Monday, 5 September 2016

वासनाओं से लिप्त होकर वो ढूंढती है

वासनाओं से लिप्त होकर वो ढूंढती है
पर-ज़िस्म के अंदर इक ठिकाना
जब हवस उसपर हावी हो जाता है
और अक्ल का संयमन टूट जाता है
इक विद्रोह खौलती है उसमें
लाज़ो-शर्म की लिपटी हुई नक़ाब
वो उतारकर कहीं दूर फ़ेंक देती है
बने-बनाये बंधनों से मुक्त होकर
वो उतर जाती है सुकूने-तलाश में
और भरती हैं अपनी इच्छाओं को
के फिर वो उस ज़ेहनियत से निकल
कुछ ऐसा ईज़ाद करे
कि उसकी अतृप्त वासनाओं का
कभी कोई मज़ाक ना बना बैठे कहीं।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

ना कोई जहाज.. ना ही मैं कोई कश्ती हूँ

ना कोई जहाज.. ना ही मैं कोई कश्ती हूँ
अदना सी इक शायर अदना सी हस्ती हूँ
मेरे बोल सिर्फ़ मुझमें ही नहीं सिमटते हैं
कई दर्द, कई जवाब, ख़ाबों की मस्ती हूँ

सौ उबलते ख़यालों को जलाया हैं मैंने
दर्दों को भी तो हँसना सिखलाया हैं मैंने
मेरे ज़िस्म पर हर्फ़ मचलती रहती है
मेरे अंदर भी हूँ मैं कहाँ झूठलाया हैं मैंने
अज़ीब दास्तानगो हूँ ख़ुदसे मुकरती हूँ
ख़ुदमें कई क़िस्सों को बहलाया हैं मैंने
मेरी ज़र्द चेहरे पर कई ख़्वाहिशें उमड़ती हैं
कभी शर्मीली सी तो कभी मैं जबरदस्ती हूँ
ना कोई जहाज.. ना ही मैं कोई कश्ती हूँ
अदना सी इक शायर अदना सी हस्ती हूँ

बेख़ौफ मंजिलों तलक भटकती हूँ कभी
समुंदर ज़ुबाँ पे रखकर गटकती हूँ कभी
आसमां पे भी चलने का हुनर है मुझमें
पर इनसे दूर ख़ुदको झटकती हूँ कभी
मैं आलस में उलझी इक कविता सी हूँ
ख़्वाहिशों भरी डाली से लटकती हूँ कभी
धड़कनों की हर साज़िश से वाकिफ़ हूँ
कभी मुनासिब तो कभी मौकापरस्ती हूँ
ना कोई जहाज.. ना ही मैं कोई कश्ती हूँ
अदना सी इक शायर अदना सी हस्ती हूँ।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

इतना भी सफ़र नहीं था मुश्किल मेरा

इतना भी सफ़र नहीं था मुश्किल मेरा
मुझमें ही लापता था पता शामिल मेरा।

मैं गुनाहों से ख़ुदको दूर रखने लगा हूँ
हुआ है इस तरह नाम ये कामिल मेरा।

हुनर तो आज कमरे में दम तोड़ती है
जुगाड़ से है रोशन शहर काबिल मेरा।

कुछेक बात ज़माने में असरदार भी है
इक शख़्स फ़िर हुआ है जाहिल मेरा।

बहुत दिनों से निगाहें सजाके बैठा था
अब आरज़ू है तुझसे होके मिल मेरा।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

आसानी से जब भी चराग़ों ने जलना चाहा

आसानी से जब भी चराग़ों ने जलना चाहा
हवाओं ने उसे साज़िशों में लिपटना चाहा।

कई घर जले यहाँ, कइयों तो राख़ हो गये
क़ीमत देके लोगों ने फिर खरीदना चाहा।

नाजाने क्या बसता रहा था उसके सीने में
रंगों से उसने, तस्वीरों को बदलना चाहा।

जब बहुत दूर निकल आया था वो ख़ुदसे
फिर पलट के वो आख़िर संभलना चाहा।

मुतमईन तो वो अपनी साँसों से भी ना है
बेकरार है बस मौसमों में पिघलना चाहा।

एक सियासत उसे ख़ुदमें खींचती है वर्मा
इक शिकायत में चाँद ने यूं ढ़लना चाहा।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

उन लिबासों को उतारकर फ़ेंक दीजिए

उन लिबासों को उतारकर फ़ेंक दीजिए
दाग़ ग़र ज़िस्म पर हैं.. तो कई अच्छा है।

अब झूठ पर ज़ुबान मत दुहराइये इतना
फ़र्क़ समझ में है के क्या-क्या सच्चा है।

मनहूसियत घर क़ैद कर लेती हैं हमारी
ये इल्म नहीं है उसको वो इक बच्चा है।

हम भी गुजरे थे ख़ामुशी ओढ़कर वर्मा
उसने पत्थर फ़ेंका औ' कहा ये रक्षा है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

बहुत मुश्किल होता है कुछ भी मान लेना

बहुत मुश्किल होता है कुछ भी मान लेना
इस तार्किक उम्र में भी आकर चुप रहना
किसी वादो-विवाद से मुकरना
सच में आसान नहीं होता है कुछ मानना
जैसे अक्सर चुपचाप मान लिया करते थें
पुरानी गणित की क़िताबों में
उलझे कई सवालों के ज़वाबों को एक्स
क्या ये वही एक्स है जो गुजर गया है
या मुझसे छूट गया
या मैंने ही जिसको गुजरने दिया
क्या अब मैं ज्यादा परिपक्व हो गया हूँ
जो ख़याल में हूँ इस उबाऊ से एक्स के
वो एक्स, जो मुझे कभी समझ नहीं पाया
दूर होकर भी कई रात लौटकर रुलाया
जिसने मेरे अंदर के इंसान को मार दिया
या मेरे गले में जो फ़ंदा छोड़कर है गया
मेरी शामे जो उदास करके आगे बढ़ गया
क्या मैं उस एक्स पीछे हूँ.. एक वक़्त से
क्या मैं ख़ुदको तलाश रहा हूँ उस एक्स में
या मैं ये मान बैठा हूँ
उस अतीत को आज का व्यंग्य इक
पर फ़िर सोचता हूँ के क्या आसान है ये
बहुत मुश्किल होता है कुछ भी मान लेना

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

तिरी उलझन तुझे ही काटती है

तिरी उलझन तुझे ही काटती है
ग़मे-उलफ़त बढ़े तो डांटती है।

लबों से छूटकर प्याला गिरा था
कहानी अब अधूरी झांकती है।

अभी हुए थे गुमाँ के होश आईं
अचानक नींद भी ये मारती है।

नहीं वो बोलना था जो सुना था
मिरा दावा शर्त अब हारती है।

ज़िस्म क़ैदी हुई आख़िर जहाँ ये
उसी के साथ.. साये भागती है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

किसी अर्थहीन जीवन की कड़ी

किसी अर्थहीन जीवन की कड़ी
पर भटकता एक राही
पुकारता रहता है अकारण
विरह-वेदनाओं के मध्य
प्रसन्नताओं के नव अंकुरों को
विचलित विचारधाराओं के संग
जिसका चित्त मलिन रहता है
वो स्वीकार कर हर पराजय
पाखंडी स्वयं को झोंक देता है
भक्ति के भयावह हवनकुंड में
कई लालसाओं के अर्थ को लेकर।

नितेश वर्मा

उतने ही शिद्दत से दबाया था उसने गला मेरा

उतने ही शिद्दत से दबाया था उसने गला मेरा
जाँ हलक में अटक जाएं और साँस भी ना टूटे।

मैं बेतहाशा भागता रहता था मंजिल मिलने से
मरा तो दुआ करा के अब एहसास भी ना टूटे।

बिलकुल ख़्वाब से दूर थे, रोशनी फैलाने वाले
बारिशे-आरज़ू औ' सोचते के प्यास भी ना टूटे।

मिट्टी में दफ़्न हैं सब इतिहास में चमकने वाले
पढ़ रहें हैं सब के बस अधूरी आस भी ना टूटे।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

नज़्म : उसके ख़याल

जब उसके ख़याल सिर्फ़ उसके नहीं होते है
वो पहनी हुई होती है कई मोतियों की माला
कई रेशमी दुपट्टे संग उसके उड़ती हैं
हवाओं में फ़र्र-फ़र्र.. फ़र्र-फ़र्र.. करते हुए
कड़कड़ाती धूप में छिछलते हुए पानी पर
जब वो यकायक महसूस करती है चुभन
कंकड़ों और तलवों के मध्य नज़ाकत की
एक ठंडी गुदगुदी शीतलता की भरी हुई
छिपी मुस्कुराहट फैल जाती है चेहरे पर
फ़िर निकालकर अपनी डायरी बैठ जाती है
ऐड़ियों तक पांव तृप्त ठंडे पानी में डुबोकर
और बेसुध लिखती जाती है कोई कविता
किसी मनगढ़ंत कहानी को दरम्यान रखकर
वो कहानी जो वो देखती है सामाजिकता में
अपने घर के दहलीज़ को लांघने से पहले
जब उसकी नज़र झुक जाती है प्रतिउत्तर में
वो पटककर पांव जब चीख़ती है झुंझलाकर
जब उसके उड़ने पर आँख दिखाई जाती है
उसकी उठती हुई आवाज़ दबाई जाती है
उसके ही स्त्रीत्व निर्बलता का वास्ता देकर
वो फ़िर लिखना छोड़कर देखती है बादलों में
अपनी उंगलियों को उलझाती है जुल्फों में
और फ़िर एक ख़्वाहिश भरकर उठती है
और..
निकल जाती है फ़िर ख़ुदके तलाश में कहीं
मतवाली होकर,पंख खोलकर,आसमां ओढ़कर।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

ये किसने आस भरी नज़र फ़ेरी है आसमां पर

ये किसने आस भरी नज़र फ़ेरी है आसमां पर
सारे तारे बादलों से निकलकर झांकने लगे हैं।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

मिलता नहीं है जिसको ठिकाना ख़ुदमें कभी

मिलता नहीं है जिसको ठिकाना ख़ुदमें कभी
वो चाहता है ढूंढना इक बहाना ख़ुदमें कभी।

लोग जब मर रहे थे मैं प्यार में डूबा था कहीं
अब चाहता हूँ के कहूं फ़साना ख़ुदमें कभी।

इस क़दर झांकती है तस्वीरें-निगाह मुझ पर
जैसे तड़प उठता है ये ज़माना ख़ुदमें कभी।

है आरज़ू भी अब ख़्वाब से बहुत दूर मुझमें
के कोई चाहता है मुझे मिटाना ख़ुदमें कभी।

रोशनी में बार-बार तीरगी नज़र आती रहीं
पता चला वक़्त क्या है गँवाना ख़ुदमें कभी।

शक़ के दायरे में, मैं ही आता रहा था वर्मा
लगाएँ ज़ुर्म मुझपे मेरा शर्माना ख़ुदमें कभी।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

तो जन्म लेने दीजिये उस कृष्ण को

सावन के ठीक बाद की हरियाली
भादों की बेइंतहा बारिश
किसी घाट किनारे
बछड़ों का जमघट
फलो से लदी हुई डाली
राधा, रूकमणि, मीरा का मिलना
एक कृष्ण प्रेम का छिपा हुआ है
हम सबके अंदर
इक राधा
इक रूकमणि
इक मीरा के इंतज़ार में
तो जन्म लेने दीजिये उस कृष्ण को
आने दीजिये
कान्हा को अपने घर। �

नितेश वर्मा

जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं। कान्हा आपके घर पधारें।
#Niteshvermapoetry #Happyjanmasthami

हमलोग इधर से पत्थर फ़ेंक रहे थे.. और वो लोग उधर से लाठियाँ बरसा रहे थे।

बारहवीं के दिनों की बात है.. जब स्कूल में लंठई करते हुए आये दिन सस्पेंड होना पड़ता था। एक बार इसी तरह एक लौंडे की जबरदस्त कुटाई कर दी और जब मास्साब डंडा लेकर पीछे दौड़ें.. तो स्कूल के पीछेवाली गली से रफूचक्कर हो गया। गले में लटका हुआ बस्ता.. ज़ालिम हुआ जा रहा था और घर लौट के अभी जा भी नहीं सकता था। बस्ते में रखा टिफिन खोला और बीच रोड पर चलते-चलते मुँह में ठूंसने लगा। हलक जब पराठों की गर्मी से उग़ता गया तो फिर स्कूल की ओर भागा। पानी अभी पी ही रहा था कि देखा- कुछ लौंडे मास्साब को लेकर चापाकल की तरफ़ दौड़ें हुये चले आ रहे हैं। माज़रा भांपकर प्यास को अधमरा छोड़ते हुए भागा.. इसी बीच कई बार औंधे मुँह गिरा लेकिन तबतक नहीं रूका जबतक ये यक़ीन नहीं हो गया कि अब ख़तरा टल गया है।
कुछ देर दौड़ने के बाद.. पीछे मुड़कर देखा तो दूर-दूर तक ना मास्टर की ख़बर थी और ना ही उनके चमचों की। आगे मुड़कर स्टाइल से चलना चाहा तो यकायक घुटने में दर्द हुआ। नज़र फिर जब नीचे झुकाकर देखा तो पैर कई जगहों से छिला पड़ा था.. ख़ून की छोटी-छोटी बूंदें उनपर पनप रही थी। हाथ नीचे करके उन्हें छूना चाहा तो हाथ भी जगह-जगह छिला पड़ा था। क्लास का चुराया हुआ चॅाक बस्ते से निकाला और छिले हुए जगहों पर मल दिया। जब यक़ीन हुआ कि चॅाक का कैल्सियम अब घावों को भर चुका है तो फ़िर बस्ता उठाकर आगे बढ़ गया।
आगे बढकर देखा.. कुछ लोग विद्रोह भरे नारे लगाएँ जा रहे हैं। धीरे-धीरे उनके पीछे लोगों की लाइन बढ़ती जा रही है। मैं भी हुज़ूम के पीछे हो गया। बीच-बीच में टॅाफ़ियाँ बांटीं जाने लगी। चकितमंद मन मुफ़्त की टॅाफ़ियाँ लेकर आगे कुछ और बेहतर पाने को बढ़ा। इसी बीच किसी ने कोई एक झंडा पकड़ा दिया। मैं भीड़ को चीरता.. झंडा हवा में लहराते आगे बढ़ा। आगे पहुँचकर देखा पुलिस कर्मियों की भीड़ उस जुलूस को रोके हुए हैं। कुछ जुलूसकर्मी पुलिस वालों से उल-जुलूल की बातें किये जा रहे थे और पुलिसवाले बात-बात पर उनसे चाय और बीड़ी मंगवा लेते।
धीरेधीरे जुलूस में स्वार्थ से घुसते लोग जुलूस को अनियंत्रित करने लगे। पुलिसवाले हैरान-परेशान होकर चाय पीये जा रहे थे। गर्म माहौल में इतनी शांति देखकर किसी ने एक पत्थर फ़ेंका.. फिर उसके पीछे यकायक सैकड़ों पत्थर आने लगे। पुलिस वाले इससे तंग होकर लाठियाँ बरसाने लगें। उधर से जितनी लाठियाँ बरसती उतनी इधर से हम मुँहतोड़ ज़वाब भेज देते। भीड़ पर कोई केस नहीं होता है सुनकर दो-चार पत्थर मास्टर और उन चुंगलख़ोरों लौंडे के नाम मैंने भी फ़ेंक दिया। बस ग़लती यहीं हो गई.. बहती गंगा में हाथ धोते हुए मुहल्ले के एक चचा ने देख लिया। जब शाम को घर लौटा तो माँ ने हर लंठई का भुगतान सूद-समेत करवा लिया।
रात में पापा ने घर आकर कहा कल उसे स्कूल मत भेजना.. आज पुलिस और एक जुलूस के बीच झपड़ होने के कारण शर्माजी के बेटे को बहुत चोट आयी है। पूरा परिवार उनका हास्पिटल में परेशान है अभी मिलकर ही आ रहा हूँ। जाने क्या हो गया है लोगों को.. किसी का भी कोई ख़याल नहीं। पापा की बातों को सुनकर मैं रात-भर परेशान रहा कि आख़िर किसी और को कैसे चोट लग गयी। जब-
हमलोग इधर से पत्थर फ़ेंक रहे थे.. और वो लोग उधर से लाठियाँ बरसा रहे थे।
झूठ है.. सब झूठ है। मेरी तरह वो भी स्कूल से निकाला गया होगा वर्ना ऐसे कैसे कुछ हो सकता है। हैं नहीं तो क्या? बड़ा आया हुम्म्म्म। और फ़िर बड़े इत्मीनान से अगली दिन के छुट्टी का प्लान करने बैठ गया।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry #YuHiEkKhyaalSa

यूं ही एक ख़याल सा..

उस समय तक मैं अच्छी शायरी करने लगा था.. और वो कुछ और जवाँ हो चली थी। समझ के साथ.. आये दिन हममें बहसबाज़ियाँ होने लगी थी। वो ना तो ख़ुद से ही मुतमईन थी और ना ही उसे अब इस मुहब्बत पर यकीन रहा था। शायद! कहीं दूर से कोई एक अंजान सा रिश्ता आकर हम दोनों के बीच बैठ गया था। वो मुझसे ख़फा-ख़फा सी रहने लगी थी।
इसका एक और कारण भी माना जा सकता है, कि मैं भी उससे कुछ दूरियां बनाने लगा था.. हालांकि जो पूरी तरह से सही नहीं हैं। जाने क्या रहा था हम दोनों के बीच जो हर वक़्त हमें एक शर्मिंदगी से बांधें परेशान रखता था। राब्ता अब बिलकुल ख़त्म होने ही वाला था कि अचानक.. फिर से मरी हुई मुहब्बत ने एक चाल चली, अचानक से उसे मुझपर एतबार हो गया और मुझे उसकी मुहब्बत पर एक तरफ़ा यकीन। मैं ख़ुद को उससे पल भर भी जुदा नहीं रखना चाहता था। एक डर उससे जुदा होने भर का.. मुझे ना तो सोने देती और ना ही जागने देती। मैं मरना नहीं चाहता था और ना ही वो मेरे बिना जीना चाहती थी। किसी रब की कोई मेहरबानी नहीं हुई और ना ही फ़रिश्तों की कोई साज़िश।
मुहब्बत में फ़िर हम दोनों मुकम्मल हो गए। बस बदलते वक़्त ने साथ नहीं दिया। इसलिए.. वो अब किसी और घर की छांव है और मैं किसी और शहर का आफ़ताब जो हर रोज़ उसके आँगन में भी चला जाता है.. उसके लाख़ रोने-धोने और मना करने के वावज़ूद। �

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry #YuHiEkKhyaalSa

दोपहर की छिपती-छिपाती हुई

दोपहर की छिपती-छिपाती हुई
सूरज की मचलती किरणें
ड़ोलते हुए कुछ काग़ज से पत्ते
बादलों में से गुजरता हेलिकॉप्टर
आसमानों से लिपटते परिंदे
गली में चीख़ता हुआ फ़ेरीवाला
मेरे दीवार पर तामीर होती हुई
तुम्हारे साये की खिड़की
फिर हल्की बारिशों के फ़ुहारे
फ़िर तुम्हारा एकदम से
अचानक खिड़की पर आ जाना
ख़लता है आज भी
जो उस वक़्त
दरम्यान हमारे बातें नहीं थी
और फिर तुम
दरीचे से ख़ुदको छिपाकर जो
छोड़ देती थी हल्का खुला उसे
बौछारें मेरी मुहब्बतों के
फिर तमाम रात बरसती रहती
तुम्हारे खुशबू में लिपटकर
मेरे आंगन के कोने-कोने तक।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

क़िस्सा मुख़्तसर : अमीर ख़ुसरो

ऐसा माना जाता है कि उर्दू को हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर सबसे पहले अमीर ख़ुसरो लेकर आए थे। अमीर ख़ुसरो उर्दू अदब के एक बहुत ही जाने-माने अदबी रहें है, इन्हें इनकी हाज़िर-ज़वाबी के लिए तूतिये-हिंद का ख़िताब दिया गया है। इनकी हाज़िर-ज़वाबी को लेकर कई क़िस्से प्रचलित है, एक क़िस्सा ये भी काफ़ी मशहूर है-
एक बार गर्मियों के मौसम में अमीर ख़ुसरो इधर-उधर घूमकर चक्कर काट रहे थे। थोड़ी ही देर में उनका गला सूखने लगा और वो अपनी प्यास मिटाने के लिए एक कुएँ के पास पहुँचे। वहाँ पहले से ही चार औरतें अपने बर्तनों में पानी भर रही थी, अमीर ख़ुसरो ने उनसे पानी पिलाने को कहा। उन औरतों में से एक ने अमीर ख़ुसरो को पहचान लिया और सबको उनके मशहूरियत के बारे में बताया। वे औरतें तो पहले उन्हें सामने देखकर हैरान हो गई फिर अमीर ख़ुसरो से कहा कि वे उन्हें तभी पानी पिलाऐंगी जब वो उन चारों के दिए शब्दों को मिलाकर एक कवितात्मक रचना बनाकर उन्हें सुनाऐंगे। एक प्यासे इंसान के लिए यह बहुत मुश्किल काम हो सकता है लेकिन वो अमीर ख़ुसरो थे.. उन्होंने कहा कि ठीक है! मुझे मंज़ूर है.. आप लोग अपने-अपने शब्दों को बताइये।
पहली औरत ने कहा- चरखा
दूसरी ने- कुत्ता
तीसरी ने बोला- खीर
और चौथी ने कहा- ढ़ोल
ये शब्द काफ़ी हास्यास्पद थे, और अमीर ख़ुसरो काफ़ी खुशमिज़ाज इंसान थे उन्होंने उनके दिये हुए शब्दों से एक काफ़ी दिलचस्प दोहा बनाकर पेश किया -
खीर पकाई जतन से, चरखा दिया चलाए।
आया कुत्ता खा गया, तु बइठि ढ़ोल बजाए।।
अमीर ख़ुसरो के इस खूबसूरत से दोहें को सुनकर वे सब औरतें खिलखिलाकर हँस पड़ी और उनका गुणगान करती उन्हें पानी पिलाने लगी।
नितेश वर्मा

इस बंज़ारे-दायरे में नजाने कौन आता रहा

इस बंज़ारे-दायरे में नजाने कौन आता रहा
कभी तन्हा, तो कभी बज़्म में उग़ताता रहा।

उसके ज़िस्म को कुरेदते रहें सारी रात हम
सुब्ह फिर खाली हाथ परिंदा पछताता रहा।

ज़ेहनियत बिगड़ चुकी थी दिमाग़ पागल था
इल्मे-याफ़्ता था, एक हद तक शर्माता रहा।

सोचा था सबकुछ वक़्त के मुताबिक़ होगा
फिर हर घड़ी, नजाने क्यूं जी घबराता रहा।

इक घाव ज़िस्म से उतरकर, दिल में फैला
कभी रोया तो कभी थाम के सहलाता रहा।

सुकून क़ैद है कहीं मेरे ही सीने में छिपके
इक डर में मैं ही था, जिसे मैं फैलाता रहा।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

जब कोई ख़याल नहीं होता है ख़ुदमें

जब कोई ख़याल नहीं होता है ख़ुदमें
दर्द-ए-ज़ुबाँ समझाने को
जब ग़म रिसती रहती हैं आँखों से
झुंझलाहट सीने में क़ैद हो जाती है
इंसान जब मुकरता है हर ख़ाब से
ज़ुबान जब लड़खड़ाती है ख़ुदसे
सर अक्सर ही भारी होता है ख़ुदपे
जब अंदर ही अंदर कई
दिन-ओ-रात से कोई मरता है ख़ुदमें
सिसकियाँ लेती हैं ये बेतरतीब साँसें
हिचकियाँ उतर आती हैं हलक पर
चेहरे पर कई छाले एक साथ उगते हैं
इस हालत पर आकर बेइंतहाई से
फ़िर ख़ुदमें ही ख़ुदको मैं तलाशता हूँ
जब कोई ख़याल नहीं होता है ख़ुदमें।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

है घुप्प अँधेरा

है घुप्प अँधेरा
और तुम्हारे आने की आहट भी है
तारों में हल्की रोशनी हैं
हवाओं में तुम्हारी खनखनाहट भी है
बात पुरानी सी है
अरसों की बीती-बीती
ज़ुबाँ हौले-हौले से कुछ गुनगुनाएँ
और आँखों में इक धुंधलाहट भी है
हर शे'र के बाद
आवाज़ें गूंजती हैं चारों दिशाओं में
लफ़्ज़ों में जैसे इक कड़वाहट भी है
उग़ता कर लिबास फ़िर उतारा है
ज़िस्म-ए-दिल पे कई झुंझलाहट भी है
है घुप्प अँधेरा
और तुम्हारे आने की आहट भी है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

मुझमें इतना गिला तो रहने दो फ़रमाबरदारों

मुझमें इतना गिला तो रहने दो फ़रमाबरदारों
वो छोड़ गई मुझे ये शिकायत बहुत ज़ुरुरी है।

मेरे चेहरे पर वीरानीयाँ उग आईं हैं बा-दस्तूर
तेरे चेहरे पर भी कुछ कम नहीं जी हुज़ूरी है।

ना तलाश कर तू ख़ुदको कहीं भटक जायेगा
ये पहचान ठिकाना नहीं बस इक सुरूरी है।

नजाने मैं क्या ढूंढता था ज़माने में सदियों से
मैं लापता हूँ ख़ुदसे मेरी यही एक मजबूरी है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

बहन एक खुशनुमाँ सी छाँव होती है

बहन एक खुशनुमाँ सी छाँव होती है
तुमको जो तुम्हारे मंजिल तक ले चले
तुम्हारे सफ़र की वो पांव होती है
बहन एक खुशनुमाँ सी छाँव होती है

तुम्हारे हर इम्तिहान के दिनों में
जो तुम पर अक्सर चिल्लाती है
तुम्हारे सहेजे खूबसूरत से कंचो को
जो अक्सर बाहर फ़ेंक आती है
पापा से जो तुमको डाँट दिलवाती है
तुम्हारे सिक्के जो अक्सर चुराती है
पर हर सुबह-शाम दुआओं में तुम्हारी
सलामती की ख़ैर भी तो मनाती है
लहरों के बीच मझधारों में स्थिर सी वो
किसी अल्लहड़ पतवार की नाव होती है
बहन एक खुशनुमाँ सी छाँव होती है

जिसकी आँखों में समुंदर भी डूबता है
इश्क़ भी जिसको हर मर्तबा चूमता है
जिसके संग होने पर तुम मुस्कुराते हो
जिसकी बातों में जग भी हार जाते हो
ख़ुदमें जो सुलझी पहेली सी दिखती है
तुमको जो सच्ची सहेली सी लगती है
वो तुम्हारे हिस्से की गर्म चाय होती है
बेहद दिलनुमाँ सी एक राय होती है
किसी बेतहाशा, बोझिल, बेचैन से
शहरों के बीच जैसे कोई गाँव होती है
बहन एक खुशनुमाँ सी छाँव होती है

झूठ से सख़्त नफ़रत है जिसको
तुम्हारे ख़ातिर सौ-सौ बोलती है
जिसे चिढ़न है किसी से भी मिलने पर
तुमसे बेसब्र कई दफ़ा लिपटती है
कभी किसी पतंग की तरह मचलती
जिसकी ड़ोर वो तुम्हारे हाथों में देती है
जिससे शरारत तुम्हारी कम नहीं होती
वो इक आवाज़ जो तुम्हारी भी होती है
धूप उसकी ही पायल छूकर ठंडक भरे
सर्दियों में जैसे गर्म अलाव होती है
बहन एक खुशनुमाँ सी छाँव होती है

जो तुमसे कभी कुछ माँगती नहीं है
फिर बेमर्जी दिल में जो आ जाये उसके
अपना हक़ जताकर तुमसे छिन लेती है
कभी ख़्यालों में आकर गुदगुदाती है
कभी नमीं होकर आँखों से उतर जाती है
किसी रोज़ कलाई पर इक धागा बांधती है
फिर बिन बोलें जो सबकुछ कह जाती है
जिसको तुम्हारा हो जाना अज़ीज होता है
जो ख़ुदसे हार कर देदे अपनी जीत तुमको
ऐसी अद्भुत सी वो इक दांव होती है
बहन एक खुशनुमाँ सी छाँव होती है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
#HappyRakshaBandhan

A tribute to all loving sisters 

करवटों में जब ढ़ल रहे थे दिन और रात

करवटों में जब ढ़ल रहे थे दिन और रात
सिसकियाँ जब क़मरे में खा रही थी मात
तुम लौटे थे.. तब जाकर मेरी ज़िन्दगी में
जब कहीं दफ़्न हो गये थे.. सारे ख़्यालात

नब्ज़ जब छोड़ चुके थे धड़कनों से साथ
किसी और को जो मान बैठे थे हम नाथ
तुम लौटे थे.. तब रास्ते सजाके ख़्वाबों में
ज़िन्दगी फिर, फ़ीकी लगी देखके यथार्थ

दिन जब धुंधली चादर लपेटकर सोई थी
रात बारिशों में जाके जब कहीं खोई थी
तुम लौटे थे.. तब रिमझिम फुहार बनके
फिर तुम्हें उनमें देखकर कितना रोई थी

वक़्त बदला तो मैं भी कुछ बदलने लगी
आहिस्ता ही सही पर फिर संभलने लगी
तुम लौटे थे.. तब संवेदनाएँ बनकर कई
तुमको सलामत देख.. मैं भी चलने लगी।

नितेश वर्मा और तुम लौटे थे.. तब।
#Niteshvermapoetry

नज़्म : मैं, वो और उर्दू

अलिफ़ मअद आ की तरह हो तुम भी
जो मेरी कोशिशों के बावजूद भी
मुझसे हर दफ़ा अलग रहना चाहती हो
उस बूढ़े हम्ज़ा के झांसे में आकर
मैं बार-बार तुम्हें समेटता हूँ
उस नून के नुक़्ते की तरह दिल के
एकदम बीच रखकर बुनना चाहता हूँ
एक अमर प्रेम-कहानी जैसे
काफ और अलिफ़ मिलकर हो जाते हैं का
मैं सबसे छिपाकर तुम्हें रखना चाहता हूँ
जैसे जिम के अंदर उसका एक नुक़्ता
मैं चाहता हूँ कि कभी तुम भी उस
अलिफ़ और छोटी अय की तरह
साथ मिलकर ख़ुशनुमाँ दो सितारों की
एक हसीन सी क़ायनात बनाओ
मग़र जब भी मैं तुम्हें ढ़ूंढता हूँ ख़ुद में
तुम जाने मुझसे निकलकर कहाँ
चली गई होती हो
और मैं चीख़ता रहता हूँ ख़लाओं में
जैसे उस नून के नुक़्ते के
उससे अलग होने पर बेहाल नून गुना।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry



आज़ादी मुबारक़

पिछले ७० साल की आज़ादी पर आपने ग़र भारत का स्वरूप जैसे सोचा था, अग़र वो उसपर ख़रा उतरा है.. तो आपको आज़ादी मुबारक़। और जिन्हें तक़लीफ है उनको ढेरों सहानुभूति। आपके ईमानदारी को देखते हुए ही सारे आफ़िसों में आज बावजूद सोमवार होते हुए भी छुट्टी कर दी गईं हैं।
ख़ैर, गिले-शिकवे तो होते रहेंगे। अग़र आज़ादी के दिन आपको खुशी से जीने का या कुछ कहने का हक़ आपका मुल्क आपको दे तो यक़ीन मानिये यहीं आज़ादी है। जब प्रेमिका आपकी बाहों में बाह ड़ाले एक सफ़र पर चलने को तैयार हो.. हल्की बारिश आपके रूह को छूती रहे। बार-बार झूमती हवाएँ आकर आपसे लिपट जाएं.. बच्चों की एक टोली इंक़लाब बोलते आपके सामने से गुजर जाएं। फिर आप यक़ीन मानिये यहीं आज़ादी है क्योंकि दरअसल हम आम आदमी आम सी बातों पर खुश हो जाते हैं और हमारे लिये यहीं आज़ादी साबित होती है।
P.S. :- अग़र आफ़िस से दो लड्डू ज्यादा पन्नी में लपेटकर ले आये हैं.. तो यक़ीन मानिये आज के दिन आपसे ज्यादा खुशनसीब कोई नहीं।
जय हिंद.. जय भारत.. वंदे मातरम्।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

के कल रात फ़िर क़त्ल हुआ था मेरा

के कल रात फ़िर क़त्ल हुआ था मेरा
ख़ंज़र मेरे खून से रंगा हुआ था पूरा
मैं लहूलुहान होकर ज़मीन से लिपटा
ढूंढ रहा था कोई आसरा
जैसे ढूंढता हो मुसाफ़िर रात कोई
जैसे ख़्यालों में प्रेमी मुलाक़ात कोई
जैसे झुलसती गर्मी में हो बरसात कोई
जैसे दिल में उठता है ज़ज्बात कोई
जैसे ज़िन्दगी से छूटती हो लम्हात कोई
जैसे ख़ुदसे बयां न हो पाये हालात कोई
जैसे अंधेरे में चीख़ती लड़की जात कोई
जैसे जीत में जम्हातीं हो मात कोई
मैं ख़ुदको घसीटते लाया था किनारे
जहाँ यादों ने छोड़ दिया था होश मेरा
मैं सुकून की बाहों में धड़क रहा था
जो लोग फिर फ़ेंक रहे थे मुझपे पत्थर
ये ज़िस्म उस दर्द को झेलकर
शुक्रिया अदा करते रिहा हो रहा था मेरा
के कल रात फ़िर क़त्ल हुआ था मेरा
ख़ंज़र मेरे खून से रंगा हुआ था पूरा।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

एक छोटी सी कहानी : मुहब्बत

मोहब्बत.. दोनों को खींचकर एक-दूसरे के पास ले आईं थीं।
लड़के को उसकी ज़िस्म की मुहब्बत ने.. तो लड़की को उसकी दौलतमिज़ाजी ने।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

उसके ख़त लिफ़ाफ़ें में है तो

उसके ख़त लिफ़ाफ़ें में है तो
अच्छा है
दूरियां कुछ उससे बढ़ी है
फ़िर लम्बी सुकून सी है
अच्छा है
वो पुराने ज़िस्म की बातें
अँधेरी ख़ोखली सी वो
दस्तूरी सामाजी ख़्यालातें
उन सबसे आख़िर
कितना दूर निकल आया हूँ
नाजाने कैसे मैं
फिर ख़ुदको समेट पाया हूँ
ना पूछो अब मुझसे
उन ख़तों को कैसे चुराया है
हालतों को कैसे झूठलाया है
अब तो मरासिम से ही होकर
ख़्वाहिशों में गुजरती हैं रातें
फ़िर भी लगता है जैसे के सब
अच्छा है
उसके ख़त लिफ़ाफ़ें में है तो
अच्छा है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

अक्सर तय नहीं कर पाता हूँ मैं

अक्सर तय नहीं कर पाता हूँ मैं
लिखने से पहले कुछ
कितने ख़याल मर जाते हैं मेरे
सहम जाती हैं कितने ख़्वाबें
हाथों से क़लम भी छूटती है
ज़ुबान भी कट जाती है अक्सर
मैं जबतक सबकुछ समेटता हूँ
मेरी कविता से लापता हो जाती है
मेरी सोची हुई कविता की शीर्षक।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

एक अदब से उसने थप्पड़ मारा है

एक अदब से उसने थप्पड़ मारा है
फिर भी लगा.. मुझे बड़ा करारा है।

वो पत्थर भी मारेगा बताया है उसने
अभी तो उसने मुझे थोड़ा सुधारा है।

धुएँ में रोशनी अज़ीब लगती है ना
इश्क़ जैसे कोई मौसमे-बहारा है।

रात की ख़ामोशी में भागा था मैं भी
लोग अबतक हैं कहते के बेचारा है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

इश्क़ करते हो तो करो.. लेकिन ये याद रहे

इश्क़ करते हो तो करो.. लेकिन ये याद रहे
वो कोई गिला लेकर ना बैठ जाये तुमसे
तुम किसी आदत ना मुकर जाओ उससे
इश्क़ में तुम्हारे कोई दरार ना आये तुमसे
कभी वो आँखें नम ना हो जाये तुमसे
किसी दिन ऐसा ना हो कि तुम दग़ा करो
फिर वो अपनी आँखों से ख़ुश्क लहू बरसाए
वो लहू जो तुम्हारे ज़िस्म से चिपक जायेगा
तुम कुरेदोगे और वो तुममें जमता जायेगा
लोग हर बार देखकर तुमको पूछेंगे तुमसे
उस चेहरे के बारे में जो झलकेगा तुममें
तुम चीख़ोगे, चिल्लाओगे ख़ुदपे झुझंलाओगे
उसकी चुप्पियाँ हर बार कचोटती तुमको
तुम्हारे धड़कनो की धज्जियों को उड़ाऐगी
तुम्हारे ख़्यालों के खेत में उसकी सफ़ेद ओस
जो मुठ्ठियों में भरकर वो चाँद को सब बताऐगी
तुम कैसे देख पाओगे ये सब अपनी निगाहों से
अपनी वक़ालत में सबूतों को लेकर जो आओगे
क्या इस हालत में एक लफ़्ज़ भी बोल पाओगे
इश्क़ करते हो तो करो.. लेकिन ये याद रहे।

नितेश वर्मा



खूँ मेरे ज़िस्म से चिपकती गई सड़ने के बाद

खूँ मेरे ज़िस्म से चिपकती गई सड़ने के बाद
इक दाग़ फिर रह गया घाव उखड़ने के बाद।

कहते हैं सब के अब वो गुमशुदा सी रहती है
मुहब्बत में मुझे दग़ा देकर बिछड़ने के बाद।

मेरे भीतर भी मैं ही चीख़ता रहता हूँ देर तक
अकसर ज़माने से बे-इंतहा बिगड़ने के बाद।

पागल हो जाना चाहता था.. मैं भी आख़िर में
पत्थर उसके हाथों से सर पर पड़ने के बाद।

मेरे मरने पर ये किसको जीना आया था वर्मा
बेवज़ह इतने लाशों से लाश रगड़ने के बाद।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

एक छोटी सी कहानी: ओलंपिक

P.T. टीचर : बच्चों.. ये हम भारतीयों के लिए कितनी शर्मिंदगी की बात है कि इस बार भी हम ओलंपिक में मैडल नहीं जीत पाए।
अच्छा! ये बताओ क्या यहाँ कोई ऐसा है जो भारत के लिए ओलंपिक से मैडल लाने की ख़्वाहिश रखता हो।
बच्चे टीचर की बात सुनकर एक-दूसरे से काना-फूसी करने लगा तो टीचर ने कहा -
किसी से डरने या शर्मांने की कोई जरूरत नहीं है, जो ऐसा चाहता है वो बताएँ.. मैं उसकी मदद करूँगा, उसे वो भरपूर ट्रेनिंग देने की कोशिश करूँगा, जो हमारे वक्त में हमें किसी ने नहीं दिया था।
पीछे बैठे पप्पू ने फिर नि:संकोच हाथ उठाया- सर! मैं। मैं ले आऊंगा अपने देश के लिए ओलंपिक मैडल।
P.T. टीचर : शाबाश पप्पू। मैं तुम्हें..
अरे मिश्रा जी.. मैथ्स के राय सर ने अचानक क्लास में आते हुए कहा..
मिश्रा जी, वो प्रिंसिप्ल सर ने कहा है कि आपकी क्लास लेकर मैं अपनी सिलेब्स पूरी करा दूँ। आप कल से मेरी क्लास ले लीजियेगा.. आज तो बस आराम कीजिए.. जाइये.. हीही हीही।
मिश्रा जी क्लास छोड़कर जाने लगे तो देखा कि पप्पू उनकी तरफ़ बेपलक झपकाए बड़ी बेसब्री से देखें जा रहा है। मिश्रा जी ने ख़ुदसे शर्मां कर पप्पू से नज़रें फ़ेर ली और फिर ख़ुदको कोसते क्लास से बाहर चले गए.. ये बड़बड़ाते हुए.. भगवान जाने इस देश का क्या होगा?
..शायद फिर इस बार मैथ्स से ओलंपिक मैडल लाऐंगे.. हुम्म्म्म्म।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

तो बेवज़ह सरेआम इल्ज़ाम लगाते हो

तो बेवज़ह सरेआम इल्ज़ाम लगाते हो
इतनी ज़ाहिलियत कहाँ से ले आते हो।

यूं ख़ुदमें भी झांककर देखो इक दफ़ा
ये आईने में देखकर क्या चिल्लाते हो।

तुम्हें मंज़ूर नहीं खिलाफ़ती किसी की
फिर हरबार तुम पत्थर क्यूं उठाते हो।

जब बेहोशी से बाहर आओ, पुकारना
अभी तन्हा हो, ख़ुदको क्यूं जलाते हो।

मेरे भी अंदर चीख़ती रहती है ख़ामुशी
तुम ख़ुदको ही अज़ीब क्यूं बताते हो।

इन बारिशों को भी रुक जाना चाहिए
यारब इन पत्थरों को क्यूं तड़पाते हो।

मैला ज़िस्म था तुम्हारा, अब रहने दो
ये रो रोकर रूह को क्यूं नहलाते हो।

तुम ख़ुदमें ढूंढ लो तुम ख़ुदको पा लो
किसी को बेख़ुदी में क्यूं भटकाते हो।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

मैं अकसर ही ख़ुदको समेट लेता हूँ

मैं अकसर ही ख़ुदको समेट लेता हूँ
जब कोई आक्रोशित सी आवाज़
गुजरती है मेरे घर के दहलीज़ से
मैं उनपर थूकता भी नहीं
जो आग लगाकर निकल जाते हैं
मेरे मुहल्ले के तमाम घरों-दीवारों पर
मैं अपने उस अँधेरे से कमरे में
चीख़ता हूँ जो ख़ामोशी से भरकर
एक कौतूहल देखता हूँ मैं उनकी आँखों में
लपटों को हाथों में धू-धू जलता देखकर
जिन्हें याद आ जाता है दो पल को
अपना बसा-बसाया दूर का मुहल्ला कहीं।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

उसके चेहरे की उदासी परेशान करती रही मुझे

उसके चेहरे की उदासी परेशान करती रही मुझे
ज़िन्दगी दिन भी मौत तक हैरान करती रही मुझे।

मैं दूसरों के दर्द पर चीख़ता रहता था ख़लाओं में
मेरे हिस्से जो लिपटी तो बेज़ुबान करती रही मुझे।

मेरे किसी प्रयास में कोई ज़िद नहीं छुपी होती है
बस मेरी हार हर बार बद्ज़ुबान करती रही मुझे।

मेरे क़मरे में कोई तस्वीर नहीं है जो बयां करे तू
हाले-दिल मर-मर के मेहरबान करती रही मुझे।

कभी किसी शौक से लिपटकर थामा था तुमको
तुम्हारी तसव्वुर बारहां कद्रदान करती रही मुझे।

माना मेरे इश्क़ में फ़ासले थे..उसे लौट जाना था
फिर वो क्यूं अपने ही दरमियान करती रही मुझे।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

क़िस्सा मुख़्तसर : दाग़ देहलवी

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था



दाग़ देलहवी उर्दू अदब के एक बहुत ही बेहतरीन शायर हुआ करते है। दाग़ बचपन से ही ज़ख़्मों में पलते आये थे, बचपन में ही उनके वालिद की शीघ्र मृत्यु हो गई फ़िर माँ ने बहादुर शाह जफ़र के बेटे मिर्ज़ा फ़खरू से दूसरा निक़ाह कर लिया। उसी तरह कुछ समय के बाद उनके माँ का भी इंतक़ाल हो गया। एक के बाद एक.. परेशानी से दाग़ घिरे रहें। शायद, यही बाइस रहा कि उन्होंने अपना तख़्ललुस दाग़ रख लिया था। अग़र ज़ख़्म मिट भी जाएं तो दाग़ रह जाते हैं और वो हमें दाग़ की शायरी में बख़ूबी देखने को मिल जाती है। दाग़ साहब से जुड़ा एक बड़ा ही दिलचस्प क़िस्सा याद आ रहा है-
दाग़ अपनी अम्मी के इंतक़ाल के बाद रामपुर अपने मौसी के यहाँ चले गए.. और वहाँ उन्हें नर्तकी मुन्नीबाई से बेइंतहाई मुहब्बत हो गई। नर्तकी मुन्नीबाई लखनऊ के नवाब हैदर अली को बेहद अज़ीज थी तो दाग़ ने उन्हें एक शे'र लिखकर अपनी मुहब्बत का इज़हार कराया-
"दाग़ हिजाब के तीरे नजर का घायल है / आपके दिल को बहलाने को और भी सामां होंगे / दाग़ बिचारा हिजाब को न पाए तो और कहां जाए।"
नवाब साहब शायरी बख़ूबी समझते थे और शायरों का सम्मान भी ख़ूब किया करते थे, उन्होंने दाग़ के पैगाम का जवाब भिजवाया और कहा- दाग़ साहब! आपके शे'र से ज्यादा हमें मुन्नीबाई अज़ीज नहीं है, मुन्नीबाई आपको मुबारक़ हो।
लेकिन नवाब साहब के रज़ामंदी के बाद भी मुन्नीबाई नहीं मानी और दाग़ को तंगहाली में छोड़कर एक जवान से शादी कर ली। दाग़ मुन्नीबाई के इस बेवफ़ाई से काफ़ी बेज़ार रहने लगे। लेकिन उनका मज़ाकिया स्वभाव उस वक़्त भी उनसे छिप नहीं पाया था। मुन्नीबाई के निक़ाह के बाद उन्होंने एक ग़ज़ल लिख कर उन्हें भेजते हुए कहा-
"पति है तो क्या हुआ ग़ज़ल तो भेज ही सकता हूँ।"
ऐसे ख़ुशमिज़ाज शायर थे दाग़ साहब.. जो ज़िन्दगी के हर सफ़े पर इतनी आसानी और खूबसूरती से बयानबाजी करते थे।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

उस खुले से आँगन में चूल्हे फूँकते हुए

उस खुले से आँगन में चूल्हे फूँकते हुए
जब वो अपनी उड़ती आँचल को
आँधियों के भरकस कोशिशों से
बचाकर सर से लपेटकर बांध लेती है
और फिर एक फूँक भरकर गले से
चूल्हे में जो फूँक देती है
एक जान उसकी कुंठाओ की निकलती है
मानो बरसों से रूठी काली बादलों को
एक वज़ह मिल जाती हैं जैसे बरसने को
जो फिर घंटों बरसती हैं उसकी आँखों से
और उसके इस बेख़्याली के बाद भी
किसी शाम कोई शिकायत नहीं होती है
.. कि आज तेरे खाने में नमक कम है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

अब मुहब्बत से कहने को क्या है

अब मुहब्बत से कहने को क्या है
जो दिल नहीं तो रहने को क्या है।

गम-ए-सौदे में तेरा नाम आया था
दर्द आँखों से ये बहने को क्या है।

माना के ख़्वाहिशों का मुकाम था
दयारे-बज़्म भी सहने को क्या है।

समुंदर से ख़फ़ा होके वो सो गया
कश्ती को अब दहने को क्या है।

कोई बचाकर नाम रखा था वर्मा
शहरों में यूं घर ढ़हने को क्या है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

ज़िस्म से इतना जुदा हुआ के आँख लग गई

ज़िस्म से इतना जुदा हुआ के आँख लग गई
ख़्वाबों में जब उठके बैठा तो पांख लग गई।

मैं इतना थका था ख़ुदसे के होश ही ना बचीं
मैं चेहरा धोने को गया तो मुँह राख़ लग गई।

उसने सौदा किया फिर सारी रात चीख़ कर
सुब्ह उसको देखा तो ज़ुबाँ सलाख़ लग गई।

परिणाम मेरा ही बुरा हुआ इस बार भी वर्मा
दरख़्तों के हिस्सों को फिरसे शाख लग गई।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

बस उसे इतना ही बता पाया था के उससे दोस्ती है

हमारे मुहल्ले के अक्लमंद आशिक़ बताते हैं कि दोस्ती के लिए पीला गुलाब होता है और जब किसी से दोस्ती बढ़ानी हो तो शुरुआत पीले गुलाब से ही करनी चाहिए। अग़र किसी की तस्वीर देखकर उसकी आँखों में खोए रह जाए या उसपर कॅामेन्ट नाइस कहकर निकल जाएं और घंटों इस तलब बेचैन रहे कि वो कब लाइक कर उसे रिप्लाई करेगा.. तो उसे इससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। दोस्ती जतानी पड़ती है.. बतानी पड़ती है.. इसलिए कभी-कभार सो काल्ड आशिक़ के फ़ॅारमूले भी अपनानी पड़ती है। अभी टाइम है.. पीला गुलाब दे दीजिए नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब वो ख़ुद फिलिंग अमेज़िंग विथ समवन के स्टेटस में आपके साथ 98 लोगों को टैग करके बैठ होंगे और आप हर कॅामेन्ट पर लाल गुलाब की पंखुड़ियाँ नोंच रहे होंगे।

बस उसे इतना ही बता पाया था के उससे दोस्ती है
अब वो मुहब्बते हर दाव को भी समझती दोस्ती है।

नितेश वर्मा
#HappyFriendshipDay #Niteshvermapoetry

कविता लुप्त हो रही थी

कविता लुप्त हो रही थी
उस काल में
जब तुमने थामा था उसे
व्याकरण से छूटकर औंधे मुँह
गिरती उसकी लाचारियों को
अलंकार से पुनः
सुशोभित किया था
और कविता ने
तुमसे खिन्न होकर
तुम्हें यह श्राप दिया था कि
तुम अब सर्वदा सच बोलोगे।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

हम जवां आशिकों के मुहल्लों में

हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती
हमारे पास के किराने की दुकान
चौक पर बीड़ी-पान वाले से पहचान
शाम के लल्लन चचा के समोसे
सर्द बारिश में चाय की चुस्कियाँ
सबकुछ ये बेवज़ह के नहीं होते
कोई लड़की गुजरतीं है जो कभी
हमारे नज़रो से है वाहवाही होती
हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती

लड़कियाँ यूं मुहब्बत का इज़हार
ख़तों के सिलसिले का त्यौहार
नज़र नीचे करके चलने का विचार
लल्लन-छाप लड़को से अंधा प्यार
शायद ही कभी ये सब करती है
उन्हें पता हैं के वो है सही होती
हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती
गुलाबों की दिलचस्पी भी होती है
क़िताबों में उलझी वो भी होती है
ज़ुबाँ पर उनके भी नाम आता है
पर ख़ामोशी भी तो उनमें होती है
उन्हें सुनाया जाता है, रटाया जाता है
वक़्त आने पे घोल पिलाया भी जाता है
सब ग़लत जानकर भी है वो दबी होती
हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती

आवारा लड़को पर चीख़ना भी आता है
झुंझलाहट में सर पटकना भी आता है
हक़ के लिए भी अक़्सर लड़ जाती है
फूल सा होकर उन्हें महकना भी आता है
उन्हें ख़ीच भी आती है इस दकियानूसी से
उन्हें मुहब्बत भी आती है ख़ुशनसीबी से
फिर जाने उनमें कैसी ये है नमीं होती
हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती

फिर ये सब देखते-समझते हुए
आख़िर क्या हो जाता है हमको
क्यूं हम लांछन फ़ेंकते है उनपर
क्या वो अगला मुहल्ला मेरा नहीं
क्या वहाँ की लड़कियाँ अच्छी नहीं
हमें शायद अब ये मान लेना होगा
के उनको भी हैं हक़ हर शौक जीने को
कुछ ज़ुबानी क्यूं है अनकही होती
हम जवां आशिकों के मुहल्लों में
कोई लड़की बदसिरत नहीं होती

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

मैं सरहदों के बीच मुस्तैद होकर

मैं सरहदों के बीच मुस्तैद होकर
ख़ुद को हथियारबंद करकर
एक अम्न क़ायम करने की सोचता हूँ
मैं सोचता हूँ के मुल्कों के बीच
एक मशविरा हो.. सलाहियत हो..
एक-दूसरे पर सच्चा यक़ीन हो
लेकिन मैं कभी ख़ुदसे थक जाता हूँ
हार जाता हूँ ख़ुदके बनाए चोंचले से
इस पाखंडी से शक्ल को ओढ़कर
क्या ये सच नहीं है जहाँ मैं मौजूद हूँ
वहाँ सुकूँ से एक परिंदा भी पर
मारने की कोशिश नहीं करता है
क्या ये विद्रोह है मेरे इस हथियार का
या मैं किसी वीराने में भटक-भटकर
अपने अंदर ही कुछ तालाश रहा हूँ।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

कई दिनों से बतलाया जा रहा है हमें

कई दिनों से बतलाया जा रहा है हमें
सच बोलके झूठलाया जा रहा है हमें।

हमारे चेहरे पर कोई इश्तेहार लगा है
देख हर दफ़ा जलाया जा रहा है हमें।

क्यूं ख़ुदसे ही लड़कर चुप बैठे थे हम
क्यों गुमनाम दिखाया जा रहा है हमें।

अब कोई शर्मिंदगी नहीं है निगाहों में
बेग़ैरती ही जो बताया जा रहा है हमें।

संभालो के फिर से यूं फ़िक्र में है वर्मा
दर्दे-दवा,दुआ दिलाया जा रहा है हमें।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

हर वायदा झूठा निकला आख़िर

हर वायदा झूठा निकला आख़िर
वो शख़्स, वो शाम, वो ज़ुबान
सब.. सब झूठा निकला आख़िर

बेइंतहाई वो मुहब्बत की कसक
दोस्ती में थामी हर करीबी हाथ
निगेहबानियाँ.. ये हमनिशानियाँ
सब.. सब झूठा निकला आख़िर

महज़ ये चंद वक़्तों का फेर था
अपने काम के निकलने के बाद
वो ख़ामोशी में यक़ीन रखने लगा
फिर मेरा इस तरह से आकर
हर अंज़ाम बुरा निकला आख़िर
सब.. सब झूठा निकला आख़िर।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

अब मरहम भी क्या लगाना इस घाव पर

अब मरहम भी क्या लगाना इस घाव पर
शिकस्त तो फिर से खाये है इस दाव पर।

हर तरह से क़ाबिल-ए-तारीफ़ हैं ये मौज़ें
फिर शख़्स क्यों नहीं बैठता इस नाव पर।

जाने कब आग उठेगी ज़िस्म के दरम्यान
ज़िन्दगी भी ये गुजर जाये इस अलाव पर।

मुश्किल है, वो दौर फिर से लौट आने में
दिल हैंरा हैं ख़्वाहिशों के इस लगाव पर।

हर तरफ़ से लौट आया हूँ मैं खाली हाथ
शायद रुकना होगा मुझे इस पड़ाव पर।

मेरे भीतर कई शख़्स चीख़ते हैं रात-दिन
मुझे मरना आता है मेरे इस स्वभाव पर।

नितेश वर्मा

#Niteshvermapoetry