Monday, 5 September 2016

क़िस्सा मुख़्तसर : दाग़ देहलवी

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था



दाग़ देलहवी उर्दू अदब के एक बहुत ही बेहतरीन शायर हुआ करते है। दाग़ बचपन से ही ज़ख़्मों में पलते आये थे, बचपन में ही उनके वालिद की शीघ्र मृत्यु हो गई फ़िर माँ ने बहादुर शाह जफ़र के बेटे मिर्ज़ा फ़खरू से दूसरा निक़ाह कर लिया। उसी तरह कुछ समय के बाद उनके माँ का भी इंतक़ाल हो गया। एक के बाद एक.. परेशानी से दाग़ घिरे रहें। शायद, यही बाइस रहा कि उन्होंने अपना तख़्ललुस दाग़ रख लिया था। अग़र ज़ख़्म मिट भी जाएं तो दाग़ रह जाते हैं और वो हमें दाग़ की शायरी में बख़ूबी देखने को मिल जाती है। दाग़ साहब से जुड़ा एक बड़ा ही दिलचस्प क़िस्सा याद आ रहा है-
दाग़ अपनी अम्मी के इंतक़ाल के बाद रामपुर अपने मौसी के यहाँ चले गए.. और वहाँ उन्हें नर्तकी मुन्नीबाई से बेइंतहाई मुहब्बत हो गई। नर्तकी मुन्नीबाई लखनऊ के नवाब हैदर अली को बेहद अज़ीज थी तो दाग़ ने उन्हें एक शे'र लिखकर अपनी मुहब्बत का इज़हार कराया-
"दाग़ हिजाब के तीरे नजर का घायल है / आपके दिल को बहलाने को और भी सामां होंगे / दाग़ बिचारा हिजाब को न पाए तो और कहां जाए।"
नवाब साहब शायरी बख़ूबी समझते थे और शायरों का सम्मान भी ख़ूब किया करते थे, उन्होंने दाग़ के पैगाम का जवाब भिजवाया और कहा- दाग़ साहब! आपके शे'र से ज्यादा हमें मुन्नीबाई अज़ीज नहीं है, मुन्नीबाई आपको मुबारक़ हो।
लेकिन नवाब साहब के रज़ामंदी के बाद भी मुन्नीबाई नहीं मानी और दाग़ को तंगहाली में छोड़कर एक जवान से शादी कर ली। दाग़ मुन्नीबाई के इस बेवफ़ाई से काफ़ी बेज़ार रहने लगे। लेकिन उनका मज़ाकिया स्वभाव उस वक़्त भी उनसे छिप नहीं पाया था। मुन्नीबाई के निक़ाह के बाद उन्होंने एक ग़ज़ल लिख कर उन्हें भेजते हुए कहा-
"पति है तो क्या हुआ ग़ज़ल तो भेज ही सकता हूँ।"
ऐसे ख़ुशमिज़ाज शायर थे दाग़ साहब.. जो ज़िन्दगी के हर सफ़े पर इतनी आसानी और खूबसूरती से बयानबाजी करते थे।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

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