वासनाओं से लिप्त होकर वो ढूंढती है
पर-ज़िस्म के अंदर इक ठिकाना
जब हवस उसपर हावी हो जाता है
और अक्ल का संयमन टूट जाता है
इक विद्रोह खौलती है उसमें
लाज़ो-शर्म की लिपटी हुई नक़ाब
वो उतारकर कहीं दूर फ़ेंक देती है
बने-बनाये बंधनों से मुक्त होकर
वो उतर जाती है सुकूने-तलाश में
और भरती हैं अपनी इच्छाओं को
के फिर वो उस ज़ेहनियत से निकल
कुछ ऐसा ईज़ाद करे
कि उसकी अतृप्त वासनाओं का
कभी कोई मज़ाक ना बना बैठे कहीं।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
पर-ज़िस्म के अंदर इक ठिकाना
जब हवस उसपर हावी हो जाता है
और अक्ल का संयमन टूट जाता है
इक विद्रोह खौलती है उसमें
लाज़ो-शर्म की लिपटी हुई नक़ाब
वो उतारकर कहीं दूर फ़ेंक देती है
बने-बनाये बंधनों से मुक्त होकर
वो उतर जाती है सुकूने-तलाश में
और भरती हैं अपनी इच्छाओं को
के फिर वो उस ज़ेहनियत से निकल
कुछ ऐसा ईज़ाद करे
कि उसकी अतृप्त वासनाओं का
कभी कोई मज़ाक ना बना बैठे कहीं।
नितेश वर्मा
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