जब उसके ख़याल सिर्फ़ उसके नहीं होते है
वो पहनी हुई होती है कई मोतियों की माला
कई रेशमी दुपट्टे संग उसके उड़ती हैं
हवाओं में फ़र्र-फ़र्र.. फ़र्र-फ़र्र.. करते हुए
कड़कड़ाती धूप में छिछलते हुए पानी पर
जब वो यकायक महसूस करती है चुभन
कंकड़ों और तलवों के मध्य नज़ाकत की
एक ठंडी गुदगुदी शीतलता की भरी हुई
छिपी मुस्कुराहट फैल जाती है चेहरे पर
फ़िर निकालकर अपनी डायरी बैठ जाती है
ऐड़ियों तक पांव तृप्त ठंडे पानी में डुबोकर
और बेसुध लिखती जाती है कोई कविता
किसी मनगढ़ंत कहानी को दरम्यान रखकर
वो कहानी जो वो देखती है सामाजिकता में
अपने घर के दहलीज़ को लांघने से पहले
जब उसकी नज़र झुक जाती है प्रतिउत्तर में
वो पटककर पांव जब चीख़ती है झुंझलाकर
जब उसके उड़ने पर आँख दिखाई जाती है
उसकी उठती हुई आवाज़ दबाई जाती है
उसके ही स्त्रीत्व निर्बलता का वास्ता देकर
वो फ़िर लिखना छोड़कर देखती है बादलों में
अपनी उंगलियों को उलझाती है जुल्फों में
और फ़िर एक ख़्वाहिश भरकर उठती है
और..
निकल जाती है फ़िर ख़ुदके तलाश में कहीं
मतवाली होकर,पंख खोलकर,आसमां ओढ़कर।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
वो पहनी हुई होती है कई मोतियों की माला
कई रेशमी दुपट्टे संग उसके उड़ती हैं
हवाओं में फ़र्र-फ़र्र.. फ़र्र-फ़र्र.. करते हुए
कड़कड़ाती धूप में छिछलते हुए पानी पर
जब वो यकायक महसूस करती है चुभन
कंकड़ों और तलवों के मध्य नज़ाकत की
एक ठंडी गुदगुदी शीतलता की भरी हुई
छिपी मुस्कुराहट फैल जाती है चेहरे पर
फ़िर निकालकर अपनी डायरी बैठ जाती है
ऐड़ियों तक पांव तृप्त ठंडे पानी में डुबोकर
और बेसुध लिखती जाती है कोई कविता
किसी मनगढ़ंत कहानी को दरम्यान रखकर
वो कहानी जो वो देखती है सामाजिकता में
अपने घर के दहलीज़ को लांघने से पहले
जब उसकी नज़र झुक जाती है प्रतिउत्तर में
वो पटककर पांव जब चीख़ती है झुंझलाकर
जब उसके उड़ने पर आँख दिखाई जाती है
उसकी उठती हुई आवाज़ दबाई जाती है
उसके ही स्त्रीत्व निर्बलता का वास्ता देकर
वो फ़िर लिखना छोड़कर देखती है बादलों में
अपनी उंगलियों को उलझाती है जुल्फों में
और फ़िर एक ख़्वाहिश भरकर उठती है
और..
निकल जाती है फ़िर ख़ुदके तलाश में कहीं
मतवाली होकर,पंख खोलकर,आसमां ओढ़कर।
नितेश वर्मा
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