कडाके की गर्मी चल रही हैं। पूरा दिन परेशां रहनें पे घर में आओ तो ए सी भी वो सूकूं नहीं देती। खिडकियां खोलूं तो गर्म हवाएं जीं को बेरूख सी बना देती हैं। इस परेशानी में कुछ सूझता भी नहीं। अपना शहर भी अपना लगता नहीं। लेकिन आज़ बात इन सबसे अलग हैं। ठंडी हवाएं चल रहीं हैं, बारिशों के बूंदें खिडकियों से अंदर आ रहे हैं। अँधेरी रौशनी में धीमा बल्ब जल रहा हैं। चेहरें पे ना जानें कितने दिनों बाद ये सूकूं आया हैं और दिल आज़ बस अपनें शहर को जीनें में लगा हैं।
..ये बताना मुश्किल हैं..
..तुम हो मुझमें कैसे..
..ये दिखाना मुश्किल हैं..
..गर्म अँधेरी रातों में..
..होती हैं जैसे ठंडी फुहारों की बारिश..
..जी को होता हैं सुकूं कितना..
..समझाना मुश्किल हैं..!
..नितेश वर्मा..
..ये बताना मुश्किल हैं..
..तुम हो मुझमें कैसे..
..ये दिखाना मुश्किल हैं..
..गर्म अँधेरी रातों में..
..होती हैं जैसे ठंडी फुहारों की बारिश..
..जी को होता हैं सुकूं कितना..
..समझाना मुश्किल हैं..!
..नितेश वर्मा..
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