उस खुले से आँगन में चूल्हे फूँकते हुए
जब वो अपनी उड़ती आँचल को
आँधियों के भरकस कोशिशों से
बचाकर सर से लपेटकर बांध लेती है
और फिर एक फूँक भरकर गले से
चूल्हे में जो फूँक देती है
एक जान उसकी कुंठाओ की निकलती है
मानो बरसों से रूठी काली बादलों को
एक वज़ह मिल जाती हैं जैसे बरसने को
जो फिर घंटों बरसती हैं उसकी आँखों से
और उसके इस बेख़्याली के बाद भी
किसी शाम कोई शिकायत नहीं होती है
.. कि आज तेरे खाने में नमक कम है।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
जब वो अपनी उड़ती आँचल को
आँधियों के भरकस कोशिशों से
बचाकर सर से लपेटकर बांध लेती है
और फिर एक फूँक भरकर गले से
चूल्हे में जो फूँक देती है
एक जान उसकी कुंठाओ की निकलती है
मानो बरसों से रूठी काली बादलों को
एक वज़ह मिल जाती हैं जैसे बरसने को
जो फिर घंटों बरसती हैं उसकी आँखों से
और उसके इस बेख़्याली के बाद भी
किसी शाम कोई शिकायत नहीं होती है
.. कि आज तेरे खाने में नमक कम है।
नितेश वर्मा
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