Monday, 5 September 2016

हम जवां आशिकों के मुहल्लों में

हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती
हमारे पास के किराने की दुकान
चौक पर बीड़ी-पान वाले से पहचान
शाम के लल्लन चचा के समोसे
सर्द बारिश में चाय की चुस्कियाँ
सबकुछ ये बेवज़ह के नहीं होते
कोई लड़की गुजरतीं है जो कभी
हमारे नज़रो से है वाहवाही होती
हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती

लड़कियाँ यूं मुहब्बत का इज़हार
ख़तों के सिलसिले का त्यौहार
नज़र नीचे करके चलने का विचार
लल्लन-छाप लड़को से अंधा प्यार
शायद ही कभी ये सब करती है
उन्हें पता हैं के वो है सही होती
हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती
गुलाबों की दिलचस्पी भी होती है
क़िताबों में उलझी वो भी होती है
ज़ुबाँ पर उनके भी नाम आता है
पर ख़ामोशी भी तो उनमें होती है
उन्हें सुनाया जाता है, रटाया जाता है
वक़्त आने पे घोल पिलाया भी जाता है
सब ग़लत जानकर भी है वो दबी होती
हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती

आवारा लड़को पर चीख़ना भी आता है
झुंझलाहट में सर पटकना भी आता है
हक़ के लिए भी अक़्सर लड़ जाती है
फूल सा होकर उन्हें महकना भी आता है
उन्हें ख़ीच भी आती है इस दकियानूसी से
उन्हें मुहब्बत भी आती है ख़ुशनसीबी से
फिर जाने उनमें कैसी ये है नमीं होती
हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती

फिर ये सब देखते-समझते हुए
आख़िर क्या हो जाता है हमको
क्यूं हम लांछन फ़ेंकते है उनपर
क्या वो अगला मुहल्ला मेरा नहीं
क्या वहाँ की लड़कियाँ अच्छी नहीं
हमें शायद अब ये मान लेना होगा
के उनको भी हैं हक़ हर शौक जीने को
कुछ ज़ुबानी क्यूं है अनकही होती
हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

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