Sunday, 14 August 2016

यूंही एक ख़याल सा..

वो मुझमें ख़ुद को तलाशती रहती और मैं हमेशा उसकी निगाहों से बचकर भाग जाया करता। वो मुझसे एक क्लास ज्यादा पढ़ीं थी और मेरा पढ़ना.. ना पढ़ना.. सब बराबर था। वो उम्रदराज लगती थी और मैं उसके उम्र का एक हिस्सा। वो काफ़ी ज़ेहनियतपसंद थी और मैं बहुत ही आवारा। वो मुझसे मुहब्बत अकसर निगाहों से किया करती थीं और मैं उसके लंच-बॅाक्स से। वो बातें कम किया करती थी और मुझे सुनना ज्यादा पसंद करती थी। मैं उसकी क़िताबें अकसर अपने साथ घर ले आता और उनमें लिखें अपने हर नाम के ऊपर उसका नाम चढ़ा देता। मैं बहुत ही बेवकूफ़ था, नासमझ था लेकिन मैं कभी नज़रअंदाज़ नहीं था। मैंने उसकी मुहब्बत को कभी मिटाया नहीं, उसे काट-काटकर अपने नाम से अलग़ नहीं किया। मैंने तो ख़ुदको उसके नाम के साथ मिला आया था, उससे दिल लगा आया था। मग़र ना वो मुझसे कुछ कह पाईं और ना ही मैं कभी ज्यादा समझदार बना। और एक आखरी बात.. वो बहुत हसीन थी और मैं उसका एक उलझा एहसास जो अब तक उससे रिहा नहीं हुआ।

नितेश वर्मा और वो।

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