Sunday, 14 August 2016

मैं अपने कमरे के विशालकाय खिड़की से

मैं अपने कमरे के विशालकाय खिड़की से
अक्सर बाहर देखता हूँ
और सुनता हूँ
रोज़ की उन उठती अज़ानों को,
मंदिरों की आरतियों को.. घंटियों को..
मैंने ना ही कभी कमरे में आती
सूरज की किरणों को रोका हैं
और ना ही शर्माते चाँद को
बादलों में छुपते देखकर कोई भेद खोला है
और ना ही बारिश की बूंदों से
ख़ुदको छिपाने की नाकाम कोशिश की है
और ना ही उस चोर को किसी रात
उस खिड़की से गुजरते देखकर चुप रहा हूँ
मैंने ख़ुदको उस खिड़की से जोड़कर रखा था
कमसेकम कलतक तो जरूर
पर अब सबकुछ बदल गया है यहाँ तक की मुझे मेरी गली से
हर रोज़ सुबह गुजर जाने वाली
वो खूबसूरत लड़की को भूल जाना होगा
और सब्जी लेकर गुजरता वो ढीठ लड़का
जो मेरी ही माँ से दो-दो रूपये को लड़ता है
उसके चिल्लाहट से बस कुछ राहत होगी
पर.. फिर..
पड़ोस के वो काका भी याद नहीं आऐंगे
जो अक्सर क्रिकेट की ख़बरें सुनाने आ जाते है
माँ ने मुझे फुसलाते हुए कल शाम
ये बतलाया था कि एक समझदार आदमी ने
मेरे पापा को एक गहरी बात समझाई है कि- आपके भी खिड़की के सामने
एक विशालकाय, ग़ैर-मज़हबी खिड़की है
उसको तोड़ दीजिए या फिर
अपनी खिड़की के जगह दीवार चढ़ा लीजिए।

नितेश वर्मा

‪#‎Niteshvermapoetry‬

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