Sunday, 14 August 2016

ख़तों जैसा अब कोई सिलसिला नहीं होता हैं

ख़तों जैसा अब कोई सिलसिला नहीं होता हैं
अक्सर हम बातें
सोशल-मीडिया पर करते हैं
अग़र वो रूठ जाती है
तो मैं घंटों उसे मैसेज़े्स करता हूँ
पोक करता हूँ या कभी-कभार फ़ोन
अग़र फिर भी वो ना माने तो
उसे किसी ग़ालिब के शे'र के साथ
विथ मी करके टैग कर देता हूँ
हालांकि वो रुठती है बहुत पर
मान भी जाती है जल्दी बहुत
और आप कहती है कि मैं
कभी उसे ख़त लिखके मनाकर देखूँ
दादी ज़माना बदल चुका है
अब वो पुरानी मुहब्बत नहीं रही
जो ख़तों में मीर, ग़ालिब या दाग़ को लाएँ
ना ही प्रेमिका को किसी शाम
किसी वीराने वादी में चुपके से बुलाए
मंदिर-मस्जिद में बेवज़ह का परिक्रमा
अब नहीं होता है किसी परिंदे से
और ना ही अब कहीं कोई
दिल क़िताबों के हेर-फेर से मिलते हैं
अब नहीं होती है वैसी जुनूनियत
और ना ही अब बची रही है
वैसी कोई अज़ीबोग़रीब मुहब्बत
ये ज़माना अब बहुत बदल चुका है.. यहाँ
ख़तों जैसा अब कोई सिलसिला नहीं होता हैं।

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

हुस्ने-उमर भी चढ़ती फ़िरे मुझपर

हुस्ने-उमर भी चढ़ती फ़िरे मुझपर
बदन-ए-लिबासे-ख़ूँ-तरसे मुझपर।

तन्हा हूँ मैं मुसाफ़िर इस सफ़र में
कोई बज़्म देखके ना थूके मुझपर।

मैं.. निबाहने शायद नहीं आया था
बे-बुनियाद ना बोझ रक्खे मुझपर।

बेहाल क्या होगा मेरे दिले आख़िर
जो, वो जुल्म ना कोई करे मुझपर।

अब लिपट जायेगा फिर से ख़ुदमें
ख़ुदके बाद जो नज़्रें ठहरे मुझपर।

मुश्ताक थे सब, बस तेरे नाम को
ये बेज़ारी-ए-आलम बरसे मुझपर।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

एक ख़्वाहिश फिर से उठती है

एक ख़्वाहिश फिर से उठती है
ये दिल फिर से भर जाता है
शिकायतों के गठ्ठर में
एक तिनका और बढ़ जाता है
परेशानी एक तस्वीर बनकर
मंडराती है मेरे सर के ऊपर
और मेरे दिल की आवाज़
चीख़ती है हर पल खुशियों को
फिर ख़ुदसे चुपचाप सुबककर
सो जाती है बेज़ुबान सी होकर।

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

आज जो हमारे दिल पर हक़ जतानेवाला है

आज जो हमारे दिल पर हक़ जतानेवाला है
कल वो शख़्स फिर बहुत याद आनेवाला है।

किसी नदी किनारे से कभी गुजरा था मैं भी
के हरेक कश्ती कहाँ उस पार जानेवाला है।

अब वो ख़्वाहिश भी ऐसी थी कि मैं क़ैद था
अग़र रिहा होता तो कहते के मरनेवाला है।

यूं कल फिर उसके याद में शाम गुजारी थी
आज फिर वो ख़्वाबों में मुझे सतानेवाला है।

मेरे हाथ में कोई ख़त बेशक़ कभी नहीं था
ख़ंज़र है पास माँगो ये दिल भी देनेवाला है।

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

इन आदतों में अब वो कहीं नहीं है

इन आदतों में अब वो कहीं नहीं है
और ना ही उसका कोई ज़िक्र
ना ही अब वो याद आती है मुझे
और ना ही अब कभी
उसकी गली से गुजरता हूँ मैं
वो एक वक़्त था जब
धड़कने देखके उसे धड़कती थी
बिना बोले कोई समझता था मुझे
कोई मुझमें भी मौजूद रहता था
कोई इन निगाहों को भी पढ़ता था
बिना वजह की बात क्या होती है
किसी मौजूं पे बहस कैसे होती है
शाम चायो के बीच कैसे गुजर जाती है
ख़्वाबों से भी ज़्यादा क़रीब जब
ख़्वाबों की शहजादी नज़र आती है
जब मुहब्बत.. इक़रारी.. बेफिक्री..
बेतकल्लुफ़ी सब बेज़ुबानी होती हैं
ख़तों में जैसे कोई रवानी होती हैं
पर सबकुछ अब जैसे भूल बैठा हूँ मैं
जबसे वो बयां करके गईं हैं मुझसे
कोई है - जो है सबसे बेहतर
वो होना चाहती हूँ उसकी.. उम्म्म
शायद मुझसे भी थोड़ा ज्यादा
मैं अब बदल चुका हूँ यक़ीनन और
आदतें भी बदलीं है तमाम बोझिल
मग़र अब इतना तो पता है कि
इन आदतों में अब वो कहीं नहीं है
और ना ही उसका कोई ज़िक्र
ना ही अब वो याद आती है मुझे
और ना ही अब कभी
उसकी गली से गुजारता हूँ मैं।

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

मेरा किसी रोज़ दिल का टूटकर देखना मुझे

मेरा किसी रोज़ दिल का टूटकर देखना मुझे
रोना आता है ख़ुदसे ही छूटकर देखना मुझे।

मैं फिर से तुम्हें पा लेने की कोशिश करूँगा
तुम एक बार फिर से पलटकर देखना मुझे।

मैं इतमीनान के तलाश में दौड़ता हूँ बेवक़्त
यूं तुम भी कभी ख़ुदसे कटकर देखना मुझे।

मैं कलतक घायल था पर अब चिड़चिड़ा हूँ
अब मत कभी दुबारा झपटकर देखना मुझे।

मैं बेपरवाह ज़रुर था, पर ग़ैरज़िम्मेदार नहीं
किसी पल मुझसे भी लिपटकर देखना मुझे।

अब किसपर मैं यक़ीन करूँ तू ही बता वर्मा
ज़माने का मुझसे ही दूर हटकर देखना मुझे।

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

क़िस्सा मुख़्तसर : मुंशी प्रेमचंद

प्रेमचंद जिनको कथा-सम्राट कहा जाता है, अग़र वो ना होते तो शायद ही कोई होता जो हमें हमारी हिन्दी की क़िताबों से बाँध पाता। उनकी कहानियाँ क्लासों के बदलने के साथ-साथ इतने करीब आती रहीं कि पता ही नहीं चला कि कब उनमें दिलचस्पी होने लगी और कब हम हिन्दी के हो गए। प्रेमचंद के बारे में एक क़िस्सा याद आ रहा है - उनकी पहली शादी के एक वर्ष बाद उनके पिता का इंतक़ाल हो गया और उनपर घर का सारा-का-सारा बोझ आ गया, उस समय प्रेमचंद की उम्र क़रीबन १४ वर्ष थी। इधर उनकी पढ़ाई अधूरी थी और ऊपर से ये बड़ी ज़िम्मेदारी.. प्रेमचंद इन सबको लेकर परेशान रहने लगे। लेकिन परेशानी से कोई समाधान नहीं निकला तो उन्होंने अपना पसंदीदा कोट ले जाकर बाज़ार बेच दिया। इस तरह कुछ दिनों तक घर का ख़र्च चला लेकिन कोई स्थायी समाधान नहीं हो पाया। पैसों के ख़त्म हो जाने पर फिर से वहीं समस्या आ गई और इधर प्रेमचंद के प्रयासों के वावज़ूद भी उन्हें कोई काम नहीं मिल पा रहा था। इन बढ़ती परेशानी और समस्याओं से तंग आकर एक दिन प्रेमचंद अपनी सारी क़िताबों को कपड़े में लपेटकर रद्दी वाले के पास पहुँच गए उसको बेचने। जब वो उन क़िताबों को छाँटकर बेच रहे थे तभी एक स्कूल के हेडमास्टर आएँ और उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और उन्हें अपने स्कूल में प्राध्यापक की नौकरी दे दी।
बस, कभी-कभी ये सोचकर डर लगता है कि अग़र प्रेमचंद ने उस दिन उन क़िताबों को बेच दिया होता तो आज हमारा क्या होता?

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

रूठा ही क्यूं रह गया वो मुझसे

रूठा ही क्यूं रह गया वो मुझसे
क्यूं कुछ ना कह गया वो मुझसे
वो है गुमसुम तो जी मचलता है
क्यूं इतना दूर है गया वो मुझसे

वो ख़्वाहिश था वो ख़्वाब भी है
वो प्यास भी था वो सराब भी है
वो समुंदर था वो एहसास भी है
वो ज़िस्म मेरा.. वो नक़ाब भी है

वो हरकतों का मुझमें सैलाब था
बारिशों से बनता एक तालाब था
वो मेरे शामों का भी दस्तक था
लगा नहीं कभी के वो ख़राब था

हँसीं हरपल उसका मिज़ाज था
शाइरों के दिल का वो दराज़ था
वो सुबह का कोई ओस भी था
मेरे मर्ज़ का वोही इक इलाज़ था

फिर आख़िर वो क्यूं चला गया
ऐसे अचानक वो क्यूं रुला गया
क्या जाना ही था उसको दूर यूं
या बेवज़ह था मुझे बहला गया

रूठा ही क्यूं रह गया वो मुझसे
क्यूं कुछ ना कह गया वो मुझसे
वो है गुमसुम तो जी मचलता है
क्यूं इतना दूर है गया वो मुझसे।

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

कुछेक बेईमान भी तो थे हमारे आँगन में

कुछेक बेईमान भी तो थे हमारे आँगन में
बेवज़ह हंसे थे कल हम तुम्हारे आँगन में।

तुम्हारे भी छत से तो सब कुछ दिखता हैं
ये पता हमें आज चला है हमारे आँगन में।

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

वो कविता मुकम्मल नहीं थी

वो कविता मुकम्मल नहीं थी
एहसास वो सारे अधूरे थे
फिर भी बस एक क़िताब
बनाने की ज़िद में
मैंने बेच डाला था-
उसकी तमाम ख़तों को,
उसकी ख़्वाहिशों को,
हर सफ़े को,
उसकी हर आश्नाई को
और फिर अब जाकर ये
इस आलिशान से
मक़ान में
मेरा दम घुटता हैं
मैं अब हर जगह
ढूंढता हूँ उसे
और सोचता हूँ के
काश!
वो मिल जाए कहीं से
कभी मेरे रोशनाई को।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

उस शाम सबकुछ सही हो रहा था

उस शाम सबकुछ सही हो रहा था
हल्की बारिश हो रही थी
थोड़ा धूप था
आसमान बिलकुल साफ़ था
फ़िर नाजाने तुम्हें सोचकर क्या हुआ
कुछ अल्फ़ाज़ मेरे दिल के भींग गए
लब कुछ लफ़्ज़ों पर यूं ही ठहर गए
मैं सवालों के कटघरे में तुम्हें देखकर
ऐसे अंदर तक फूट कर रो पड़ा
जैसे बारिश की बूंदें पड़ती है पत्तों पर
ज़मीं को बेइंतहा प्यासा छोड़कर।

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

Nitesh Verma Poetry

‪#‎Nanotale‬ :-

Writer-1: Hie..! I'm in love.
Writer-2: Who is she?
Writer-1: She is the poem in itself.

Nitesh Verma

वो एक बहुत ही हसीन दौर था

वो एक बहुत ही हसीन दौर था
जब तुम अकसर याद आया करती थी
मेरे ख़्वाबों की तुम तस्वीर सजाती थी
अपनी बाहों की उंगलियों को
कभी मेरी उंगलियों से उलझाती थी
तो कभी अपनी जुल्फें संवारती थी
और यूं कभी जो जी में आएँ तो
मेरी बालों में एक लहर लाती थी
अपनी उंगलियाँ फ़िराती थी
फिर अकसर ख़ामोश हो जाती थी
जो किसी शाम तुम मिलने आती थी
बहारों की गुलाबी सौगात लाती थी
चाय की ग़र्म चुस्कियों में
सर्दियों के घने कोहरे के धुंध में
तुम्हारी मरहबी लबों की ज़िक्र में
एक शख़्स मैं कबसे क़ैद था
बेज़ुबाँ.. बेशिक़ायत.. बेदाग़.. था
फिर भी एक बाइस रहा था ये
वो मेरा तुमपे यक़ीन-ए-मर्ज़-ए-तौर था
वो एक बहुत ही हसीन दौर था
जब तुम अकसर याद आया करती थी।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

कई लोग, कई बातें

कई लोग, कई बातें
एक सफ़र, कई रातें
मुसाफ़िर ये जहान
शख़्स सारे बेज़ुबान
जैसे मिट्टी के मकान
है नैन परिंदे ये उड़ान
अक्सर हैं हार जाते
रेगिस्तान में बरसातें
कई लोग, कई बातें
एक सफ़र, कई रातें

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

बेक़ारी सही थी पहले इस ज़िस्म की

बेक़ारी सही थी पहले इस ज़िस्म की
रोज़गार में है अब किस्म-किस्म की।

ये पर्दा उठेगा कभी तो रु-ब-रु होंगे
दरीचे के पीछे की उस तिलिस्म की।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

मंसूब तुम्हारे भी ठीक नहीं निकलें अब शर्म करो

मंसूब तुम्हारे भी ठीक नहीं निकलें अब शर्म करो
यहाँ इंसान मरते हैं और तुम्हें इंसाफ़ नहीं मिलता।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

यहाँ तक की कविताओं के

यहाँ तक की कविताओं के
भी अर्थ होते हैं
ये मनगढ़न्त कहानियाँ भी
मानी लेकर बैठी होती हैं
यूं सवालों में भी कई
उद्देश्य उलझे से होते हैं
इस दुनिया में
अर्थहीन और निरर्थक
कुछ भी नहीं..
ये मेरी ज़िन्दगी भी नहीं
मैं आत्महत्या नहीं करूँगा
कमसेकम इस हार के
लिए तो कभी नहीं
क्योंकि इसमें भी कई
अर्थ उलझे हुए हैं
और जब-तक इन्हें
मैं समझ ना लूं
मैं लौटकर नहीं जाऊंगा
इस अर्थहीन हार के साथ
तो कभी नहीं..
मैं आत्महत्या नहीं करूँगा
क्योंकि ये ज़िन्दगी मेरी
अर्थहीन नहीं।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

कुछ कहना नहीं होता है उनका

कुछ कहना नहीं होता है उनका
ख़ोया दिल कहीं होता है उनका।

वो बारिश में भींगती नहीं है अब
ज़िक्रे-ज़बाँ वहीं होता है उनका।

सर्दियाँ उनसे कोसों दूर होती है
ये जो धूप ज्योंहीं होता है उनका।

जो बात फिर से हम करेंगे वर्मा
ग़र्दे-हाल त्योंहीं होता है उनका।

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

कितना तन्हा था कितना रोया हूँ मैं

कितना तन्हा था कितना रोया हूँ मैं
ख़ुदको भी पाके ख़ुदसे खोया हूँ मैं।

जो पलकों पे थे ख़्वाब आँसू हो गए
नैना समुन्दर कहाँ अब सोया हूँ मैं।

मुझे फिर से वो राह नज़र आ जाएं
मिट्टी में जहाँ कहीं हीरा बोया हूँ मैं।

ना ही तलब है औ' ना ही बेज़ार हूँ
मुझे ख़ुद नहीं पता क्या होया हूँ मैं।

उसकी बातों का यक़ीं होना ही था
वो कहती थी जो मुझसे ज़ोया हूँ मैं।

क़ीमत कल तक ये मेरी ख़ाक थी
अब मोतियों के साथ पिरोया हूँ मैं।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

क़िस्सा मुख़्तसर: भगवान श्रीकृष्ण की लीला

श्रीकृष्ण बाल्यावस्था की बात है- जब भगवान श्रीकृष्ण के शरारतों से यशोदा मैया परेशान हो उठती तो उन्हें रस्सी से लपेटकर आँगन के एक कोने में बाँध देती। एक दिन ऐसे ही उनके किसी शरारत से तंग आकर यशोदा मैया ने उन्हें आँगन में बाँध बिठाया था, लेकिन उस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने कोई विरोध नहीं किया और चुपचाप कोने में सर झुकाएँ बैठे रहे..ना ही कुछ बोला और ना ही कोई ज़िद या रोना-धोना किया। यशोदा मैया भगवान के इस रूप को देखकर बार-बार व्याकुल हो उठती मग़र उस दिन तो भगवान श्रीकृष्ण लीला करने को बैठ गए थे। यशोदा मैया को अक्सर ये ड़र सताया करता था कि कन्हैया के जन्म के बाद से ही कितने राक्षसों ने उनके लाल पर हमला किया और उनसे उनको अलग करना चाहा.. इसलिए वो जब भी कान्हा को थोड़ा सा भी बदलते देखती वो ड़र जाती।
अब कन्हैया को वो वैसे हालत में नहीं देख पा रही थी.. उन्होंने माखन को एक तरफ़ किया और भगवान श्रीकृष्ण की ओर चली गई। जब उन्होंने आकर रस्सी खोला तो भगवान उन्हें देखकर अपना मुँह दूसरी तरफ़ करके गुस्से में बैठ गए.. यशोदा मैया ने अपने लाल के मुख को अपने हाथों में लेते हुए उनसे पूछा- क्या हुआ कान्हा?
इसपर भगवान श्रीकृष्ण बोल पड़े- मैया! बलराम दाऊ सब ग्वाल-बालों के सामने मुझे कहते हैं कि मैं आपका और बाबा का पुत्र नहीं हूँ। केवल वे आप दोनों के पुत्र हैं इसलिए उनका वर्ण गौर है बिलकुल आपके और बाबा की तरह..और मैं तो श्याम वर्ण का हूँ। और वो तो यह भी कहते है कि आपने मुझे मोल लिया है और मैया जब वो यह बात सारे ग्वाल-बालों के सामने करते हैं तो वो चुटकी बजाकर मेरा उपहास उड़ाते हैं। मुझे नचाते हैं और मुस्कुराते हैं। इस पर भी तू मुझे ही मारने को दौड़ती है मुझे ही रस्सियों से बाँध देती है दाऊ को तू कभी कुछ नहीं कहती। अब तो मुझे भी लगता है कि तू मेरी मैया नहीं है।
भगवान श्रीकृष्ण की इस बात पर यशोदा मैया रीझ जाती है फिर वो भगवान श्रीकृष्ण को समझाकर कहती है - तेरे बलराम दाऊ तो बचपन से ही बड़े चुगलखोर और धूर्त है, कान्हा तू उनकी बातें पर यक़ीन क्यूं करता है, मैं ही तेरी मैया हूँ।
जब भगवान इस सब पर भी नहीं माने तो यशोदा मैया ने सारी गायों की सौगंध खाईं और कहा- कान्हा अब तो मान लें कि मैं ही तेरी मैया हूँ और रूठना छोड़ दे।
भगवान श्रीकृष्ण यशोदा मैया की इस व्याकुलता और अधीरता को देखकर मान लेते है कि वो ही उनकी मैया है और फिर अपनी मैया से माखन की ज़िद करने लगते है।
यशोदा मैया भगवान श्रीकृष्ण के इस लीला पर भाव-विभोर हो जाती है। आकाशमार्ग से देवता भगवान के इस लीला को देखकर पुष्प वर्षा करते हैं, समस्त संसार इस सौंदर्य से प्रकाशमान हो जाता है।

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

मैं हर रोज़ लिखने की कोशिश नहीं करता हूँ

मैं हर रोज़ लिखने की कोशिश नहीं करता हूँ
और ना ही कभी मैं इन लफ़्ज़ों को कुरेदता हूँ
मैं अनायास ही कुछ लिखने नहीं बैठ जाता हूँ
और ना ही मैं कोई अहम सा मुद्दा छिपाता हूँ
मुझे कई बातें कई रातें सोने नहीं देती है अब
अकसर परेशां रहता हूँ जबसे हुआ है ये सब
जब आहत होता हूँ या ग्लानि से भर जाता हूँ
थोड़ा लिखता हूँ फिर ख़ुद में ही मर जाता हूँ
यूं अंदर-ही-अंदर अनसुल्झे सवाल जन्मते हैं
फिर मैं समाजी ढ़ांचे पर ख़ुद को परखता हूँ
मैं हर रोज़ लिखने की कोशिश नहीं करता हूँ
और ना ही कभी मैं इन लफ़्ज़ों को कुरेदता हूँ।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

अब कहाँ जाऊँ, मैं फिर ढूंढने ख़ुदको..

अब कहाँ जाऊँ, मैं फिर ढूंढने ख़ुदको..
कल छोड़ आया था तेरे सरहाने ख़ुदको।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

परिन्दे जब शाम होते ही लौट आते हैं

परिन्दे जब शाम होते ही लौट आते हैं
मेरे आँगन के उस आख़री कोने में
जहाँ से वो ख़ुदको महफ़ूज़ पाते हैं
झांकते हैं, अपनी थकन को ओढ़े जो
मैं बेपलक झपकाए तक़ता हूँ उन्हें
जाने वो क्या ढूंढते हैं इन दिशाओं में
और जाने वो क्या पूछते हैं हवाओं से
जब निगाहें यूं टकरा जाती हैं हमारी
वो बेफ़िक्री से अपनी गर्दन झुकाकर
उस ओट पे हल्की चोंच मार देते हैं
फिर छत से तुम्हारे.. आँगन में मेरे
कोई इशारों भरी आवाज़ होती है
मैं फिर सबकुछ भूलके खो जाता हूँ
उन काली घनी ज़ुल्फ़ों के बादलों में
जहाँ सिर्फ़ हमारे बुने सारे ख़्वाब
हक़ीकत से मिलने बेसब्री से आते हैं
बिलकुल उसी तरह.. जैसे..
परिन्दे जब शाम होते ही लौट आते हैं
मेरे आँगन के उस आख़री कोने में।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

उसने पूछा था कि आख़िर समझते हो ख़ुदको क्या

उसने पूछा था कि आख़िर समझते हो ख़ुदको क्या
मैंने तो उससे इतना भी ना कहा उससे तुमको क्या।

है हश्र क्या ये हुआ अब कोई आकर हमसे ना पूछे
वो चाँद आँगन में आके अब देखता है मुझको क्या।

फिर आश्नाई फिर से मुहब्बत ये कहाँ लाये हो तुम
ये दिल अब बंज़र ज़मीं है पानी करेगा इसको क्या।

है अज़ीब ये दस्तूर मेरा मरना भी तय था एक दिन
ग़ुलाम ज़िंदगी नहीं तो फिर करूँ क़ैद तुझको क्या।

कितना बेज़ार हुआ हूँ ये आख़िर सब जानने लगे है
वो भी देख पूछती है ये आख़िर हुआ है उसको क्या।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

मैं अपने कमरे के विशालकाय खिड़की से

मैं अपने कमरे के विशालकाय खिड़की से
अक्सर बाहर देखता हूँ
और सुनता हूँ
रोज़ की उन उठती अज़ानों को,
मंदिरों की आरतियों को.. घंटियों को..
मैंने ना ही कभी कमरे में आती
सूरज की किरणों को रोका हैं
और ना ही शर्माते चाँद को
बादलों में छुपते देखकर कोई भेद खोला है
और ना ही बारिश की बूंदों से
ख़ुदको छिपाने की नाकाम कोशिश की है
और ना ही उस चोर को किसी रात
उस खिड़की से गुजरते देखकर चुप रहा हूँ
मैंने ख़ुदको उस खिड़की से जोड़कर रखा था
कमसेकम कलतक तो जरूर
पर अब सबकुछ बदल गया है यहाँ तक की मुझे मेरी गली से
हर रोज़ सुबह गुजर जाने वाली
वो खूबसूरत लड़की को भूल जाना होगा
और सब्जी लेकर गुजरता वो ढीठ लड़का
जो मेरी ही माँ से दो-दो रूपये को लड़ता है
उसके चिल्लाहट से बस कुछ राहत होगी
पर.. फिर..
पड़ोस के वो काका भी याद नहीं आऐंगे
जो अक्सर क्रिकेट की ख़बरें सुनाने आ जाते है
माँ ने मुझे फुसलाते हुए कल शाम
ये बतलाया था कि एक समझदार आदमी ने
मेरे पापा को एक गहरी बात समझाई है कि- आपके भी खिड़की के सामने
एक विशालकाय, ग़ैर-मज़हबी खिड़की है
उसको तोड़ दीजिए या फिर
अपनी खिड़की के जगह दीवार चढ़ा लीजिए।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

यूं ही एक ख्याल सा..

कल ही देखा था तुम्हें.. शायद तुम भूल गयी हो मुझे, अगर मैं तुम्हें याद नहीं तो बहोत अच्छा बहाना बनाने लगी हो तुम। मुझे पता है जैसे मैं तुम्हें नहीं भूल सकता ठीक उसी तरह तुम भी मुझे कभी नहीं भूला सकती। वो बात अलग है तुम्हारी दिखावे करने की आदत और भी कहीं बेहतर हो गयीं होगी। किसी को जानते हुए, किसी को देखते हुए, सब समझते हुए, तुम्हारा नज़रअंदाज हो जाना.. किस कदर मुझे बेचैन कर दिया करता था, इसे तुम शायद कभी ना समझ पाओ।
हर वक़्त जिस तरह तुम्हें बेहतर बनने की आदत होती ठीक उसी तरह मुझे भी तुम्हें चाहने, तुम्हें पा लेने की, एक कशिश खिंचती रहती। मैं तुम्हें अपना बना कर रखने की हर नाकाम कोशिश करता और तुम्हें इसकी कभी कोई परवाह ही नहीं होती, क्योंकि तुम तो अजीबोग़रीबों चेहरे से हर वक़्त घिरी रहती थीं। मुझे तो कभी-कभी तुमसे चिढ़न होने लगती, मगर हर बार की तरह मेरी मोहब्बत ही मेरे गुस्सों पर भारी पड़ जाती थीं।
जाने क्यूं तुम्हारी नज़रें एक पल को मुझपर ठहरती फिर घंटों मुझे एक मीठी सी एहसास में तड़पाती रहती। मैं तुम्हें बेहिस चाहता था तब भी और आज भी। बस, वहीं प्यार लिये खुद में जिंदा हूँ, इस इंतजार में - के फिर अगली बार जो कभी मिलोगी तो मुझे देखकर किस कदर हैंरान हो जाओगी और फिर मैं भी घंटों तुम्हारे चेहरे को लिये खुद में परेशान रहूँगा तुम्हारी बताईं हुई इस बात में..
मेरी आँखों में - की सबसे सुंदर तुम्हारी आँखें हैं, तुम्हारी आँखें जैसे बातें करती हैं। कोई, कुछ भी कहें, कमसेकम मुझसे तो जरूर किया करतीं हैं, इनमें डूबने का दिल होता हैं और फिर इनमें ठहर जाने का, मगर हिम्मत नहीं होती कभी।
और फिर मैं हमेशा की तरह तुम्हारी तस्वीर को लिये गाने को उतारूँ हो जाऊँगा - आए! हाय! तेरी बिंदया रे।
देखो अब शाम भी ढल गयीं है, तुम्हारी याद में.. तुम्हारी बात में।

नितेश वर्मा

अक्सर पत्थर मारते थे साये मुझपर

अक्सर पत्थर मारते थे साये मुझपर
अँधेरे में कई मशालें जलाये मुझपर।

मेरी बेचहरगी का ज़िक्र करते है वो
क्या ज़ुर्म है कोई ये बतलाये मुझपर।

उस यक़ीन का क्या होगा अब यहाँ
असर नहीं करती हैं हवाये मुझपर।

और सब पुराना हो गया तेरे बाद यूं
फिर जिल्द क्यूं है वो चढ़ाये मुझपर।

तफ़्तीश की उम्मीद से बैठे रहे वर्मा
मीर सा कोई शे'र कहलाये मुझपर।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

यूं निकालकर रख दिया है दिल तेरे सामने

यूं निकालकर रख दिया है दिल तेरे सामने
ये वाजिब है.. अब के तेरा फिर लौट जाना।

यूं मुकर कर जाना तेरा फिरसे ग़लत होगा
ये मुमकिन नहीं अब मेरा फिर लौट जाना।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

तलाशते फिर मरेंगे इस प्यास में हम

तलाशते फिर मरेंगे इस प्यास में हम
सराब कहीं ठहरेगी इस आस में हम।

मुद्दा हर दफ़ा उठाते है ख़िलाफ़ तेरे
ताउम्र रहेंगे फिर यूं एहसास में हम।

मुझको समझ नहीं मैं शर्मिंदा भी नहीं
चीख़ती हैं आवाज़ें, है ख़रास में हम।

उखाड़ कर हर दफ़ा रख दिया गया
निकल आये फिर फूल घास में हम।

नासमझ कहने पर यूं क्या कहें वर्मा
क्या पता उन्हें है उनके साँस में हम।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

मुझे अब ज़रुरत नहीं है तुम्हारे ये हौसले अफ़ज़ाई की

मुझे अब ज़रुरत नहीं है तुम्हारे ये हौसले अफ़ज़ाई की
मुहब्बत के यक़ीन की और ना ही कोई आश्नाई की
ना ही मैं अब तुमसे कोई उम्मीद रखता हूँ इन निगाहों में
ना ही कोई गिरफ़्त है ना ही कोई क़ैद है मेरी बाहों में
मैं ख़ुशग़वार सही तुम मेरे किसी दर्द के चाराग़र नहीं
उलझे थे कहीं दिन-ए-सुखन मेरे, है कही दिले-दरार नहीं
कबतक मैं ख़ुदको एक साये से यूं बेवज़ह बांधे रखता
तुम बदल गए, मैं भूल गया ये कसमें दे दे के दुहाई की
मुझे अब ज़रुरत नहीं है तुम्हारे ये हौसले अफ़ज़ाई की
मुहब्बत के यक़ीन की और ना ही कोई आश्नाई की।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

क़िस्सा मुख़्तसर : मंटो

सआदत हसन मंटो की कहानियाँ जितनी ख़बरों में रही, उतना उनका कोई क़िस्सा नहीं रहा। मंटो ख़ुदको कहानियों से घेरे रखते थे, दरअसल मंटो कहानियों में ज़िंदा रहते थे। एक बार का एक वाक़्या याद आ रहा है - उस रात, मंटो देर रात तक एक कांफ़्रेस में उलझे रहे थे। लोगों के बहसों के बीच रहकर उन्होंने कुछ अपनी बात रखी और कुछ उनकी भी सुनी-समझी। यह बात हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के विभाजन के कुछ समय के बाद की थी, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के लोग मंटो को अपना हिस्सा मानते थे, मग़र उस रात के बातचीत के बाद लोगों ने मंटो में अपनी दिलचस्पी कम कर दी। फिर एक सुबह मंटो जब घर से निकले तो एक समाचार- पत्र वाले ने उनसे मुख़ातिब होकर पूछा - ज़नाब, आज से कुछ महीनों पहले आपने जो मुद्दा उठाया था, उसे लेकर जो बहस हुआ था, उसके परिणाम की बात और फलाना-फलाना।
मंटो पहले से उलझे हुए थे उन्होंने मज़ाकिये होते हुए उस रिपोर्टर से पूछा - ज़नाब! कल रात आपने कौन सी ब्रांड पी थी?
रिपोर्टर हैंरत में आकर पूछता है - मतलब, क्या है ज़नाब आपका? मैं आपको ऐसा दिखता हूँ।
फिर मंटो बड़े आराम से उसे समझाते है - ज़नाब! मैंने कल रात देशी पी थी और वो भी पव्वा भर जो अबतक उतर चुकी है, अब आप मुझसे कोई भी फ़िज़ूल बात नहीं उगलवा सकते, अग़र कुछ मसालेदार ख़बर चाहिए तो दिन ढ़लने के बाद एक अध्धा और कुछ क़बाब लेकर मेरे दौलतख़ाने पर आइये।
[मंटो शराब अक्सर जानी वॅाकर की पीया करते थे, मग़र ख़राब हालात से मज़बूर होकर वो बाद में देशी दारु भी पीने लगे थे।]

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

मैंने उतना ही उसको जाना था

मैंने उतना ही उसको जाना था
जितना के इश्क़ में निभाना था।

वो कभी फूल तो कभी मोम थी
यूं मुझे भी छूके उसे शर्माना था।

वो ख़यालों की रात बनके आईं
मेरा भी उसमें एक ज़माना था।

कभी छूके देखा था उसको जो
नजाने कौन हँसीं वो बहाना था।

फिर से वो लौट के आयी वर्मा
इक उम्र ने आके पहचाना था।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

हासिल कर लूंगा कुछ मैं भी बिगाड़ कर उसको

हासिल कर लूंगा कुछ मैं भी बिगाड़ कर उसको
फिर मैंने भी रख दिया यूं तोड़-ताड़ कर उसको।

वो ताउम्र अपने हक़ की आवाज़ उठाता रहा था
मैं फिर लौट आया घर मिट्टी में गाड़ कर उसको।

किसी ने फेंक दिया था के कहीं बर्बाद हो जाएं वो
और एक मैं के उठा लाया फिर झाड़कर उसको।

वो गिरेबां पकड़ता है जब भी वो परेशान होता है
एक आवाज़ चीख़तीं है फिर दहाड़ कर उसको।

उसने अपने ज़मीर का सौदा किया था मत भूलो
एक शख़्स और निकलेगा फिर फाड़कर उसको।

मैं क्यूं बताऊँ कि मुझे उससे कोई हमदर्दी भी है
मैं ख़ुदको पूरा करता रहा जोड़-जाड़ कर उसको।

उसके शक्ल से नाजाने किसकी बू आती रही थी
मैं नाजाने किसको ढूंढता रहा कबाड़ कर उसको।

वो एक फूल था मुझसे तो ये बर्दाश्त ना हुआ वर्मा
मैं अब खुश हूँ ज़मीन से पूरा उखाड़ कर उसको।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

उस पर मेरी बातों का असर हुआ नहीं

उस पर मेरी बातों का असर हुआ नहीं
वो कहीं गई नहीं, और मैं भी मरा नहीं।

यूं लानत भेजकर फ़ेंका था उसने मुझे
मैं फिर भी लौट आया कहीं गया नहीं।

मैं मुख़ालफ़त करता रहा हूँ कंकड़ों से
मैंने तो आईने से कभी कुछ कहा नहीं।

मैं कभी मुकम्मल ना हुआ इश्क़ में तेरे
दिले-ज़ख़्म को तुमने भी तो सहा नहीं।

इस तरह से वो नज़रअंदाज़ करते रहे
मृगतृष्णा मंज़र और कोई प्यासा नहीं।

ज़ुबान का अकसर मुकर जाना बेहतर
हालात से बढ़के यहाँ कोई सज़ा नहीं।

अपने नसीब के जरिये पा लूंगा मैं उसे
पर है, कोई चीज़ जो मुझे मिलता नहीं।

मैंने सब मिटा दिया बस ख़ुदको छोड़
होश आया तो देखा, मैं भी ख़ुदा नहीं।

मिलना था जो कभी उनसे हमें ऐ वर्मा
सायों ने कहा, के वो तुमसे ज़ुदा नहीं।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

यूंही एक ख़याल सा..

वो मुझमें ख़ुद को तलाशती रहती और मैं हमेशा उसकी निगाहों से बचकर भाग जाया करता। वो मुझसे एक क्लास ज्यादा पढ़ीं थी और मेरा पढ़ना.. ना पढ़ना.. सब बराबर था। वो उम्रदराज लगती थी और मैं उसके उम्र का एक हिस्सा। वो काफ़ी ज़ेहनियतपसंद थी और मैं बहुत ही आवारा। वो मुझसे मुहब्बत अकसर निगाहों से किया करती थीं और मैं उसके लंच-बॅाक्स से। वो बातें कम किया करती थी और मुझे सुनना ज्यादा पसंद करती थी। मैं उसकी क़िताबें अकसर अपने साथ घर ले आता और उनमें लिखें अपने हर नाम के ऊपर उसका नाम चढ़ा देता। मैं बहुत ही बेवकूफ़ था, नासमझ था लेकिन मैं कभी नज़रअंदाज़ नहीं था। मैंने उसकी मुहब्बत को कभी मिटाया नहीं, उसे काट-काटकर अपने नाम से अलग़ नहीं किया। मैंने तो ख़ुदको उसके नाम के साथ मिला आया था, उससे दिल लगा आया था। मग़र ना वो मुझसे कुछ कह पाईं और ना ही मैं कभी ज्यादा समझदार बना। और एक आखरी बात.. वो बहुत हसीन थी और मैं उसका एक उलझा एहसास जो अब तक उससे रिहा नहीं हुआ।

नितेश वर्मा और वो।

एक ख़्वाहिश, एक नाम

एक ख़्वाहिश, एक नाम
चाय की चुस्की और एक शाम
रेडियो पे गूंजते पंचम के धुन
तेरी तस्वीर, कोहरे और धुंध
बस के पीछे विंडो की सीट
हाथों में उलझीं वही इयरफ़ोन
अकेले फिर वो लम्बी मक़ाम
तुम.. तुम.. और तुम्हारी जाम
एक ख़्वाहिश, एक नाम
चाय की चुस्की और एक शाम

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

माना के लगाया हर इल्ज़ाम सही नहीं है

माना के लगाया हर इल्ज़ाम सही नहीं है
ज़ुर्म थोपा था मुझपे ये काम सही नहीं है।

यूं अपने हक़ लेने जो पहुँचे तेरे शह्र हम
लगा तेरे दर पे भी इंतज़ाम सही नहीं है।

फैला था हर ओर एक ही अँधेरा वहाँ भी
चराग़ जल उठे ये इंतक़ाम सही नहीं है।

उनके आँसूओं का हिसाब करने लगे थे
मग़र अब ये ले जाओ जाम सही नहीं है।

फ़ैसला सुनाने वाले मुँह तक़ते रहे वर्मा
अब सच सुनो तेरा अंज़ाम सही नहीं है।

नितेश वर्मा

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क़िस्सा मुख़्तसर : साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम

साहिर अकसर अमृता से मिलने उनके घर आ जाया करते थे.. आते और फिर ख़ामोशी से एक सोफ़े पर बैठ जाते। घंटों उन दोनों के बीच कोई बात नहीं होती, साहिर चुपचाप सिग्रेट जलाते और फिर उसे आधा पीकर बुझा देते। अमृता कभी-कभार उनसे कुछ पूछ लिया करती, कुछ चाय-नाश्ते का पूछ लेती, कोई कांफ़्रेंस की बात छेड़ लेती.. मग़र साहिर कुछ नहीं कहते.. बस मुस्कुरा भर देते, वे एक ज़ेहनियतपसंद इंसान थे। यही बाइस रहा था कि अमृता ने कई ज़गह अपने मुहब्बत का इक़रारनामा लिखा था, और साहिर उनके लिए एक नज़्म भी नहीं बुन पाये थे।
साहिर की मुहब्बत.. ख़ामोश मुहब्बत थी.. वो उनके अंदर चीख़ती थी और चीख़कर फिर ख़ामोश हो जाती थी। साहिर, अमृता से ताउम्र जुड़े रहें, उनसे मिलते रहे, मग़र उनके कभी हो ना सके। अमृता, साहिर के लिए ही ज़िंदा थी वर्ना तो वो अपनी ही जिंदगी में कई दफ़ा मरी थी, वो मरती.. साहिर आकर फिर उन्हें ज़िंदा कर जाते। साहिर सच में जादूग़र थे और अमृता सच में कोई जादू की पुड़िया। साहिर और अमृता अब नहीं है, मग़र यक़ीन नहीं होता के ऐसे लोग इतनी तल्ख़ ज़िंदगीयाँ जीकर मरे है।

नितेश वर्मा

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बड़े बेफ़िक्र थे तेरे आँगन चराग़ मेरे

बड़े बेफ़िक्र थे तेरे आँगन चराग़ मेरे
आँधियाँ उड़ा ले गईं सारे सराब मेरे।

उस मकान में और भी लोग रहते हैं
देखेंगे अब वो अंदाज़-ए-ख़राब मेरे।

अब कहीं और ये क्या मिलना उनसे
इन्हीं निगाहों में रहते है मेहताब मेरे।

इन अल्फ़ाज़ों से उसे बयां कर दूँ मैं
सामने लाओ प्याला-ओ-शराब मेरे।

कोई ख़त कैसे मैं नाशुक्राई में लिखूँ
सीने के अंदर हैं यूं जवाँ क़िताब मेरे।

ये ग़म भी रहा मुझे मरने तलक वर्मा
बेशर्मी ने दिए मुझे कई ख़िताब मेरे।

नितेश वर्मा

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क्या हुआ अगर दर्द में हूँ मैं

क्या हुआ अगर दर्द में हूँ मैं
यूं हर आग, हर सर्द में हूँ मैं।

मुझे तकलीफ़ की आदत है
हर औरत, हर मर्द में हूँ मैं।

मुझे खौफ़ सताती है रातों में
बेफ़िक्री के हर ज़र्द में हूँ मैं।

ये मुमकिन है वो लौट आये
यूं उसके भी हमदर्द में हूँ मैं।

वो पुरानी सी तस्वीर है वर्मा
उसपे लगा हर ग़र्द में हूँ मैं।

नितेश वर्मा

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यूं थोड़े से उधारी में जीते हैं लोग

यूं थोड़े से उधारी में जीते हैं लोग
कभी-कभार ही तो पीते हैं लोग।

अब ग़रीबी ना सताएँ तो क्या हो
कहाँ ग़मे-हिज़्र में मरते हैं लोग।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

ये ख़्वाहिशें फ़िर से मकान बनाने लगे हैं

ये ख़्वाहिशें फ़िर से मकान बनाने लगे हैं
हौसले फ़िर पत्थरों से सर लड़ाने लगे हैं।

अब हालांकि हो भी क्या सकता है, यहाँ
तल्खियाँ जब ख़ुद से सहम जाने लगे हैं।

मुद्दतों बाद उस तस्वीर का ज़िक्र हुआ
अफ़वाह आईं के वो हमें भूलाने लगे हैं।

अब उसे ग़वाह की आरज़ू है, क्या करें
ख़ुदके क़त्ल में जो सूली चढ़ाने लगे हैं।

बड़े मुनासिब थे सफ़र में वो लोग वर्मा
जो अब पागल होके हमें रुलाने लगे हैं।

नितेश वर्मा

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एक छोटी सी प्रेम-कहानी : युसूफ़-ज़ुलेखा

पहले तो मुझे बेहद शर्मीला लगा था वो।
कौन?
कौन क्या? वही, जो कल दरवाज़े तक आ गया था। शुक्र मनाओ अब्बू नहीं थे, वर्ना जिन पैरों से चलकर आया था ना, उससे वापस नहीं जाता।
हुम्मम।
हुम्मम, क्या? दरवाज़ा खटखटाया - जब मैंने खोला तो पूरी बेशर्मी से उसने पूछ दिया - यहाँ जुलेख़ा रहती है ना।
मैंने थोड़ा सोचते हुए - हाँ कह दिया।
फ़िर?
फ़िर क्या? उसने कहा - उनसे कहियेगा- मैं उनको सिर्फ़ ये बताने आया था कि- मेरा नाम युसूफ़ है।

नितेश वर्मा

शिकायत नहीं है ये बस बता रहा हूँ तुम्हें

शिकायत नहीं है ये बस बता रहा हूँ तुम्हें
तुम्हारी हर ग़ल्तियों से बचा रहा हूँ तुम्हें।

मैं सरेआम पत्थर पर उंगली नहीं उठाता
बंद कमरे में फिर क्यूं जला रहा हूँ तुम्हें।

कई अज़ीब वाक़ये हुए ज़िन्दगी में हमारे
यूं कई तरीके से मैं भी भूला रहा हूँ तुम्हें।

अब मानता हूँ मैं भी कि मुहब्बत नहीं है
अंजाम-ए-शिकस्त मैं दुहरा रहा हूँ तुम्हें।

नितेश वर्मा

वो आखरी गुनाह भी मेरे सर पे ही रख दो

वो आखरी गुनाह भी मेरे सर पे ही रख दो
कुछ इस तरह कहो की सब कुछ कह दो।

इस मतलबी जहां में कौन तुम्हारा सगा है
क़त्ल ख़ुदका करके तुम उन्हें बड्डप्पन दो।

किसी मकाँ में दो अलग बिस्तर थे कुछ यूं
आरज़ू बहुत थी सोने की पर मना कर दो।

हमने भी क्या ख़ाक ख़्वाहिशें पाली हैं वर्मा
ज़िंदगी के कमीज़ को कुछ कम दरद दो।

नितेश वर्मा

इक ख़्वाहिश में लिपटा मैं कबसे हूँ

इक ख़्वाहिश में लिपटा मैं कबसे हूँ
इस तरह ख़ुदसे बिखरा मैं कबसे हूँ।

मेरे सराहने ख़्वाब आती हैं रातों में
पर नाजाने बेहोश पड़ा मैं कबसे हूँ।

बारिशें बहुत अजीब लगती हैं अब
भींगता तेरे दर पे खड़ा मैं कबसे हूँ।

समुंदर भी पंख चाहतें है उड़ने को
परिंदों से हुनर माँगता मैं कबसे हूँ।

ये जो भी तुम अब समझते हो मुझे
ये सब नजाने समझता मैं कबसे हूँ।

ख़ुदा गवाह हैं मेरी इंसाँ-दोस्ती का
तमाम आँसूओं में बयां मैं कबसे हूँ।

उस मुहब्बत का मिलना भी क्या है
करके इबादत जो रोता मैं कबसे हूँ।

लिहाफ़ सर्दियों में कहाँ नसीब वर्मा
इस जिस्म को उधेड़ता मैं कबसे हूँ।

नितेश वर्मा और मैं कबसे हूँ।

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ये हँसीं जिन्दगी तुमपर कोई व्यंग्य नहीं है

ये हँसीं जिन्दगी तुमपर कोई व्यंग्य नहीं है
जो दर्द देखकर हंसे वो ये मरहम नहीं है।

आसमान में कैद हैं, फ़िर भी है घुटन नहीं
ये सब समझ का फ़र्क़ है मर्ज़ कम नहीं है।

दुनिया ये इतनी बेईमान लगती है अब मुझे
मेरी सच्चाई में शायद अब वो दम नहीं है।

फ़िक्रे-इश्क़ को कौन समझ पाया है यहाँ
उन्हें लगता है के अब मुंतज़िर हम नहीं है।

यहाँ अब लोग मज़हबी बसने लगे हैं वर्मा
के अब यहाँ कोई भी दहरो-हरम नहीं है।

नितेश वर्मा

उतने ही ख़्वाब को जिन्दा रखो

उतने ही ख़्वाब को जिन्दा रखो
अग़र जी सको तुम यहाँ
तो ख़ुद को जिन्दा रखो
कोई तस्वीर कब तक याद हो
यादाश्त ये संभाल सको
तो ख़ुद को जिन्दा रखो
सब सब्र-बेसब्र बेचैन रहते हैं
मुतमईन तुम हो सको
तो ख़ुद को जिन्दा रखो
कितने ही गुलाबों को समेटा हैं
उन काँटों से बच सको
तो ख़ुद को जिन्दा रखो
किसी कैद में जीये तो क्या है
बग़ावत कभी कर सको
तो ख़ुद को जिन्दा रखो
माना के ख़्वाब आख़िर टूटेंगे
ख़्वाहिशों से लड़ सको
तो ख़ुद को जिन्दा रखो
उतने ही ख़्वाब को जिन्दा रखो
अग़र जी सको तुम यहाँ
तो ख़ुद को जिन्दा रखो।

नितेश वर्मा

सुना है तस्बीह में मुझे पढ़ती है आप

सुना है तस्बीह में मुझे पढ़ती है आप
फ़िर मुझसे क्यूं नहीं कहती है आप।

आपसे हमें मुहब्बत क्यूं ना हो जाए
ग़ज़ल की दीवान सी लगती है आप।

इस हुस्न को देख कौन ना मरा जाए
जब मुझमें ही महकी रहती है आप।

इक इश्क़ का बुखार है, समझते हैं
इस जिस्म में कही सुलगती है आप।

हुज़ूम भी आपके पीछे चल पड़े ये
अब ख़ुदको क्या समझती है आप।

बस मुझे अब ख़ुदमें समेट लें वर्मा
कहाँ यूं हर वक़्त भटकती है आप।

नितेश वर्मा और आप।

मुझमें इतनी भी अब हिम्मत नहीं है

मुझमें इतनी भी अब हिम्मत नहीं है
बयां कर सकूँ ये वो मुहब्बत नहीं है।

ये चिराग़ रोशन नहीं होंगे रोशनी में
ख़्वाब है सबकुछ, हक़ीकत नहीं है।

अब ये उम्मीद ही टूट जाये तो क्या
नाउम्मीदी से मुझे अज़ीयत नहीं है।

दायरे किस कदर दरम्यान लाती है
फ़ासले में कुछ भी किस्मत नहीं है।

एक इबादत ही थी जो याद है वर्मा
ये ज़िन्दगानी कोई कहावत नहीं है।

नितेश वर्मा

कई दिनों से एक फ़िक़्र सताई जा रही है

कई दिनों से एक फ़िक़्र सताई जा रही है
हुनरमंदी आज सरेआम दबाई जा रही है।

कब तक वो आख़िर ख़ुदसे परेशां रहेगा
हर रोज़ उसकी बात दफ़नाई जा रही है।

मिला था तो अच्छा ही लग रहा था वो भी
ये तू ख़ुदको क्यूं इतना तरसाई जा रही है।

अग़र ये मुहब्बत भी जिस्मानी है तो क्या
यूं इससे कौन सी आग लगाई जा रही है।

अब इतने सन्नाटे में भी कौन चीख़ें वर्मा
जब ख़ामुशी से रोशनी बुझाई जा रही है।

नितेश वर्मा

अकसरियत रातों को बहुत जद्दोजहद होती है

अकसरियत रातों को बहुत जद्दोजहद होती है
इन काग़जों और उन स्याह क़लमों के बीच
मेरे ये अधूरे ख़्वाब, ख़्वाहिशात और ख़्याल
जो अब बहुत सारे शक्लों में तब्दील हो गए हैं
एक खामोशी ढूंढते है अकसर मेरे अंदर ही
किसी मोहग्रस्त उतराव-चढ़ाव से परे हैं ये
मग़र यक़ीनन निर्मोही होकर भी मोह में है
मुझको तलाशते है और मुझमें ही तृष्णाते हैं
जब भी ये शाम ढलके कमरे में रात आती है
एक जद्दोजहद बेमर्जी सर पर चढ़ जाती है।

नितेश वर्मा

मेरा ये कविता लिखना बेमक़सद है

मेरा ये कविता लिखना बेमक़सद है
जब तक वो ख़ुदकी सच्चाई छिपाएँ
किसी डर से या अपनी कमाई से
रोज़गार के आडे या भूख के ख़ौफ़ से
वो ख़ुद का अस्तित्व खोये या फिर
अपनी सौंदर्यता को नियंत्रित कर ले
मेरे हिसाब से तो बस -
कविता तभी लिखी जानी चाहिए जब
वो हर मामलात में सबसे स्वतंत्र हो
कविता आईने की तरह साफ़ हो
वो कही बात को उजागर करे या फिर
कविता को ख़ामोश ही रहना चाहिए
मेरा ये ख़ुदसे लड़ना बेमक़सद है
ये कविता मेरी जब तक बनावटी है
मेरा ये कविता लिखना बेमक़सद है
ये कविता मेरी जब तक बनावटी है।

नितेश वर्मा