Monday, 5 September 2016

दोपहर की छिपती-छिपाती हुई

दोपहर की छिपती-छिपाती हुई
सूरज की मचलती किरणें
ड़ोलते हुए कुछ काग़ज से पत्ते
बादलों में से गुजरता हेलिकॉप्टर
आसमानों से लिपटते परिंदे
गली में चीख़ता हुआ फ़ेरीवाला
मेरे दीवार पर तामीर होती हुई
तुम्हारे साये की खिड़की
फिर हल्की बारिशों के फ़ुहारे
फ़िर तुम्हारा एकदम से
अचानक खिड़की पर आ जाना
ख़लता है आज भी
जो उस वक़्त
दरम्यान हमारे बातें नहीं थी
और फिर तुम
दरीचे से ख़ुदको छिपाकर जो
छोड़ देती थी हल्का खुला उसे
बौछारें मेरी मुहब्बतों के
फिर तमाम रात बरसती रहती
तुम्हारे खुशबू में लिपटकर
मेरे आंगन के कोने-कोने तक।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

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