Sunday, 14 August 2016

क़िस्सा मुख़्तसर : मुंशी प्रेमचंद

प्रेमचंद जिनको कथा-सम्राट कहा जाता है, अग़र वो ना होते तो शायद ही कोई होता जो हमें हमारी हिन्दी की क़िताबों से बाँध पाता। उनकी कहानियाँ क्लासों के बदलने के साथ-साथ इतने करीब आती रहीं कि पता ही नहीं चला कि कब उनमें दिलचस्पी होने लगी और कब हम हिन्दी के हो गए। प्रेमचंद के बारे में एक क़िस्सा याद आ रहा है - उनकी पहली शादी के एक वर्ष बाद उनके पिता का इंतक़ाल हो गया और उनपर घर का सारा-का-सारा बोझ आ गया, उस समय प्रेमचंद की उम्र क़रीबन १४ वर्ष थी। इधर उनकी पढ़ाई अधूरी थी और ऊपर से ये बड़ी ज़िम्मेदारी.. प्रेमचंद इन सबको लेकर परेशान रहने लगे। लेकिन परेशानी से कोई समाधान नहीं निकला तो उन्होंने अपना पसंदीदा कोट ले जाकर बाज़ार बेच दिया। इस तरह कुछ दिनों तक घर का ख़र्च चला लेकिन कोई स्थायी समाधान नहीं हो पाया। पैसों के ख़त्म हो जाने पर फिर से वहीं समस्या आ गई और इधर प्रेमचंद के प्रयासों के वावज़ूद भी उन्हें कोई काम नहीं मिल पा रहा था। इन बढ़ती परेशानी और समस्याओं से तंग आकर एक दिन प्रेमचंद अपनी सारी क़िताबों को कपड़े में लपेटकर रद्दी वाले के पास पहुँच गए उसको बेचने। जब वो उन क़िताबों को छाँटकर बेच रहे थे तभी एक स्कूल के हेडमास्टर आएँ और उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और उन्हें अपने स्कूल में प्राध्यापक की नौकरी दे दी।
बस, कभी-कभी ये सोचकर डर लगता है कि अग़र प्रेमचंद ने उस दिन उन क़िताबों को बेच दिया होता तो आज हमारा क्या होता?

नितेश वर्मा
‪#‎Niteshvermapoetry‬

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