Sunday, 14 August 2016

इक ख़्वाहिश में लिपटा मैं कबसे हूँ

इक ख़्वाहिश में लिपटा मैं कबसे हूँ
इस तरह ख़ुदसे बिखरा मैं कबसे हूँ।

मेरे सराहने ख़्वाब आती हैं रातों में
पर नाजाने बेहोश पड़ा मैं कबसे हूँ।

बारिशें बहुत अजीब लगती हैं अब
भींगता तेरे दर पे खड़ा मैं कबसे हूँ।

समुंदर भी पंख चाहतें है उड़ने को
परिंदों से हुनर माँगता मैं कबसे हूँ।

ये जो भी तुम अब समझते हो मुझे
ये सब नजाने समझता मैं कबसे हूँ।

ख़ुदा गवाह हैं मेरी इंसाँ-दोस्ती का
तमाम आँसूओं में बयां मैं कबसे हूँ।

उस मुहब्बत का मिलना भी क्या है
करके इबादत जो रोता मैं कबसे हूँ।

लिहाफ़ सर्दियों में कहाँ नसीब वर्मा
इस जिस्म को उधेड़ता मैं कबसे हूँ।

नितेश वर्मा और मैं कबसे हूँ।

‪#‎Niteshvermapoetry‬

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