Tuesday, 18 October 2016

कानों में ज़हर घुलता है आधा सुनने के बाद

कानों में ज़हर घुलता है आधा सुनने के बाद
एक शख़्स पागल है कबसे बिखरने के बाद।

वही हाल है जो बयां करने से घबराता हूँ मैं
हर बार ख़्याल के पास आ मुकरने के बाद।

जिस्म-ओ-ज़हन से थका हुआ मुसाफ़िर मैं
इंकलाब लेता हूँ घुट-घुटकर मरने के बाद।

जब बुझाया था मैंने चिराग़ कोई हवा न थी
फ़िरसे जला बैठा हूँ ख़ुदके गुजरने के बाद।

कोई काम नहीं आता है इस दुनिया में वर्मा
समझ आता है सब हालात सुधरने के बाद।

नितेश वर्मा

के फिर लौटकर आऊँ वो सहर नहीं हूँ मैं

के फिर लौटकर आऊँ वो सहर नहीं हूँ मैं
सब्ज़ आँखों से भी छूटूँ तो ज़हर नहीं हूँ मैं।

क्यूं हर बार मैं ही हार जाता हूँ इस ज़ंग में
इंसान हूँ, कोई ख़ुदा-ओ-रहबर नहीं हूँ मैं।

माना तुम्हारे सवालों का जवाब नहीं हुआ
कुछ कहूं भी ना इतना कमतर नहीं हूँ मैं।

हालांकि! ग़लतियाँ तमाम मेरी ही रही थी
फ़िर भी तुम फ़ेंक दो वो पत्थर नहीं हूँ मैं।

दूर बस्तियों में इक चिंगारी जलती है अब
जबसे माना है सबने के कहर नहीं हूँ मैं।

ज़माना फ़िर से गले लगाना आया था वर्मा
जो बाद यकीन हुआ के बद्तर नहीं हूँ मैं।

नितेश वर्मा

क्या मांगता है रब से कोई ये वो शख़्स ही जाने

क्या मांगता है रब से कोई ये वो शख़्स ही जाने
जिसने मुहब्बत करके कई रात तन्हा गुजारी है

नितेश वर्मा

तमाम इतिहास पन्नों में सिमटती है

तमाम इतिहास पन्नों में सिमटती है
क़िताब जब भी उठाईं बिलखती है।

मातम होता है हर रोज़ गुजरने पर
वो वक्त जभ्भी यकायक खुलती है।

क्या यही बात थी कि मैं नहीं हूँ मैं
मैं उलझता हूँ जो बातें सुलझती है।

हर दौर एक सवाली गुजरता रहा
पत्थर फिर बेहिसाब ही गिरती है।

इल्म भी तो वज़ूद में नहीं था वर्मा
हकदारी ही अब आँखें मलती है।

नितेश वर्मा

मैं हूँ कहाँ, मुझे ये ख़बर नहीं

मैं हूँ कहाँ, मुझे ये ख़बर नहीं
कोई दवा भी मुझे असर नहीं।

मैं स्याह रात हूँ वो काली घटा
ये बारिश है कोई कहर नहीं।

जबतक गुमान है मरना होगा
क़त्ल होगा भी तो मगर नहीं।

वो शाम प्याला होंठों पर लेके
कहेगी पीलो ये है ज़हर नहीं।

शायद मैं ही ग़लत होऊँ वर्मा
ये बदला हुआ मेरा शह्र नहीं।

नितेश वर्मा

के अब औ' इंतज़ार करने में दिल बैठता है

के अब औ' इंतज़ार करने में दिल बैठता है
कोई खोया हुआ शख़्स जब मिल बैठता है।

कई धूप कई बारिश, कइयों तूफ़ाँ से गुजरे
ये हाल आज अज़ीब है जुबाँ हिल बैठता है।

मातम जैसे सारे कमरे में मूसल्लत हुई हो
वो किरदार जब क़िस्से से निकल बैठता है।

बहुत ग़लत होता रहा था साथ मेरे ही वर्मा
बयानबाज़ी भी अक्सर जो बदल बैठता है।

नितेश वर्मा

Wednesday, 12 October 2016

बारिश की बूंदों का उतरना

बारिश की बूंदों का उतरना
चेहरों के आसमान पर
दिल की हर ख़्वाहिशों में
हैं कई सवालें ज़ुबान पर
मरना भी ना था हमें इश्क़ में
तड़पना ना था इश्क़ में
इस तरह उसका नशा था
जैसे मैं था किसी गुमान पर।

वो पाग़ल नहीं समझती है
तड़प दर्द भरे नग़्मात का
वो मुझसे ही लड़ती है
गुस्सा करके ज़ज्बात का
इस तरह नहीं होना था
इश्क़ में किसी हक़दार का
मुझपे इक धुन सी सवार थी
मुहब्बत भरे लम्हात का।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

बुरे लोगों के बीच है, दो हसीन जान

बुरे लोगों के बीच है, दो हसीन जान
मुहब्बत की आग में वो हसीन जान।

हर ग़म को सहते हैं लिखा मानकर
हर सुब्ह से अंज़ान लो हसीन जान।

कुछ ख़्याल दिल में दफ़्न हो गये हैं
कुछ ज़िन्दा है तो उड़ो हसीन जान।

ऐसे ना पाग़ल हो जाओ तुम भी रब
कुछ तुम्हीं ठीक करो हसीन जान।

सुनने में ना आया, जो चुप था वर्मा
ये नसीब है, यहीं मरो हसीन जान।

नितेश वर्मा

यूं ही एक ख़याल सा- सौदा-ए-समझदारी

और बता लड़का पसंद आया?
किसे..? कौन सा लड़का..? पाग़ल हो गई है क्या..?
अब ज्यादा मत बन, तेरी ही बात कर रही हूँ। सुना है मैंने.. सुबह तुझे देखने के लिए कुछ लोग आए थे।
उम्म्म्म्म...
क्या पसंद आयेगा और वैसे भी मैं नहीं गई थी पसंद करने.. वो आया था मुझे देखने-छांटने।
अच्छा। फिर?
बोला उन लोगों ने लड़की पसंद है।
वाह! चल सबको बताती हूँ और ये बता पार्टी के लिए सबको कब बुलाऊँ?
मत बुला यार! और जो इतना चहक रही है ना बस एक बार लड़के को देख लोगी तो मातम मनाती फिरोगी।
अच्छा, ऐसा क्या है उसमें?
अबे यार! एक तो इतना मोटा है कि कोई बहस ही ना की जा सके.. ऊपर से इतना काला है कि लगता है किसी ने पूरे शरीर पर कालिख़ पुत दी हो.. उसे देखकर बड़ा जी घबराता है यार!
तो मना क्यूं नहीं कर दिया तुमने?
अब मैं कैसे मना करूँ, उसे पापा ने पसंद किया है मेरे लिए। सुनने में आया है काफ़ी दौलतमंद है। अब किसी ना किसी से तो शादी करनी ही है ना तो इससे ही कर लेती हूँ, घरवाले भी ख़ुश हो जायेंगे और ये ज़िन्दगी से पैसों की किल्लत भी हट जायेगी।
हुम्म्म! मतलब तू शादी नहीं सौदा कर रही है। ठीक ही किया जो किसी को नहीं बताया तुमने और वैसे भी तुम्हारे इस सौदे में आकर हमलोग क्या करेंगे। मेरी तरफ़ से बेफ़िक्र रह मैं ना तो किसी को कुछ बताऊंगी और ना ही इस सौदे में कोई गवाह बनने आऊंगी। चल बाय! रखती हूँ।
अरे सुन तो... स..।
और सुन.. रखा नहीं है अब तक.. जो तू इतनी समझदार बनकर सबको अपना चेहरा दिखा रही है ना.. ये लोग जो शादी से पहले कहते है ना कि बेटी पराई धन होती है वो बाद में ये साबित भी करके दिखा देते है। जब कभी लड़के या उसके परिवार वालों से अनबन हुई ना तो यही लोग तुझे कोसेंगे.. समझी.. और ताना देंगे कि तेरी ही मर्जी से हुई थी शादी। और अपना पल्ला झाड़ते चलेंगे.. बड़ी आई बाप की लाड़ली।
चल अब रख दे, मूड ठीक होगा तो फिर बात होगी। 😊

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

हमें गुमाँ होता है ख़ुद के होने पर

हमें गुमाँ होता है ख़ुद के होने पर
हम ख़ुद पागल है इस बेहूदगी पर
हर रोज़ वही मसलेहत माज़ी की
हैं फ़िर बेज़ुबाँ इस जद्दोजहद पर
के आके थाम लेती हैं बाहें उसकी
बदहाली जो होती है यूं बेवक्त पर
आसमां जब भी खाली लगता है ये
घटा कहीं और होती है तड़प पर
अब ना होना या होना मतलब नहीं
बेमतलब की सब बातें हैं ख़ुद पर।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

जब बारिश नहीं होती है किसी मौसम में

जब बारिश नहीं होती है किसी मौसम में
और सूरज बादलों के बीच छिपा होता है
पेड़ों से पत्ते जब अलग होते रहते हैं
धूल हवाओं में जब लहरें पैदा करती हैं
सकुचाया मन जब विचलित हो उठता है
युद्ध का बिगुल जब बजाया जाता है
मासूम से गाँव के कुछ लोग हारे मन से
हल लेकर खेतों की ओर भागने लगते है
और जब फसल लेकर घर लौटते हैं
तबतक उनका घर ढ़ेर हो चुका होता है
वो उन राखों के बीच तलाशते रहते है
बदले की भावना जो शांत पड़ गई होती है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

यूं ही एक ख़याल सा- सब मिला दिलनशीं, एक तू ही नहीं ..

आज भी जब कभी पीछे पलटकर देखता हूँ मुहब्बत इक प्यास में तड़पती दिखाई देती है, दिल को बहलाता हुआ एक आईना है कमरे में.. जिसके ज़र्रे-ज़र्रे में बस तुम बसी हुई हो। इस शहर के आलीशान से बंगलो के बीच एक वो बंगला भी है.. जो बादलों को तो बेशक छू लिया करता है लेकिन उन बादलों से कभी कोई दरख़्वास्त नहीं करता कि वो कभी मुझपर यकायक बरस पड़े। बाहर एक लॅान भी बनवाया है जहाँ शहर की कोई भूली-बिसरी आवाज़ नहीं आती और ना ही कोई निगाहें उठकर वहाँ आती हैं.. मैं घंटों चुपचाप वहाँ बिलखकर रो लेता हूँ।
और अब इस रोज़ की भागादौड़ की बात करे तो मुहब्बत ख़ुद अपना गला घोंटकर बैठ जाएं। सुब्ह से शाम तक कंस्ट्रक्शन के शोर में मरो और फ़िर रात को तुम्हारी यादों में रतजगा करो। हाल ये है कि इस ज़िंदगी के दरम्यान कइयों दर्द मिले.. कइयों राहतें.. कई बार उफ़्फ़! भी किया तो कई बार हाय! कहकर ख़ामोशी से सब सह गया।
अलमिया ये है कि जिस्म अब ऊबन बर्दाश्त नहीं करती और ख़याल ये है कि फ़िर से सब छोड़कर वापस लौट जाना कोई समझदारी नहीं है। इंसान जब ज्यादा बुद्धिजीवी हो जाए तो उसके साथ ही कई परेशानी शुरु हो जाती है। वो हर बात का विरोध करता है, उसे परखता है और फ़िर हारकर वही करता है जो उसे उसके दिमाग़ ने इज़ाजत दिया होता है।
अब देखो ना.. बातों-बातों में बताना भूल ही गया वो फ़िल्म तुम्हें याद होगी जान-ए-मन.. सौ दर्द हैं.. सौ राहतें.. जिसमें गाना था। तुम इस गाने को कैसे भूल सकती हो मेरी एक इयरफ़ोन छीनकर ये गाना सुना करती थी और हर बार इस वाली लाईन पर आकर-
सब मिला दिलनशीं, एक तू ही नहीं..
मुझसे ही छिपकर मुझे एक भर देख लिया करती थी। तुम्हारी चोरी हर बार पकड़ी जाती थी मग़र मुझमें वो हिम्मत बंधती ही नहीं थी कि मैं कभी कुछ कह सकूँ। पहले ये राग़ अलापता था-
शहर की सड़को पे, लावारिस उड़ता हुआ..
और आज तुम्हारी याद हर वक़्त बेसबब ये कहलवाती है -
सब मिला दिलनशीं, एक तू ही नहीं..
ये मुहब्बत भी बहुत बदमिज़ाज चीज़ है एक शर्त लेकर चलती है और जब रूठ जाती है तो सौ बहानों में सिमट जाती हैं। ख़ैर! अब जहाँ भी हो तुम अपने इयरफ़ोन से ये गाना सुनो इस बार और भी ज्यादा अच्छा लगेगा सुनकर.. दो धड़कते दिल जब एक ही गाना एक साथ जब दो अलग-अलग जगहों पर बैठकर सुन रहे होंगे। 😊

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

सुबह एक रोशनी आती है कमरे में

सुबह एक रोशनी आती है कमरे में
पुकार कर हर जिंदा ख़्वाहिशों को
पलती रहती है नाज़ुकियों के बीच
कश्मकश तुम्हारे होने ना होने की
दस्तक देती हैं तुम्हारी लिखीं ख़तें
हर रोज़ दरवाज़े के नीचे से मुझमें
मेरी ऊंघ में हरकत होती है अज़ीब
चिट्ठियाँ जो पढ़ने बैठ जाता हूँ मैं
मैं हर सलाम में तुम्हें देखता हूँ बस
और तुम गुनगुना जाती हो कमरे में।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

जलती चिंगारी में एक लौ जला डालो

जलती चिंगारी में एक लौ जला डालो
हमें हमारे जिस्म से अब मिला डालो।

कबसे एकसुरी ज़िद पे बैठे हुए हैं वो
उन्हें भी उनके हक का दिला डालो।

याद तो हमें बरसों रही उनकी इश्क़
अब इसपर तुम भी कुछ सुना डालो।

लेने लगी हैं ये करवटें सिसकियाँ भी
मरहमी लबों जामे अब पिला डालो।

सोया हुआ था बेख़ौफ शहर में वर्मा
कोई पत्थर फेंको, मुझे हिला डालो।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

WAR versus Humanity!

War is the not solution anymore and war is not what we want. Actually we wants peace but sometimes we stood up against humanity and talking like a rubbish. I know, on this statement someone/everyone arises question to my patriotism.. but it's okay!
I can't support humane killing in anyways. I feel for my country and their soldiers. I think, we should to support humanity and stopped humane killings.
We should to fighting against terrorism not for morality and humanity. Humanity doesn't mean to protect yourself/ourselves. Please pay attention and support in making India not to destroying anyone.

PS - WAR versus Humanity!

हमीं को सब नज़्रे दिखाएँ हुए है

हमीं को सब नज़्रे दिखाएँ हुए है
हमीं है जो बारहां मिटाएँ हुए है।

हमीं करते थे इश्क़े-कारोबार'
हमीं है जो नज़रे छिपाएँ हुए है।

हमीं घायल होते रहे पत्थरों से
हमीं है जो दीवार बनाएँ हुए है।

हमीं रोकते थे ख़ुदको बारहां
हमीं है जो दिल लगाएँ हुए है।

हमीं ने रिश्ता तोड़ा था उनसे
हमीं है जो सीने दबाएँ हुए है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

इस बात पर क्या कहे हम आख़िर

इस बात पर क्या कहे हम आख़िर
लब परेशान, आँखें है नम आख़िर।

हम अपने हवाले से क्या बोले अब
जो सुनोगे, कहोगे है कम आख़िर।

पत्ता-पत्ता टूटकर बिखर गया तेरा
तू दरख़्त था यही है वहम आख़िर।

अब तक प्यास से गला सूखता था
ऐ! बारिश अब तो तू थम आख़िर।

हमीं घायल क्यूं हैं, उनके तीरों से
बंद करो इंसानों ये रहम आख़िर।

मिटता है जब ख़ुद का वुज़ूद वर्मा
ख़ुदका होना भी है अहम आख़िर।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

जब तमाम उम्मीदें बैठ जाती हैं

जब तमाम उम्मीदें बैठ जाती हैं
साँसें तब कहाँ मुझे आ पाती हैं।

जाँ हलक में अटकने लगी अब
ज़ुबाँ ये कहाँ कुछ समझाती हैं।

लोग तो मकानों में झांकते नहीं
और ग़रीबी बस्तियाँ जलाती हैं।

इस दौर में परेशाँ है हर नाविक
लहरें कहाँ चुप होकर आती हैं।

हमीं इस जाँ के बख़ील है वर्मा
वो कहाँ साँसें हमसे चुराती हैं।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

ये ख़ुदबयानी ही जंजाल बन जाता है

ये ख़ुदबयानी ही जंजाल बन जाता है
मुसाफ़िर शह्र में ये हाल बन जाता है।

मकाँ शीशों के और अंदर पत्थर भी
यही तो अकसर बवाल बन जाता है।

फूँक कर पाँव रखते है हम भी सनम
और यही सबका सवाल बन जाता है।

हैसियत ऊँची उठने लगी दीवारों की
हमसाये में होना मलाल बन जाता है।

हमारी दरख़्तें रोती हैं रात-भर वर्मा
औ' सुब्ह हसीनोंगुलाल बन जाता है।

नितेश वर्मा

मुझे झूठा बताकर कहीं को रहा

मुझे झूठा बताकर कहीं को रहा
दिनों-रातों सुकूँ भी नहीं को रहा।

हमारे ही जिस्म पर.. कई दाग़ थे
मुकरना भी इसी से हमीं को रहा।

क़िताबों में हुआ था ज़िक्रे-आपका
जिसे कहना नहीं था यहीं को रहा।

मिले थे जो किसी मोड़ पर वो ज़ुबाँ
बहुत रोये मग़र शब वहीं को रहा।

सुकूने-क़ैद में थे मुसाफ़िर सभी
रिहाई भी मुश्किल उन्हीं को रहा।

ख़ुदा ही जानता है जख़्मे-हाल अब
शिकायत भी किया तो जमीं को रहा।

नितेश वर्मा

हाँ तो! झुंझलाके मैंने दीवार फोड़ी भी है

हाँ तो! झुंझलाके मैंने दीवार फोड़ी भी है
फ़िर ताउम्र रो-रोकर शक्लें जोड़ी भी है।

किसी उम्मीद में बैठे मुसाफ़िर थे हम भी
उसने हर मर्तबा अपनी बात तोड़ी भी है।

हम ही माँगते थे बारहां कुछ मोहलत भी
हम ही है जो हर राब्ता अब छोड़ी भी है।

हालात के आगे मजबूर है इतने क्या कहे
मंजिल पे आके ख़ुद गला ममोड़ी भी है।

सुनते आये हैं क़िस्से मददगारी के बहुत
परेशां होके हमने हर चाल मोड़ी भी है।

मैंने हर आस को बांधा है ख़ुदसे ही वर्मा
किसी से नहीं गिला मुझको थोड़ी भी है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

अब रोशनी हमारे आँगन में फैलने लगी है

अब रोशनी हमारे आँगन में फैलने लगी है
ख़ूँ-ख़राबों के बाद शुरू हुई ये दिल्लगी है।

कितना मातम मनाओगे ख़ुदके गुजरने पे
ये क़िस्सा तमाम भी बस इक ख़ुदकुशी है।

इश्क़ के वास्ते ना कभी रस्ते पर आये थे
मज़ूरी ज़िंदगी की भी मुकम्मल शायरी है।

तमाम बोझ अपने कंधों पर रखकर चलो
अज़ीब कुछ नहीं है समझो सब बेख़ुदी है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

कहीं सो रहा था कइयों उफ़ान लेकर

कहीं सो रहा था कइयों उफ़ान लेकर
एक जिस्म था मेरे ही जिस्म के अंदर
औ' शोर कर रहे थे तुम इस दरम्यान
ख़यालों की कश्ती में होकर समंदर
जब यूं टूट पड़ने लगा था पहाड़ कोई
जब टपक रही थी मेरी ही ख़ून मुझपर
जब गुजांइश थी ही नहीं समझौते की
और युद्ध जब गुजर चुका था कहीं पर
लाश समेट रहे थे कई घरों के लोग
और हज़ारों आँखें रो रही थी इसपर
तब सियासत की लिबास ओढ़े मैं ही
मर था उन चीख़ों में बेहयां सा होकर।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

ज़िंदगी किसी सर्द से पड़े आशियाने में क़ैद थी

ज़िंदगी किसी सर्द से पड़े आशियाने में क़ैद थी
जब दो कनीय अभियांत्रिकी छत घूर रहे थे
ख़यालों की ओस भरी बूंदें जब टपक रही थी
तब लानत भेजते कुछेक ख़्वाहिशें सुस्ता रहे थे
उस AC के बंद कमरे में धीमी रोशनी के बीच
TV जब बहस में गुमशुदा होती जा रही थी
दरवाज़े पर मजदूरों के बर्तन खटखटा रहे थे
चीख़ती महिलाएँ ताने दे रही थी
कोस रही थी किस्मत और लाचारी को
बच्चे भूख से बिलखते आँधियों के धूल चाट रहे थे
मध्यम चाँद जब शीतल होकर रोशनी फैला रही थी
बारिश के फुहारों के बीच जब अचानक ख़िड़की खुली
तो दोनों ने सरसरी तरीके से ग़ौर फ़रमाया
मजदूर बारिशों-तूफ़ाँ से जद्दोज़हद करके
बचा रहा था कि उसका छप्पर सिर पर कुछ देर और पड़ा रहे
के ये रात गुजरने में अभी बहुत रात बाक़ी है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

फिर बहुत देर तक आज उजाला होगा

फिर बहुत देर तक आज उजाला होगा
ज़िक्र होगा उनका तो संग प्याला होगा।

मोहब्बत का उड़ाते हो मज़ाक तुम भी
जिस्म गोरी हो, मग़र दिल काला होगा।

किसी आलीशान से शहर में क़ैद हूँ मैं
जल्द ही सुना है कि घर निकाला होगा।

जब भी ख़्वाब मुहाज़िर होकर भागे थे
समझ गया था मैं जाँ भी दीवाला होगा।

बद्ज़ुबानी में उम्र गुजारी तमाम वर्मा
बद्ऐहतियाती मेरे मुँह में छाला होगा।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

ये कौन यूं आकर इन ख़ामोशियों में लिपट जाता है

ये कौन यूं आकर इन ख़ामोशियों में लिपट जाता है
ये कौन-सा शक्ल है, जिसे दिल बारहां रट जाता है।

ख़ूँ-ख़राबों से भी मसाईल हल होते हैं क्या बेवकूफ़
ये क्या है तुझमें जो हर-बार यहाँ मर मिट जाता है।

रिहा करके सोया था उस परिंदों को मैं रात भर जो
सुबह फ़िर वो परिंदा आके मुझसे ही सट जाता है।

ज़िंदगी से परेशां होकर अब क्या ख़ुदकुशी करना
माना दु:ख है, दर्द है, लेकिन सब तो कट जाता है।

बचपन से बुढ़ापे तक के सफ़र में मैंने देखा है जो
सच मानिये तो सब कुछ आहिस्ता निपट जाता है।

जब भी उसके पत्थर के बदले पत्थर ढ़ूँढी थी वर्मा
एक है यही इंसानियत जो सामने आ डट जाता है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

यूं ही एक ख़याल सा - मन-मायल

चीख़ो मत।
चीख़ूँगी। क्या कर लेंगे आप मेरा? मारेंगे? तो मारिये, लेकिन मैं चुप नहीं रहूँगी।
मैं तुम्हें कैसे मार सकता हूँ। ये तुम भी कैसी बातें कर रही हो?
क्यूं इतनी बार से क्या किया है आपने। जब मैं अपना सबकुछ छोड़कर रात के गहरे सन्नाटे में भागते हुये आपके पास.. आपके दरवाज़े पर आयीं थी.. आपने तब अपना दरवाज़ा ना खोलकर मुझे मारा था। जब मैं बाहर उस दहलीज़ पर घंटों बैठकर रोई थीं और आपने मुड़कर एक बार भी मेरा हाल ना जानना चाहा.. तब.. तब आपने मुझे मारा था। जब मेरी मंगनी तय हो रही थी और मैं किसी अँधेरे कमरे में बैठकर बिलख-बिलखकर रो रही थी तब मुझे देखकर मुझसे निगाहें फ़ेरकर आप चले गये थे.. तब आपने मुझे मारा था। मेरी रुख़सती के दिन जब आपने शह्र छोड़कर मुझे और भी तन्हा कर दिया था तब आपने मारा था मुझे। जब बिस्तर पर मेरा जिस्म किसी और के हवाले था और रुह आप में खोया हुआ था तब.. तब आपने मुझे मारा था।
मुझे चोट नहीं लगती, मेरा जिस्म कहीं लहूलुहान नहीं होता लेकिन मैं अंदर ही अंदर से मरती आ रही हूँ। मैंने शायद इक ज़ुर्म किया था मुहब्बत करके.. और मैं उसमें ही तिल-तिल करके मर रही हूँ।
मेरी एक दरख़्वास्त है कमसेकम मुझे इस बार चैन से मरने दीजिए। बेचैनी से मेरी जान मत निकालिये। अब मुझमें इतनी हिम्मत नहीं रह गयी है कि मैं आपसे कुछ कह सकूँ या आपकी मार को सह सकूँ। ख़ुदा के लिये अब मुझे बख़्श दीजिये।
क्या मैं इतना बुरा हूँ?
हाँ! बहुत बुरे है आप।
बुरा ही सही, लेकिन अब मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूँगा। इन हज़ारों ज़ुल्मों के बीच तुम ये भी कान खोलकर सुन लो- अब तुम मेरे ही पास रहोगी और मेरे कहने पर ही कहीं जाओगी। और तो और तुमने और कुछ कहा ना तो मैं तुमसे ज़बरदस्ती निक़ाह भी करूँगा। तुम मुझसे बच नहीं सकती। मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता।
आप बहुत बुरे है। मैं आपसे तंग आ गयीं हूँ ख़ुदा करे कि.. कि आपको मौत आ जाये।
मैं मर जाऊँगा तो तुम्हें ख़ुशी मिल जायेगी?
हाँ! बहुत ख़ुशी मिल जायेगी।

छोटे से दिल नूं समझावा की
तेरे नाल क्यूं लाइय्या अँखियाँ..

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

मुझे लहूलुहान कफ़न में लिपटा देखकर

मुझे लहूलुहान कफ़न में लिपटा देखकर
बिलख रही थी इक मासूम गाँव
जिसके घर के कई चूल्हे बुझे रह गये थे
उस रात जब गाँव के खेलते हुए बच्चे
बिना किसी हो-हल्ला के भूखे सो गये
चाँदनी नहीं ठहरीं थी किसी आंगन में
हवाएँ बेरुख़ होकर कहीं ठहर गई थी
जब बहता ख़ून मेरा बर्फ में जमकर
पिघलने लगा था सबके सीनों में
और तड़पते हुये तमाम बोझिल मन से
लोग शहरों के उतर आये थे रस्तों पर
मेरे हाथ से तब छूटता तिरंगा थम गया
और उसे अपने सीने में अंदर तक
गाड़कर मैं मुस्कुराता शहीद हो गया
मैंने ख़ुद ही ऐसी शहादत चाही थी
ये इल्तिज़ा है.. कफ़न के ऊपर लिख देना
मैं जीता हूँ देश पर मरने के ख़ातिर
मेरा नाम सिपाही है.. मेरा नाम सिपाही है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

अभी भी हूँ.. वही मैं बिखरने वाला

अभी भी हूँ.. वही मैं बिखरने वाला
जहाँ कल तलक था मैं सुधरने वाला।

मुझे जाने ख़बर होती कि ना होती
ख़ुदा तू ही बता सब विचरने वाला।

मिरी आँखें जवां थी.. तब गुमाँ थी वो
मुझे मारा कि मैं ही था ठहरने वाला।

शहर भर में.. सुनाया था किसी ने ये
कि वो अब है मुझी में निखरने वाला।

किसी से ज़िंदगी भर ये गिला लिपटा
वही है.. अब मुझी में गुजरने वाला।

नितेश वर्मा

#Niteshvermapoetry

प्रतिक्रियाओं के विकृत मानसिकता भरे दौर में

प्रतिक्रियाओं के विकृत मानसिकता भरे दौर में
विभिन्न प्रतिस्पर्धा में मनुष्यों का होता आगमन
उन विचारधाराओं से ओत-प्रोत होकर
असंयमित प्रकार से खंगालता है इंसानियत
अब उग़ता जाता है इसपर चंचल स्वभाव मेरा
और झुंझलाता है स्वयं के इस दुर्व्यवहार पर
सामाजिक बुनियादी ढांचा नीरस प्रतीत होता है
और सुबह से काम कर घर लौटता मजदूर
एक नितांत सरोवर के समीप बैठकर
पत्थर फ़ेंकता रहता है अपनी इच्छाओं के
सरोवर में बैठे हुये उन हंसो के जोड़ो पर
स्वयं को वृक्ष के डाल पर बैठे हुये कौओं से
एक चिढ़न से पलता हुआ बगुला बताकर।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

थकन जब ओढ़कर शाम मुझमें ढ़लती रही

थकन जब ओढ़कर शाम मुझमें ढ़लती रही
एक शक्ल धुंधली सी करवट ले जलती रही।

जब मातम मेरे दहलीज़ पर आकर बैठ गई
मयस्सर सारी चीज़ें फ़िर बहुत ख़लती रही।

हमने तो आँखों में बस मुहब्बत सजायी थी
कौन-सी आँखें थी जो मुझमें पिघलती रही।

हौसला बहुत देर बाद आया हमें मरने का
वो एक सज़ा थी जो हर बार बदलती रही।

फ़ख्र ना हुआ उसके दास्तान पे मुझे वर्मा
मुतासिर हो गये यही किरदारे ग़लती रही।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

वो हुस्न पाकर फ़िर ख़ुदमें लौट आया

वो हुस्न पाकर फ़िर ख़ुदमें लौट आया
रात बिताकर फ़िर ख़ुदमें लौट आया।

मुझसे मज़ीद बहस सबकी होती रही
मैं तंग आकर फ़िर ख़ुदमें लौट आया।

तमाम शक्ल पुराने थे जाने-पहचाने से
करीब जाकर फ़िर ख़ुदमें लौट आया।

बद्तर हालत थी, आँखें थी खोई कहीं
सब दिखाकर फ़िर ख़ुदमें लौट आया।

इश्क़ में तौहमते मिलती हैं हज़ारों ही
पीठ बचाकर फ़िर ख़ुदमें लौट आया।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

सुर्ख़ मखमली होंठ, गुलाबी होते हुये गाल

सुर्ख़ मखमली होंठ, गुलाबी होते हुये गाल
कानों से लिपटे हुये झुमके की बालियाँ
और तुम्हारा दायें हाथ से
बिखरी जुल्फों को कान के पीछे ले जाना
एक चेहरा जो तुममें खोया रहा था
वो आज तलक रिहा नहीं हुआ है
उस कैंटीन की शामे-मुलाक़ात से
बंद है ख़याल दिल के किसी कोने में
एक हसीन सा कमरा बनकर
जिसकी दीवार की हर ईंट में
बस तुम ही तामीर हुयी हो
जहाँ सदियों से तुम्हारी इक तस्वीर
मुस्कुराएँ जा रही है मुझे देखकर
बिन कुछ कहे.. बड़ी ख़ामोशी से।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

यूं ही एक ख़याल सा..

इस दुनिया की सबसे खूबसूरत बात क्या है जानती हो?
नहीं! तुम बताओ। मुझे तो बस इतना ही पता है कि दुनिया बहुत ज़ालिम हैं।
अरे यार! ज़ालिम होगी.. लेकिन किसी और के लिये।
हाँ! तुम बताओ। कौन सी बात सबसे खूबसूरत है इस दुनिया की?
यही कि इस दुनिया में एक साथ कई मुहब्बत अलग-अलग जगह पनपती रहती हैं। एक तरफ़ा या दोनों तरफ़ बराबर की आग लगाये हुये।
और हमारा?
ये तो तुम बताओ?
उम्म्म! पहले चाय तो पिलाओ।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

हिंदी दिवस Hindi Diwas By Nitesh Verma Poetry

#हिंदीदिवस

अग़र वीराने-ख़्वाब से रिहा हो चुके हैं तो हिंदी दिवस की ओर ग़ौर फ़रमा ले। ये बाहें खोलें आपका इंतज़ार कर रही है। भावुकता से उठाने या थामने की ज़रूरत नहीं है और ना ही अश्रुपूर्ण दो-चार कविताओं को परोसने की। हिंदी को आपसे बस मुहब्बत की जरूरत है वो थोड़ी सी भी हो तो चलेगी।
हिंदी में अँग्रेज़ी का प्रयोग हिंदी के ठेकेदारों को ग़लत लग सकता है लेकिन आप अग़र इसके साथ Comfortable है तो ज़रूर ऐसा कीजिये। सबकुछ सबके मुताबिक़ नहीं होता। हिंदी अपनाइये बग़ैर शर्त या किसी शर्त के वो आप पर निर्भर करता है। सवाल उठाने वाले तो कई दिग़ज्जों पर सवाल उठा चुके हैं। दुष्यंत कुमार जी के शे'र-
तू किसी रेल सी गुजरती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।
पर भी सवाल उठाया गया है कि रेल हिंदी या उर्दू नहीं बल्कि अँग्रेज़ी का शब्द है उन्हें ऐसा शे'र नहीं कहना चाहिये था।
फ़ैज अहमद फ़ैज साहब ने "हिंदी में अँग्रेज़ी का आगमन"- पर बहुत ही बेहतरीन तरीके से एक बात समझायी है।
शब्द अँग्रेज़ी का है Bore यानी कि उबन। इस Bore से हिंदी के ठेकेदारों को कई परेशानी रही है। मग़र आज देखिये हर कोई अपने लिखावट में बोरियत शब्द का इस्तेमाल नि:संकोच करता है उसे उर्दू का बताकर।
नयी शब्दों का आगमन भी ज़रूरी है। मग़र हिंदी की बनी-बनायी दुनिया इसे रत्तीभर भी अमल में नहीं लेती है। सोचिये अग़र मशहूर गीतकार शैलेंद्र जी- ज़िंदगी से ज़िंदगानी का ईज़ाद ना करते तो क्या आज के कई शे'र इतने खूबसूरत हो सकते थे?
हिंदी अपनाइये, हिंदी बढ़ाइये, नये शब्द बनते हैं तो उन्हें सराहिये। ज़्यादा और कुछ लिखने से अच्छा है एक कविता पढ़ लीजिये शायद विचार हमसाथ हो जाये।

विश्व इतिहास में जब एक पुस्तक धाराशायी थी
और मंत्र फ़ूँकते हुये कुछ तांत्रिक
तब रटे जा रहे थे हिंदी.. हिंदी.. हिंदी..
अग्नि की लपटें तीन सौ ग़ज ऊपर उठीं थी
बस्तियाँ जब जल रही थी.. लोग झुलस रहे थे
तांत्रिक पसीने से तर-ब-तर होकर
जब एकसुरी अश्रुपूर्णित मंत्र पढ़े जा रहे थे
हिंदी भीषण जगाये जा रहे थे दिलों में सबके
के यकायक आकाशवाणी हुयी और
सब थर्रा गये-
ऐ! मूर्ख हिंदी जलाकर हिंदी बचा रहे हो?
अब समेटते रहो पीढ़ियों दर पीढ़ियाँ
हिंदी बहुत वक़्त लेगी फ़िर से लौट के आने में
मनाओ हिंदी दिवस और कोसों ख़ुदको
हिंदी तैरती आकाश में कहीं दूर जा रही थी
और सब हिंदी अर्थी ठेकेदार हाथ जोड़े
Oh! My god कह रहे थे।

नितेश वर्मा

#Niteshvermapoetry #HindiDiwas2016

ख़ुद्दारी उतारकर फ़ेंक ही दी हमने आख़िर में

ख़ुद्दारी उतारकर फ़ेंक ही दी हमने आख़िर में
सवाल जब उठा हुआ था सबके ही ख़ातिर में।

जब तलक धुंध कमरे में थी वो लिपटी रही थी
कमाल हुआ ख़्वाबें जली आके यूं धूप सिर में।

उस ग़ज़ल का मक़ता ही उन्हें पसन्द नहीं था
ख़ाक समझेंगे वो शे'र हुस्ने-मिसरा ज़ाहिर में।

मैं मुतमैयन भी नहीं ना ही तग़ाफुल करता हूँ
सब इल्म भूल आया हूँ दास्तान-ए-साहिर में।

दीवारें सटी हुई हैं पर दिलों में फ़ासले हैं वर्मा
अपने भी आज बहुत खड़े हुये हैं मुहाज़िर में।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

अँधेरे में जो तुम ही जलकर सामने आ जाती

अँधेरे में जो तुम ही जलकर सामने आ जाती
सच्चाई सब वहीं निकलकर सामने आ जाती।

जब भी कभी थोड़ा तल्ख़ होना चाहता था मैं
इक सूरत हसीन पिघलकर सामने आ जाती।

ये दरम्यान नजाने क्या बचा था दरोदीवार के
परछाइयाँ ख़ुदसे लिपटकर सामने आ जाती।

तकलीफ़ तुम्हारे वापस लौटके आने की नहीं
बस कभी ये मौजूँ बदलकर सामने आ जाती।

बहुत तन्हा महसूस किया था मैंने ख़ुदको तब
जब शामें मुझमें ही ढ़लकर सामने आ जाती।

हुस्न दरिया था उसका पर थी सराब में ज़िन्दा
प्यासी थी तो वहीं मचलकर सामने आ जाती।

दमपुख़्त फ़िरसे ख़ुदको किये है हम भी वर्मा
वो सलीका नहीं के घुलकर सामने आ जाती।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

यूं ठुकराया जाना किसे पसंद होता है

यूं ठुकराया जाना किसे पसंद होता है
ख़तों के सिलसिले के दरम्यान
चयनकर्ताओं से अपनी पहचान
बाज़ारों के बीच पुरानी सी दुकान
बची हुई झूठी सी अपनी शान
मंज़ूर नहीं होता है किसी को
यूं बेवज़ह का ठुकराया जाना
लेकिन फ़िर हवा उठती है इक
कोई लहर भी आता है अज़ीबोग़रीब
और फिर वक़्त बदलता है
इंसान भी बदलते हैं कई शक्ल लेकर
और रिवाज़ चल पड़ता है फ़िर से
बदले की, द्वेष की, स्वतंत्रता की
स्वाधीनता की और आंदोलनों की
फ़िर लाज़िम होता है ठुकराया जाना
प्रेमी मुहब्बत ठुकरा देता है
निज़ाम मुल्क को
अफ़सानानिगार साहित्य को
क़िताब-ए-हर्फ़ मानी को
बादल बारिश ठुकरा देते हैं
पेड़ पत्तों को
दोस्त सोहबत को
और धर्म कर्तव्य को
और फ़िर जारी रहता हैं यहाँ
अनादिकाल तक ठुकराया जाना
पर सोचिये ख़ुदको उदाहरण लेकर
यूं ठुकराया जाना किसे पसंद होता है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

आइये इक और क़त्ल करते है

आइये इक और क़त्ल करते है
थोड़ा बुरा और शक्ल करते है।

उसकी शाम रोशन कैसे रहेगी
चलो कुछ और दख़्ल करते है।

देखकर उस शाख की दरख़्त
कुछेक हम भी नक्ल करते है।

हमारा वजूद भी मिट्टी में मिला
हमीं बयां हाले-दिल करते है।

के दावेदार भी बहुत है यूं वर्मा
जो मुझे ही बद्शक्ल करते है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

तेरे ही जिस्म को ओढ़ता हूँ मैं

तेरे ही जिस्म को ओढ़ता हूँ मैं
जब-जब सर्दियाँ मुझमें बनती है
तुझमें ही तो डूब जाता हूँ मैं
जब-जब गर्मियाँ मुझमें उतरती है
मैं हूँ इक धूप.. तू हवा सी है
तू चलती है तो मैं चलता हूँ
तेरे ही होने से है ये सब मुझमें
ख़यालों की काग़ज पे तू ही उभरती है
तेरे ही जिस्म को ओढ़ता हूँ मैं
जब-जब सर्दियाँ मुझमें बनती है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

ये इश्क़ वादे भी हज़ार करता है

ये इश्क़ वादे भी हज़ार करता है
कमबख़्त! ऐसे ये प्यार करता है।

कइयों मानी में जब्त हुआ था जो
वो शे'र मुझे असरदार करता है।

तन्हाई में कई बार ख़याल आया
मेरा ज़िस्म भी व्यापार करता है।

जब डूबने लगी तमाम ख़्वाहिशे
लगा दिल कुछ उधार करता है।

करवटें लेती रहीं थी सिसकियाँ
ख़बर तो खड़ा दीवार करता है।

वो मुझमें मुद्दा उठाता है हरबार
वही ख़ुदको अखबार करता है।

जो उलझते रहे थे हम ख़ुदसे ही
इसपे ही वो जाँनिसार करता है।

था कोई ये हक़ीकत का क़िस्सा
इल्म ख़ूब हो तकरार करता है।

जब भी गुजरता हूँ मैं तिरगी से
वो आके मुझे गुलज़ार करता है।

उल्फ़त की गर्मी ऐसी लगी वर्मा
देखा इश्क़ भी बीमार करता है।

नितेश वर्मा

#Niteshvermapoetry