Sunday, 14 August 2016

अकसरियत रातों को बहुत जद्दोजहद होती है

अकसरियत रातों को बहुत जद्दोजहद होती है
इन काग़जों और उन स्याह क़लमों के बीच
मेरे ये अधूरे ख़्वाब, ख़्वाहिशात और ख़्याल
जो अब बहुत सारे शक्लों में तब्दील हो गए हैं
एक खामोशी ढूंढते है अकसर मेरे अंदर ही
किसी मोहग्रस्त उतराव-चढ़ाव से परे हैं ये
मग़र यक़ीनन निर्मोही होकर भी मोह में है
मुझको तलाशते है और मुझमें ही तृष्णाते हैं
जब भी ये शाम ढलके कमरे में रात आती है
एक जद्दोजहद बेमर्जी सर पर चढ़ जाती है।

नितेश वर्मा

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