। माज़रा भांपकर प्यास को अधमरा छोड़ते हुए भागा.. इसी बीच कई बार औंधे मुँह गिरा लेकिन तबतक नहीं रूका जबतक ये यक़ीन नहीं हो गया कि अब ख़तरा टल गया है।
कुछ देर दौड़ने के बाद.. पीछे मुड़कर देखा तो दूर-दूर तक ना मास्टर की ख़बर थी और ना ही उनके चमचों की। आगे मुड़कर स्टाइल से चलना चाहा तो यकायक घुटने में दर्द हुआ। नज़र फिर जब नीचे झुकाकर देखा तो पैर कई जगहों से छिला पड़ा था.. ख़ून की छोटी-छोटी बूंदें उनपर पनप रही थी। हाथ नीचे करके उन्हें छूना चाहा तो हाथ भी जगह-जगह छिला पड़ा था। क्लास का चुराया हुआ चॅाक बस्ते से निकाला और छिले हुए जगहों पर मल दिया। जब यक़ीन हुआ कि चॅाक का कैल्सियम अब घावों को भर चुका है तो फ़िर बस्ता उठाकर आगे बढ़ गया।
आगे बढकर देखा.. कुछ लोग विद्रोह भरे नारे लगाएँ जा रहे हैं। धीरे-धीरे उनके पीछे लोगों की लाइन बढ़ती जा रही है। मैं भी हुज़ूम के पीछे हो गया। बीच-बीच में टॅाफ़ियाँ बांटीं जाने लगी। चकितमंद मन मुफ़्त की टॅाफ़ियाँ लेकर आगे कुछ और बेहतर पाने को बढ़ा। इसी बीच किसी ने कोई एक झंडा पकड़ा दिया। मैं भीड़ को चीरता.. झंडा हवा में लहराते आगे बढ़ा। आगे पहुँचकर देखा पुलिस कर्मियों की भीड़ उस जुलूस को रोके हुए हैं। कुछ जुलूसकर्मी पुलिस वालों से उल-जुलूल की बातें किये जा रहे थे और पुलिसवाले बात-बात पर उनसे चाय और बीड़ी मंगवा लेते।
धीरेधीरे जुलूस में स्वार्थ से घुसते लोग जुलूस को अनियंत्रित करने लगे। पुलिसवाले हैरान-परेशान होकर चाय पीये जा रहे थे। गर्म माहौल में इतनी शांति देखकर किसी ने एक पत्थर फ़ेंका.. फिर उसके पीछे यकायक सैकड़ों पत्थर आने लगे। पुलिस वाले इससे तंग होकर लाठियाँ बरसाने लगें। उधर से जितनी लाठियाँ बरसती उतनी इधर से हम मुँहतोड़ ज़वाब भेज देते। भीड़ पर कोई केस नहीं होता है सुनकर दो-चार पत्थर मास्टर और उन चुंगलख़ोरों लौंडे के नाम मैंने भी फ़ेंक दिया। बस ग़लती यहीं हो गई.. बहती गंगा में हाथ धोते हुए मुहल्ले के एक चचा ने देख लिया। जब शाम को घर लौटा तो माँ ने हर लंठई का भुगतान सूद-समेत करवा लिया।
रात में पापा ने घर आकर कहा कल उसे स्कूल मत भेजना.. आज पुलिस और एक जुलूस के बीच झपड़ होने के कारण शर्माजी के बेटे को बहुत चोट आयी है। पूरा परिवार उनका हास्पिटल में परेशान है अभी मिलकर ही आ रहा हूँ। जाने क्या हो गया है लोगों को.. किसी का भी कोई ख़याल नहीं। पापा की बातों को सुनकर मैं रात-भर परेशान रहा कि आख़िर किसी और को कैसे चोट लग गयी। जब-
हमलोग इधर से पत्थर फ़ेंक रहे थे.. और वो लोग उधर से लाठियाँ बरसा रहे थे।
झूठ है.. सब झूठ है। मेरी तरह वो भी स्कूल से निकाला गया होगा वर्ना ऐसे कैसे कुछ हो सकता है। हैं नहीं तो क्या? बड़ा आया हुम्म्म्म। और फ़िर बड़े इत्मीनान से अगली दिन के छुट्टी का प्लान करने बैठ गया।

नितेश वर्मा
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