इस बंज़ारे-दायरे में नजाने कौन आता रहा
कभी तन्हा, तो कभी बज़्म में उग़ताता रहा।
उसके ज़िस्म को कुरेदते रहें सारी रात हम
सुब्ह फिर खाली हाथ परिंदा पछताता रहा।
ज़ेहनियत बिगड़ चुकी थी दिमाग़ पागल था
इल्मे-याफ़्ता था, एक हद तक शर्माता रहा।
सोचा था सबकुछ वक़्त के मुताबिक़ होगा
फिर हर घड़ी, नजाने क्यूं जी घबराता रहा।
इक घाव ज़िस्म से उतरकर, दिल में फैला
कभी रोया तो कभी थाम के सहलाता रहा।
सुकून क़ैद है कहीं मेरे ही सीने में छिपके
इक डर में मैं ही था, जिसे मैं फैलाता रहा।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
कभी तन्हा, तो कभी बज़्म में उग़ताता रहा।
उसके ज़िस्म को कुरेदते रहें सारी रात हम
सुब्ह फिर खाली हाथ परिंदा पछताता रहा।
ज़ेहनियत बिगड़ चुकी थी दिमाग़ पागल था
इल्मे-याफ़्ता था, एक हद तक शर्माता रहा।
सोचा था सबकुछ वक़्त के मुताबिक़ होगा
फिर हर घड़ी, नजाने क्यूं जी घबराता रहा।
इक घाव ज़िस्म से उतरकर, दिल में फैला
कभी रोया तो कभी थाम के सहलाता रहा।
सुकून क़ैद है कहीं मेरे ही सीने में छिपके
इक डर में मैं ही था, जिसे मैं फैलाता रहा।
नितेश वर्मा
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