Monday, 5 September 2016

करवटों में जब ढ़ल रहे थे दिन और रात

करवटों में जब ढ़ल रहे थे दिन और रात
सिसकियाँ जब क़मरे में खा रही थी मात
तुम लौटे थे.. तब जाकर मेरी ज़िन्दगी में
जब कहीं दफ़्न हो गये थे.. सारे ख़्यालात

नब्ज़ जब छोड़ चुके थे धड़कनों से साथ
किसी और को जो मान बैठे थे हम नाथ
तुम लौटे थे.. तब रास्ते सजाके ख़्वाबों में
ज़िन्दगी फिर, फ़ीकी लगी देखके यथार्थ

दिन जब धुंधली चादर लपेटकर सोई थी
रात बारिशों में जाके जब कहीं खोई थी
तुम लौटे थे.. तब रिमझिम फुहार बनके
फिर तुम्हें उनमें देखकर कितना रोई थी

वक़्त बदला तो मैं भी कुछ बदलने लगी
आहिस्ता ही सही पर फिर संभलने लगी
तुम लौटे थे.. तब संवेदनाएँ बनकर कई
तुमको सलामत देख.. मैं भी चलने लगी।

नितेश वर्मा और तुम लौटे थे.. तब।
#Niteshvermapoetry

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