Monday, 5 September 2016

के कल रात फ़िर क़त्ल हुआ था मेरा

के कल रात फ़िर क़त्ल हुआ था मेरा
ख़ंज़र मेरे खून से रंगा हुआ था पूरा
मैं लहूलुहान होकर ज़मीन से लिपटा
ढूंढ रहा था कोई आसरा
जैसे ढूंढता हो मुसाफ़िर रात कोई
जैसे ख़्यालों में प्रेमी मुलाक़ात कोई
जैसे झुलसती गर्मी में हो बरसात कोई
जैसे दिल में उठता है ज़ज्बात कोई
जैसे ज़िन्दगी से छूटती हो लम्हात कोई
जैसे ख़ुदसे बयां न हो पाये हालात कोई
जैसे अंधेरे में चीख़ती लड़की जात कोई
जैसे जीत में जम्हातीं हो मात कोई
मैं ख़ुदको घसीटते लाया था किनारे
जहाँ यादों ने छोड़ दिया था होश मेरा
मैं सुकून की बाहों में धड़क रहा था
जो लोग फिर फ़ेंक रहे थे मुझपे पत्थर
ये ज़िस्म उस दर्द को झेलकर
शुक्रिया अदा करते रिहा हो रहा था मेरा
के कल रात फ़िर क़त्ल हुआ था मेरा
ख़ंज़र मेरे खून से रंगा हुआ था पूरा।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

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