यह कविता उन लोगें के दयनीय स्थिति का वर्णन करती हैं जो अपनें ही बच्चों में भेद-भाव करतें हैं। क्या होता हैं जब वो देखतें हैं की वो अपनें बेटें के भविष्य को बनानें के चक्कर में अपने बेटी को ले डूबे हैं। समय आनें पे उनकी सोच गलत हो जाती है। उम्मीदें खाख़ हो जाती है। बेटे को पढा देंगे तो आगें वो भविष्य में भी काम आऐगा, बेटी की शादी भी करा देगा वगैहरा-वगैहरा। परंतु जहाँ तक हम देखे तो हमें अधिकतन यहीं सूचना प्राप्त होती हैं की वो किसी मजबूरी या फ़िर किसी माशूका की पल्लू से बँधें पडे हैं। ज़िम्मेदारियाँ निभानें में वो असमर्थ हैं। परंतु इस बात से किसका क्या बिगडेगा? बाप कुछ दिन सोचेगा, माँ रोतें-रोते मर जाऐगी, सगे-संबंधी को कोई मतलब नहीं और भाई तो डूबा पडा ही हैं। लेकिन बेटी इस चक्कर में पिसी जाऐगी। जो बच्ची बचपन से परित्याग करतें आई हैं आगें भी उसके किस्मत में दुखों का ही पहाड हैं। इसलिए आप अपनें बेटे को काबिल बनाओं पर बेटियों को इतना पढा-लिखा दो की वो ऐसा दिन कभी ना देखे ना आप उसकों दुखी देख चिंतित हो, आखिर वो भी आपके अपनें हिस्सें की हैं। शिक्षा इंसान को जीनें का महत्तव बताती एवं उस काबिल बनाती हैं कि आपकी बेटियाँ आसमानों पे नजर आती हैं।
..अंगन के कंघन बने नहीं.. [अंगन = स्त्री]
..पिया घर जानें हैं..
..माँ हैं बिलखी पडी..
..बाप महाजन के सहारें हैं..
..किस्मत की अडचन बखूबी हैं..
..भाई हैं बेबस..
..घर में बैठी जो बीबी हैं..
..हाथ उठा के कोई देता नहीं..
..किस्मत की हैं अभागन..
..बेटी जो घर ले डूबी हैं..
..कैसे बताऊँ सजाया मैनें जो बाग..
..सँवारें हर पत्तें को..
..टूटें हैं शाख कीमती थें जो हमारें..
..सब खुद से परेशां रहते हैं..
..बेटी हैं मेरी खामोश..
..निगाहें ये मेरे कहतें हैं..
..अँधेरें में ना जानें क्या करती हैं..
..भींगें हैं दामन उसके..
..आँखें ये कहती हैं..
..कैसे करू उसके हक में कुछ..
..आज सूझता नहीं..
..मैं हूँ बेबस खुदा ये समझता नहीं..
..जैसे-तैसे..
..कुछ खुदा तो कुछ खुद को कोस के..
..ब्याही बेटी ये सोच के..
..घर आँगन कहीं और के जाऐगी..
..बेटी मेरी बहू जैसी मेरी किस्मत पाऐगी..
..विदा किया तो आँखें भर आई..
..बेटी से आँखें ना मिल पाई..
..आँखें समुन्दर हो गई..
..दिल बे-अवाज़..
..मैंनें कब का उसे रूखसत कर दिया.. [रूखसत = विदाई]
..दिल पर फ़िर भी बैठें हैं गहरें पत्थर आज..!
..नितेश वर्मा..
..अंगन के कंघन बने नहीं.. [अंगन = स्त्री]
..पिया घर जानें हैं..
..माँ हैं बिलखी पडी..
..बाप महाजन के सहारें हैं..
..किस्मत की अडचन बखूबी हैं..
..भाई हैं बेबस..
..घर में बैठी जो बीबी हैं..
..हाथ उठा के कोई देता नहीं..
..किस्मत की हैं अभागन..
..बेटी जो घर ले डूबी हैं..
..कैसे बताऊँ सजाया मैनें जो बाग..
..सँवारें हर पत्तें को..
..टूटें हैं शाख कीमती थें जो हमारें..
..सब खुद से परेशां रहते हैं..
..बेटी हैं मेरी खामोश..
..निगाहें ये मेरे कहतें हैं..
..अँधेरें में ना जानें क्या करती हैं..
..भींगें हैं दामन उसके..
..आँखें ये कहती हैं..
..कैसे करू उसके हक में कुछ..
..आज सूझता नहीं..
..मैं हूँ बेबस खुदा ये समझता नहीं..
..जैसे-तैसे..
..कुछ खुदा तो कुछ खुद को कोस के..
..ब्याही बेटी ये सोच के..
..घर आँगन कहीं और के जाऐगी..
..बेटी मेरी बहू जैसी मेरी किस्मत पाऐगी..
..विदा किया तो आँखें भर आई..
..बेटी से आँखें ना मिल पाई..
..आँखें समुन्दर हो गई..
..दिल बे-अवाज़..
..मैंनें कब का उसे रूखसत कर दिया.. [रूखसत = विदाई]
..दिल पर फ़िर भी बैठें हैं गहरें पत्थर आज..!
..नितेश वर्मा..
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