आसानी से जब भी चराग़ों ने जलना चाहा
हवाओं ने उसे साज़िशों में लिपटना चाहा।
कई घर जले यहाँ, कइयों तो राख़ हो गये
क़ीमत देके लोगों ने फिर खरीदना चाहा।
नाजाने क्या बसता रहा था उसके सीने में
रंगों से उसने, तस्वीरों को बदलना चाहा।
जब बहुत दूर निकल आया था वो ख़ुदसे
फिर पलट के वो आख़िर संभलना चाहा।
मुतमईन तो वो अपनी साँसों से भी ना है
बेकरार है बस मौसमों में पिघलना चाहा।
एक सियासत उसे ख़ुदमें खींचती है वर्मा
इक शिकायत में चाँद ने यूं ढ़लना चाहा।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
हवाओं ने उसे साज़िशों में लिपटना चाहा।
कई घर जले यहाँ, कइयों तो राख़ हो गये
क़ीमत देके लोगों ने फिर खरीदना चाहा।
नाजाने क्या बसता रहा था उसके सीने में
रंगों से उसने, तस्वीरों को बदलना चाहा।
जब बहुत दूर निकल आया था वो ख़ुदसे
फिर पलट के वो आख़िर संभलना चाहा।
मुतमईन तो वो अपनी साँसों से भी ना है
बेकरार है बस मौसमों में पिघलना चाहा।
एक सियासत उसे ख़ुदमें खींचती है वर्मा
इक शिकायत में चाँद ने यूं ढ़लना चाहा।
नितेश वर्मा
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