मैं अकसर ही ख़ुदको समेट लेता हूँ
जब कोई आक्रोशित सी आवाज़
गुजरती है मेरे घर के दहलीज़ से
मैं उनपर थूकता भी नहीं
जो आग लगाकर निकल जाते हैं
मेरे मुहल्ले के तमाम घरों-दीवारों पर
मैं अपने उस अँधेरे से कमरे में
चीख़ता हूँ जो ख़ामोशी से भरकर
एक कौतूहल देखता हूँ मैं उनकी आँखों में
लपटों को हाथों में धू-धू जलता देखकर
जिन्हें याद आ जाता है दो पल को
अपना बसा-बसाया दूर का मुहल्ला कहीं।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
जब कोई आक्रोशित सी आवाज़
गुजरती है मेरे घर के दहलीज़ से
मैं उनपर थूकता भी नहीं
जो आग लगाकर निकल जाते हैं
मेरे मुहल्ले के तमाम घरों-दीवारों पर
मैं अपने उस अँधेरे से कमरे में
चीख़ता हूँ जो ख़ामोशी से भरकर
एक कौतूहल देखता हूँ मैं उनकी आँखों में
लपटों को हाथों में धू-धू जलता देखकर
जिन्हें याद आ जाता है दो पल को
अपना बसा-बसाया दूर का मुहल्ला कहीं।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
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