परिन्दे जब शाम होते ही लौट आते हैं
मेरे आँगन के उस आख़री कोने में
जहाँ से वो ख़ुदको महफ़ूज़ पाते हैं
झांकते हैं, अपनी थकन को ओढ़े जो
मैं बेपलक झपकाए तक़ता हूँ उन्हें
जाने वो क्या ढूंढते हैं इन दिशाओं में
और जाने वो क्या पूछते हैं हवाओं से
जब निगाहें यूं टकरा जाती हैं हमारी
वो बेफ़िक्री से अपनी गर्दन झुकाकर
उस ओट पे हल्की चोंच मार देते हैं
फिर छत से तुम्हारे.. आँगन में मेरे
कोई इशारों भरी आवाज़ होती है
मैं फिर सबकुछ भूलके खो जाता हूँ
उन काली घनी ज़ुल्फ़ों के बादलों में
जहाँ सिर्फ़ हमारे बुने सारे ख़्वाब
हक़ीकत से मिलने बेसब्री से आते हैं
बिलकुल उसी तरह.. जैसे..
परिन्दे जब शाम होते ही लौट आते हैं
मेरे आँगन के उस आख़री कोने में।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
मेरे आँगन के उस आख़री कोने में
जहाँ से वो ख़ुदको महफ़ूज़ पाते हैं
झांकते हैं, अपनी थकन को ओढ़े जो
मैं बेपलक झपकाए तक़ता हूँ उन्हें
जाने वो क्या ढूंढते हैं इन दिशाओं में
और जाने वो क्या पूछते हैं हवाओं से
जब निगाहें यूं टकरा जाती हैं हमारी
वो बेफ़िक्री से अपनी गर्दन झुकाकर
उस ओट पे हल्की चोंच मार देते हैं
फिर छत से तुम्हारे.. आँगन में मेरे
कोई इशारों भरी आवाज़ होती है
मैं फिर सबकुछ भूलके खो जाता हूँ
उन काली घनी ज़ुल्फ़ों के बादलों में
जहाँ सिर्फ़ हमारे बुने सारे ख़्वाब
हक़ीकत से मिलने बेसब्री से आते हैं
बिलकुल उसी तरह.. जैसे..
परिन्दे जब शाम होते ही लौट आते हैं
मेरे आँगन के उस आख़री कोने में।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
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