Sunday, 31 August 2014

अच्छा लगा [Achha Laga]

हुआ दिल परेशान तो आँखों में आँसू अच्छा लगा
जैसे कडी धूप में था तो हुआ बारिश अच्छा लगा

सब संग-ए-मर-मर की तालाश में निकलते गए
मगर मुझे तो वही मेरा इक मकाँ अच्छा लगा

दौलत के नशें में चूर सब खून-खराबें को उतर आए
मगर माँ की थीं जो नसीहत वही मुझे अच्छा लगा

अब क्या परहेज़ करके रक्खूं ख्याल अपना ही मैं
ग़र घुट-घुट के जीना हो तो मरना ही अच्छा लगा

सौ बार कहकर जो जुबाँ से पलट कर निकले अपनें
इस ग़म में चेहरें पे खिला मुस्कान तो अच्छा लगा

आशिकों की महफिल से गुजर के अब क्या देखना
तिरंगें में लिपटा हो लाश ख्वाब इक ये अच्छा लगा

नितेश वर्मा


Saturday, 30 August 2014

खंजर कई [Khanjar Kai]

बेसबर चले आ रहे है मौत के मंजर कई
निकालें थें जो मैंनें मासूम पे खंजर कई

दिल की गहराइयों पे भी वो उखडा सा है
इक मासूम चेहरा जिनपे सजे है पहरें कई

मान लिया जो सबनें बेटियां बेगानी ही हैं
घुट के मरे कही रक्खे है बंद कमरें कई

वो उडता परिंदा भी अब बेचैंन-सा रहता हैं
ढूंढता है जीभर सुकूँ लिये खुद की नजरे कई

इस सोच को भी दरिया में मिला आता तू
अपना नहीं यहाँ जब दौलत को पडे हो कई

बेगानों की बस्ती से गुजरना भी जरूरी था
अपनों ने भी तो मारें थे गालों पे तमाचें कई

नितेश वर्मा

दिल की खराश [Dil Ki Kharash]

पत्थर चोट और दिल की खराश
ईश्क में हुएं कैसे दो-दिल बर्बाद

थामां दामन और सँभाली हर जुबां
रिश्तों में लगा कैसे मतलबी धुंआ

शहर नया और परदेशी चेहरें सभी
हुआ कत्ल और निकले अपने सभी

खामोश हर्फ और बेबस इंसा लगे
अपराध में फँसे तो जाँ-से-जाँ लगे

दिल बिखरा तो लगी ये हैंरत कैसी
टूटना ही था टूटे कोई वजह कैसी

आज़माईश की अब ना ये दौर है
अपने लिये है खंज़र यही शोर है

नितेश वर्मा

Thursday, 28 August 2014

कर गए [Kar Gaye]

वो आँखों से अपनें इक इशारा कर गए
मुझे अवारा समझ वो किनारा कर गए

चेहरें पर लिये गुलाब अभ्भी वो बैठे है
इक इंतजार को है और बेसहारा कर गए

सीनें में राज़ ही राज़ दबाएँ रक्खें है
सीनें से जो लगाया तो नाकारा कर गए

इक उमर से बची कैसी ये चाह थीं
उनकी वो नज़र उठी और शायराना कर गए

सारें हम-उम्र मेरें कहाँ तक पहोच गए
उठाया सबने आँख और हम हर्जाना कर गए

नितेश वर्मा


Tuesday, 26 August 2014

इंतजार था [Intezaar Tha]

मुझे अब किस बात का इंतजार था
कहूँ जो मैं तेरे साथ का इंतजार था

तुम तो हसरतों में भी थीं गुमशुदा
मुझे तो बस दीदार का इंतजार था

गुनाहों की बात प्यार में ही क्यूं की
था कातिल मैं जुल्म का इंतजार था

आग लगे तो इस जमानें की आँख को
क्या इसे मेरी ही मौत का इंतजार था

तुमने भूलाया जो मैं घर से बेघर हुआ
शायद कही इसे तेरे ना का इंतजार था

हर हर्फ एहसान-फरामोश निकल गयी
कहाँ उसे कभी उस रात का इंतजार था

नितेश वर्मा

Monday, 25 August 2014

मिला [Mila]

दिल था जो बदनाम मेरे काम का मिला
मैंनें जो हाथ छुडाया खंज़र इनाम का मिला

मेरे बारें में ना जिक्र किया करो तुम
हर्श बेहर्श मैं कैसे तेरे जाम का मिला

बहोत की कोशिशें और फिर नाकारा गया मैं
धूँधली आँखें और बेसबर रस्ता शाम का मिला

टटोल के जो देखा ता-उम्र खुद में मैनें
बताया था जो तुमनें नाम राम का मिला

अवारें गलियों से भी अब वो गुजरते नही
हुआ था क्या जो वो उस अंज़ाम का मिला

नितेश वर्मा

शर्म नहीं [Sharm Nahi]

मुज़रिम के आँखों में शर्म नहीं
ये ज़माना मेरा अब हमदर्द नहीं

मैं भूल गया जिस तस्वीर को
वो हुआ दीवार में नर्म नहीं

पत्तें भी टूट के बिखर गए
समाजी आग थीं मेरी धर्म नहीं

अब जो सोया मौत ही मिलेगी
अपना छूटा बची कोई फर्ज़ नहीं

नितेश वर्मा

आयें हो [Aaye Ho]

जो जला हूँ मैं ज़ख्म दिखानें आयें हो
मेरे जले पे तुम नमक चढाने आयें हो

मान लेता जो मैं खुद से नाकाम होता
मेरे चेहरे की बची रंगत उडाने आयें हो

हर सफेद अब झूठ की मीनारें हैं बस
इस उम्र में तुम घर गिराने आयें हो

चलती साँसें भी अब सहम सी जाती हैं
जो तुम इस चिराग़ को बुझाने आयें हो

बोलते-बोलते अब गला भी सूखा-सा है
क्या अब भी तुम आग लगाने आयें हो

मेरी हर मंज़िल बिन रस्तों की है वर्मा
क्या बिन बादल तुम बरसात कराने आये हो

नितेश वर्मा

Saturday, 23 August 2014

..आग का दरिया है.. [Aag Ka Dariya Hai]

देश-भक्त हो जाता है दिल कभी-कभी.. हालातें, बाते, समझौते इस सोचनीय स्थिति पर आकर कभी-कभी रूक जाती है। कौन अपना हैं कौन पराया। आखिर इंसानियत ही है तो हमारें अंदर फिर ये विवाद, उल्झनें, समस्याएँ क्यूं? क्यूं हर बार का वही अपराध और वही निदान। दस इधर से दस उधर से। मरते और मारतें-मारतें क्या मुल्क अभी तक थका नहीं या फिर उनकें आँसूओं को अभी तक सुकूँ नहीं मिला। हर बार की प्रतिशोध में इक मासूम की मौत। क्या सीमा पे खडे सैनिकों की जान इतनी सस्ती हैं। रात-भर उन्हें सुकूँ नहीं, आँखों की नींद ना जानें कबकी खो गयी हैं.. अपनों से दूर होकर देश-सेवा.. नमन है उनको। क्या आखिर ये बलिदान के किस्सों तक ही सीमित रह गए हैं। मुझे ना अपनें और ना ही दूसरें देशों की प्रशासन और अर्थवयस्था की जानकारी हैं यानी की मैं बिना कुछ जानें यह सब लिख रहा हूँ। यदि उनकी तरफ उँगली करू तो यह बात बजारू हो जाऐंगी और ना करूं तो हास्योपद या मनोरंजक। शर्मं सी आती है खुद के होनें पर। दिल भरा-भरा सा है इसलिए आवाज़ में इतनी खरास नज़र आ रही हैं।



..हर मुश्किल..
..आसां कर जाऐंगे..
..ग़र आग का दरिया है..
..तो तैर के जाऐंगे..

..हमनें कभी..
..ना रूकना है सीखा..
..समुन्दरों से..
..बारिश कर जाऐंगे..

..उडते परिंदों के भी..
..है पर गिन लेते..
..सिकन्दर की बात..
..तुम्हें फिर समझा जाऐंगे..

..हमनें उडना है सीखा..
..हवाओं को अपना..
..गुलाम कर जाऐंगे..

..शातिर हमसे बडा..
..कोई और ना है..
..हम भरी महफिल में..
..राज़ कह जाऐंगे..

..उम्मीदों के आगे..
..और क्या है..
..अपनी आवाज़ से..
..हिन्दोस्तां कह जाऐंगे..

..हर मुश्किल..
..आसां कर जाऐंगे..
..ग़र आग का दरिया है..
..तो तैर के जाऐंगे..

..नितेश वर्मा..


Friday, 22 August 2014

दे जाती है [De Jaati Hai]

हर शाम हवाएं बहकर सुकूँ दे जाती हैं
बारिश की हर बूंद ज़ज्बात दे जाती हैं

बरसते है इन आँखों से कई और नूर
मग़र ये ख्याल तेरी तस्वीर दे जाती हैं

तुम आसमां के सितारों में आते हो नज़र
तुम्हारी मुस्कान वो इक चमक दे जाती है

करवटों पे भी बहकी आँखें खुल जाती है
थीं मुहब्बत की कसम आवाज़ दे जाती है

लबों के करीब है ना-जाने और कितने नाम
तुम्हारी साथ वो मुक्कमल किताब दे जाती है

बस अब इक बहानें का इंतज़ार है वर्मा
भर-लूं बाहों में ग़र वो हाथ दे जाती हैं

नितेश वर्मा


Thursday, 21 August 2014

इंतज़ार [Intezaar]

..मासूम सी इक रात बहकी सुबह का इंतज़ार..
..थम जाएं आँखें बस मौत का गहरा इंतज़ार..

..ले चली थीं जो बातें बहा-कर हवाओं ने..
..साँसें रूकी पडी है जाने कैसा है इंतज़ार..

..मैं मुक्कमिल था शायद किताबों का हिसाब रहा..
..बीत गया वो लम्हात था जिसका कबसे इंतज़ार..

..कैसे बनाया था हमनें अपनें पुरानें मकानों को..
..जैसे टूटा इक नाव जिसे हो मेरा इंतज़ार..

..अब तौलते-तौलते इक रही उमर गुजर गयीं..
..बीतता था दिन कैसे चाँद का था इंतज़ार..

..नितेश वर्मा..

Wednesday, 20 August 2014

रो लेंगी तो आँखें कह देंगी [Ro Lengi To Aankhein Kah Dengi]

मैने बदल दिया उन आसमानों को
दिखाते थे जो दिन-रात ज़माने को

पत्ते टूटे और बिखर से गए
बाग़ ज़ला गया मैं मयखानें को

अधूरी क्या रहेंगी ख्वाहिशें तेरी
समुन्दर लाया मैं प्यास बुझाने को

परिंदे भी हवाओं में रह ले
मकाँ जला आया ये बताने को

रो लेंगी तो आँखें कह देंगी
सोया था रात भूख मिटाने को

नितेश वर्मा

Tuesday, 19 August 2014

लाया [Laaya]

इक उमर तक इक उमर का ख्वाब लाया
मैं नासमझ रहूँ तेरे-संग ये जज्बात लाया

मिल के होती खतम ग़र ये अधूरी ख्वाहिशें
करता वो जो मैं समुन्दर से आसमान लाया

बहकी-बहकी सी ही हैं ये ज़ुल्फें शबनमीं
बेसबर हूँ बाँध लो निकाल जो दिल लाया

अब तो तुम्हारी रक्खी तस्वीरें भी सताती है
बदल जाएं बात मैं शराब-ए-हाल उठा लाया

अभ्भी लबों की मुस्कान सब कह जाती है
मैं बेवजह गुलिस्तानों का किताब खरीद लाया

अब तो ना होगी कोई मरहम-ए-नुक्स वर्मा
समझाया जो उसने रात मैं चाँद उठा लाया

नितेश वर्मा

कौन करे [Kaun Karein]

मुहब्बत की बातें अब कौन करे
घर है मुज़रिम नमाज़े कौन करे

मैं बैठा रहा तेरे हिज़रे में
रात है सर्द रखवाली कौन करे

सोया रहा मैं किस्मत के सहारें
लगी है दर्द सवाले कौन करे

तु ना बडा हमदर्द है मेरा
बिन तेरे जाल-साजी कौन करे

उतार के जो रक्खा है मैनें
शर्म फिर आँखों में कौन करे

कोई और कहता तो सुन लेता
अब ये समाज़ी हिसाबे कौन करे

नितेश वर्मा



चाह थीं [Chah Thi]

सबको इक मुकाम की चाह थीं
मग़र मुझे मेरे इंतकाम की चाह थीं

बदले की नफ़रत लिए दौडता था
मग़र सीनें में वही दिल की चाह थीं

बतानें का अब कुछ इरादा नहीं
ज़ाम से भरी इक खंज़र की चाह थीं

मिला दिया तुमनें सब सबूतों को
ज़ुर्म को खत्म करनें की चाह थी

सब रहें आलिशान मकानों में
मग़र मुझे मेरे गाँव की चाह थीं

भूलता है तो भूल जाएं चेहरा मेरा
मुझे तो बस मुहब्बत की चाह थी

नितेश वर्मा



Nitesh Verma Poetry

मिला जा के सुकूँ इसे तेरे इक हँसी मुस्कान में
था बेसबर भटकता लेके जो ये दिल आसमान में

तेरे ही लब से ये बरसता हैं संग-ए-मरमर सा
खुली जो आँख निकल आई तुम मेरे पहचान में

बिठा के रक्खा था हर अपने को इक कतार में
साथी, हमराज़ी, हमदर्द, हमदम कानी शान में

बुला के सबने दिखा भी दिया मेरे हक में नहीं
मैं यूं ही जीता रहा शान-ए-शौकत कब्रिस्तान में

नितेश वर्मा

बेकसूर [Bekasoor]

नज़रों में रहा था आज़ तक जो बेकसूर
साँसों को मेरे लिए जा रहा है वो बेकसूर

दिल को सुकूँ ना आया था कभी मेरे
बेचैंन ही रहा हर-वक्त बिन-तेरे बेकसूर

समझौते-पे-समझौते हुएं इस अज़नबी पर
कौन आता हैं जुर्म के दर पे होके बेकसूर

मनाया दिल को बहोत कैसी रूसवाई थीं
जा रही थीं जान हुआ था जो मैं बेकसूर

और करो मुहब्बत सितम की आह लगी
अब ना बनाओ बातें थें तो तुम बेकसूर

बदल-सी गयी हैं बातें कहके जो तुम गए
कहा गए वो लोग जो हुएं थे कभी बेकसूर

..नितेश वर्मा..




#HappyIndependenceDay A Message By Nitesh Verma.

भारत के आज़ादी का आज़ 68वाँ वर्षगाँठ है। आज़ से 68 वर्ष पूर्व हम सब आज़ाद हुएं थें। बहोत खुशी की बात है। हमें अपनें देश की समृद्धि पे नाज़ है। आप सब खुश रहें, दिल खुश रहे, देश खुश रहें; यही हमारी कामना हैं।
स्वतंत्रा दिवस पर सभी देशवासियों को ढेरों शुभकामनायें. यह दिन सभी के जीवन में सुख, शांति और समृद्धि लेकर आये. #HappyIndependenceDay

..नितेश वर्मा..

Nitesh Verma poetry

..हम खामोशियों को यूं बुनते चले आएं..
..इश्क में जैसे सब चेहरें ढूँढतें चले आएं..

..ऐसा हो वो तलाशता मुझे यहां चले आएं..
..मैं नज़रों में रखूं उसे वो बेलिबास चले आएं..

नितेश वर्मा

..बदल जो जाएं हम बुरा ना समझना तुम..
..दिल में उतर जाएं बुरा ना समझना तुम..

..कोई कहता रहता था हमे अज़नबी..
..बातों को उनके बुरा ना समझना तुम..

..नितेश वर्मा..

सिसकियाँ [Siskiyan]

घर के इक-कोनें से चली आती है सिसकियाँ
परेशां हो दिल तो निकल आती है सिसकियाँ

मासूम सी तेरी इक तस्वीर लिये जिंदा हूँ
तू ना दिखे तो निकल आती है सिसकियाँ

पूछते हो क्या आखिर रूठा-रूठा सा क्यूँ हूँ
मौत आती है तो निकल आती है सिसकियाँ

ज़ंगलों में भी अब सूखा-पड आया हैं क्या
आँखें उदास हो तो निकल आती है सिसकियाँ

मेरे-बहानें तुम अब ये समझौते ना किये फिरों
सयाने जो मिलते है निकल आती है सिसकियाँ

भला अभ्भी-तू उसकी इंतज़ार का कायल है वर्मा
अब तो हिचकियों पे भी निकल आती है सिसकियाँ

नितेश वर्मा

ज़िन्दगी [Zindagi]

घुट-घुट के जो गुजर रही है ज़िन्दगी
तुम ना थी तभ्भी ग़रीब थीं ज़िन्दगी

तुम्हारें हिस्से से सब थोडे हुआ है ना
तुम ना थी तभ्भी परेशां थी ज़िन्दगी

तुम मिले तो कुछ अज़ीब सा हुआ था
खुशी बे-हिसाब और अमीर थी ज़िन्दगी

बिछड के जो तुम चली गयी मुझसे
खाली खामोश भरी रही ये ज़िन्दगी

मुन्तज़िर था ना-जानें कबसे दीदार को
बिन-तेरे लगती है उधार थीं ज़िन्दगी

समझ के आ गए है सब होश वर्मा
लगाई थी जो आग़ बुझाई पूरी ज़िन्दगी

नितेश वर्मा

Sunday, 10 August 2014

..जिधर.. [Jidhar]

चला जा रहा है इंसान जिधर
बताया था वो रस्ता बदनाम जिधर

मुँह के निवालों की फिकर कहाँ
बच्चें हैं निकले काम हो जिधर

धीरें-धीरें ही चले थें शहरी सयानें
जाकर रूक गये मिलें अपनें जिधर

नाम-तो नही लूँगा लेकिन कहता हूँ
मिलतें है सब बडी-कीमत हो जिधर

इन-मकानों का क्या किये फिरते हो
मिलना है उधर दो-गज़ मिट्टी जिधर

क्या करें सब हाल-ए-बयां कर वर्मा
मिलता है दो-दिल दिल हो जिधर

नितेश वर्मा

..हो जाऊँ.. [Ho Jau]

चाहता हूँ मैं भी इक किताब हो जाऊँ
चाहें तुम पढों जितना मैं बेहिसाब हो जाऊँ

तुम्हारें हाथों में बस मिरा ही हाथ हो
ख़ातिर तुम्हारें मैं इक ख़िताब हो जाऊँ

लब से लब अब बस लगे ही रहे
इस प्यार में मैं इक-ज़िस्म हो जाऊँ

सवारं लो तुम अपनें चेहरें को मेरे यहां
इस धूप में मैं तुम्हारा ज़ुल्फ़ हो जाऊँ

हवाएं चलती भी है तो यादें सताती है
चाहता हूँ तेरी तस्वीर का श्याम हो जाऊँ

नितेश वर्मा

Saturday, 9 August 2014

..कर रक्खी है.. [Kar Rakkhi Hai]

यादें शहर की अभ्भी रू-ब-रू कर रक्खी है
तेरा हो जाऊँ गाल पे हाथें कर रक्खी है

बिखेरतें समेटतें चले जाऐंगे पन्नें हम
ईश्क में तेरे एक तस्वीर कर रक्खी है

मिला जो था ही कहाँ हम नाशुक्रा निकले
समेट दर्द को हमनें पहाडें कर रक्खी है

भूला दिया था हमनें कहाँ कभी पता तेरा
कहनें की बात थीं नज़रें आज़ भी कर रक्खी है

नितेश वर्मा

..नफ़रतें करतें.. [Nafratein Kartein]

बिछुडतें चले गए हम जग से नफ़रतें करतें
कोई समझ ना रहा जीतें रहें नफ़रतें करतें

कैसे भूला दिया होता तुम्हारी उन तस्वीरों को
ज़िंदा रहतें थें देख जिन्हें हम नफ़रतें करतें

सुबह से शाम हो गयीं बदनेकियाँ तो देखो
सूरज अभ्भी हवाओं से ख़फ़ा हैं नफ़रतें करतें

फ़कीर के हुज़रें की तलाशी लिए फिरते हो
कमबख्त हुआ हैं क्या इमान को नफ़रतें करतें

तुम कौन-सा खुदाया जा के दुआएं माँगा करते हो
मासूमियत की लिबास ओढें फिरते हो नफ़रतें करतें

कुछ होता हो तो बताओं इनका अए वर्मा
ज़िन्दगी मिट्टी में मिलनें वाली है नफ़रतें करतें

नितेश वर्मा

Thursday, 7 August 2014

..मेंहदी हो जब.. [Mehndi Ho Jab]

निखर के रंग बखूबी आ जाती है लगी मेंहदी हो जब
दुल्हन की मांग भी सज जाती है हाथें मेंहदी हो जब

भगवान भी बताते है सुनो तो कैसे ग़िरफ़्त हुएं थे वो
मुहब्बत तो तब हुई थीं दिल-सुर्ख जुबाँ मेंहदी हो जब

मुहल्लें में भी वही बात दुहरायी जाती हैं न-जानें कबसे
कोई काम ना कराओ बहू लक्ष्मी है चढी मेंहदी हो जब

आज़ भी खुद को फूँक जिसनें हैं घर का चूल्हा जलाया
रो-रोकर कहती हैं नोंच लो दिखे कही ग़र मेंहदी हो जब

दरिन्दे हो चले हैं ये पुजारी पुरानें हुकमत क्या करेंगे
कहते है पूछेगा इन्हे कौन काँटों से भरी मेंहदी हो जब

मैं नहीं मानता अब तेरा कहना तु भी वही रहा वर्मा
शरम तुझे कहाँ थीं जली पत्ती बच्ची मेंहदी हो जब

नितेश वर्मा

Tuesday, 5 August 2014

..ठहर जाता है.. [Thahar Jata Hai]

..इक उम्र पर आकर ठहर जाता है..
..ज़िंदगी मौत पर आकर ठहर जाता है..

..मनातें रह जाते है सब वक्त लगाकर..
..भगवान भक्त पर आकर ठहर जाता है..

..सूरज़ की गर्मी बढ जाती है बहोत..
..बादल बारिशों पर आकर ठहर जाता है..

..कोई भी चेहरा अब नही रहता याद..
..मोहब्बत शादी पर आकर ठहर जाता है..

..कानूनी वादें मौसमी बन रह जाते है..
..सियासती कौम पर आकर ठहर जाता है..

..ग़ज़लें ये बहोत पुरानी हो चली वर्मा..
..झूठ सच पर आकर ठहर जाता है..

..नितेश वर्मा..

कहानी-लेखन [Kahani-Lekhan]

साहित्य की सबसे पुरानी विधा कहानी लेखन हैं। जनजीवन में यह सबसे अधिक लोकप्रिय हैं। प्राचीन-काल में कहानी में कहानी कथा, आख्यायिका, गल्प आदि कहा जाता था। आधिनुक काल में “कहानी” ही अधिक प्रचलित हैं। साहित्य में यह अब अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान बना चुकी हैं। पहले कहानी का उद्देश्य उपदेश देना और मनोरंजन करना माना जाता था, आज इसका लक्ष्य मानव-जीवन कि विविध समस्याओं और संवेदनाओं को व्यक्त करना हैं। यही कारण हैं कि प्राचीन कथा से आधुनिक-हिन्दी कहानी बिल्कुल भिन्न हो गई हैं। उसकी आत्मा बदली है और शैली भी।
कहानी के तत्व:
मुख्यतः कहानी के छह तत्व मानें गये हैं
[1] कथावस्तु
[2] चरित्र-चित्रण
[3] संवाद
[4] देशकाल या वातावरण
[5] उद्देश्य
[6] शैली

[1] कथावस्तु :-
कथावस्तु के बिना कहानी की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह उसका अनिवार्य अंग है। कथावस्तु जीवन की भिन्न-भिन्न दिशाओं और क्षेत्रों से ग्रहण की जाती हैं। इसके विभिन्न स्रोत है:- पुराण, इतिहास, राजनीति, समाज इत्यादि। कहानीकार इनमें से किसी भी क्षेत्र से कथावस्तु का चुनाव करता है और उसके आधार पर कथानक की अट्टालिका खडी करता हैं। कथावस्तु में घटनाओं की अधिकता हो सकती है और एक ही घटना पर उसकी रचना भी हो सकती है। अब तो कहानी में घटना-तत्व अत्यंत सूक्ष्म होतें जा रहे है। अतएव, आज घटना की आवश्यकता पर अधिक बल नहीं दिया जाता। लेकिन, उनमें कोई-ना-कोई घटना अवश्य होगी।

[2] चरित्र-चित्रण :-
कहानी किसी व्यक्ति या किसी पात्र की होती हैं। यह पात्र ही कहानी में चरित्र कहलाता है। लेकिन इसकी संख्या कम-से-कम होनी चाहिए। तभी कहानीकार उस एक चरित्र के अंतर और बाह्य पक्षों का अधिकाधिक मनोविश्लेषण कर सकता है। मूल घटना से उसका गहरा संबंध होना चाहिए।

[3] संवाद :-

पहले संवाद कहानी का अभिन्न अंग माना जाता था, अब उसकी अनिवार्यता समाप्त हो गयी है। ऐसी अनेकानेक कहानियाँ लिखी गयीं है, या लिखी जाती हैं, जिनमें संवाद का एकदम अभाव रहता है। सारी कहानी वर्णनात्मक या मनोविश्लेषणात्मक शैली में लिख दी जाती हैं। संवाद की कहीं भी अनावश्यकता नहीं पडती। लेकिन संवाद से कहानी के पात्र सजीव और स्वाभाविक बन जाते हैं।

[4] देशकाल या वातावरण :-

कहानी देशकाल की उपज होती है, इसलिए हर देश की कहानी दूसरे देशों से भिन्न होती है। भारत में या इस देश के किसी भी भू-भाग में लिखी कहानियों का अपना वातावरण होता है, जिसकी संस्कृति, सभ्यता, रूढि, संस्कार का प्रभाव उनपर स्वभाविक रूप से पडता है। वास्तव मे।ब, देशकाल कहानी का कोई तत्व नही है। यह अपनें आप आ उपस्थित होता है। यह तो आधार है, जिसपर सारा कार्यकलाप होता हैं।

[5] उद्देश्य :-

यह कहानी का एक तत्व माना जाता है, लेकिन सच तो यह हैं कि साहित्य की किसी भी विधा की रचना निरूद्देश्य नहीं होती। हम निरूद्देश्य जीवन जीना नहीं चाहते। कहानी की रचना भी निरूद्देश्य नहीं होती। कहानीकार का कोई-ना-कोई प्रयोजन हर कहानी की रचना के पीछे रहता है। यह उद्देश्य कहानी के आवरण में छिपा रहता है; प्रकट हो जानें पर उसका कलात्मक सौंदर्य नष्ट हो जाता है।

[6]शैली :-

शैली कहानी के कलेवर को सुसज्जित करनेवाला कलात्मक आवरण होती है। इसका संबंध कहानीकार के आन्तरिक और बाह्य पक्षों से रहता है। कहानी-लेखक अपनी कहानी अनेक प्रकार से कहना चाहता है। वह उसे वर्णात्मक, संवादात्मक, आत्मकथात्मक, विवरणात्मक, पत्रात्मक किसी भी रूप में लिख सकता हैं। उसकी शैली ऐसी हो जो पाठकों के मन को अपनी ओर आकृष्ट करे। यह काम भाषा-शक्ति द्वारा होता है। कहानीकार की भाषा में इतनी शक्ति हो, जो साधारण पाठकों को भी अपनें मोह-पाश में बाँध ले।
कहानी का आरम्भ, मध्य और अन्त सुगठित हो, शीर्षक लघु और रोचक हो। अतएव, कहानी की रचना एक कलात्मक विधान है, जो अभ्यास और प्रतिभा के द्वारा रूपाकार ग्रहण करती हैं।

नितेश वर्मा

..घर.. [Ghar]

..कैसे हो जाता है रौशन घर एक दीये से..
..नाराज़ है हम-भी उनके उस किये से..

..सब मांग-मांग कर ले जाते है चराग़ मुझसे..
..अंधेरा रह जाता हैं घर मेरा मेरे किये से..

..आ जाओ कभी तो तुम्हें भी सीख देंगे हम..
..कैसे बनाते है सब घर हराम के किये से..

..इंसान-इंसान में बँट जाता हैं  सामाज़ी-किताब..
..मरनें पर तो हो घर ऐसा जो हो सबके किये से..

..नितेश वर्मा..

Monday, 4 August 2014

दीना की कहानी [Deena Ki Kahani]

पडोसी का लडका: दीना काका और बताओ, आज क्या कमाया, क्या बनाया और क्या खाया? [एक लम्बी डकार लेते हुएं पडोसी उसके खाट के पास आकर पूछा]
दीना: बेटा क्या खाऊँगा, वही जो रोज़ खाता हूँ। [आसमान के तारों के तरफ देखते-देखते दीना ने कहा]
पडोसी का लडका: वही तो पूछ रहा हूँ, काका! कुछ खाया या मैं कुछ रसोइयें से चुरा-कर लाऊँ? [उसने दीना के कान में फुँस-फुसां के कहा]
दीना कुछ देर के लिए सोच में पड गया। रोज-रोज का ग़म खा के सोनें से तो कई ज्यादा अच्छा एक दिन की चोरी ही हैं। आखिर पेट भर जाऐगा तो आत्मा भी तृप्त ही हो जाऐगी। भगवान ने जब कई दिनों बाद ऐसा मौका दिया है तो आज़ भगवान को क्यूं नाराज़ करूं? बोल ही देता हूँ..
जा बेटा कुछ ले आ। [सोचते-सोचतें उसके आँखों में चमक आई]
दीना: बेटा थोडा-सा ही लाना वैसे तो मैनें खाया ही हैं। [दीना ने धीरें से कहा]
पडोसी का लडका घर की ओर चला जाता हैं कुछ खानें के लिए अपनें घर के समानों को चुरानें।
दीना आसमान की तरफ देख के सोचनें लगता हैं कैसा दिन आ गया हैं भूख भी जोर की हैं और चोरी को भी भेजा हैं फिर उतना क्यूं नहीं मंगा लेता जितना इस पापी पेट को चाहिए। क्यूं शर्म के मारें कह दिया भूख नहीं, खाया हैं मैनें क्या चोरी पकडे जानें का डर हैं वो तो पडोस का बच्चा है मैं तो इतना बूढा हो गया हूँ समझ कहा रख दी हैं मैनें। 

वो खुद से शर्मिंदा होकर खाट के एक करवट हो गया दिन भर धूप में रोजगार ढूँढनें में नाकामयाब शरीर भी रात में साथ छोड देता हैं, हड्डियाँ कुछ ऐसे बजी थी कि गली के तीन-चार अवारा कुत्तें दीना के खाट के पास आकर चक्कर लगानें लगे, वो चाहता था उन्हें भगा दे लेकिन दिन-भर की थकान उसे कहा खाट से उठनें की इजाजत दे रही थीं, उसने सोचा कुत्तें ही तो हैं क्या कर लेंगे।

अचानक दीना के दिमाग में यह ख्याल आया वह पडोसी का बच्चा उसके लिए खाना चुरानें को गया हैं। अगर वो आया और इन कुत्तों को देखा तो वह डर के मारें घर के अंदर फिर से चला जाऐगा और फिर उसे आज भी भूखा रहना पडेगा या फिर ऐसा हो वो निडर हो लेकिन कुत्तें अवारा उसे खाना लेता हुआ देखे तो जिद को बैठ जाए और मेरे खानें का हिस्सा हो जाएं। वो ऐसा अन्याय अपनें साथ बिल्कुल बर्दास्त नहीं कर सकता था।

उसके शरीर में एक बिजली कौंधी और वो अपना दुबला-पतला शरीर खाट के बगल में रखी एक पतली सी लाठी के सहारें लेकर खडा हुआ। कुत्तें अब खाट से कुछ दूर हुएं लेकिन अभी भी टकटकी लगाएं वो दीना को देख रहे थें। दीना दौड के कभी एक को भगाता तो कभी दूसरें को इसी दौड-धूप में वो लगा रहा तब-तक अचानक वो पडोस का लडका आकर उसके खाट पर एक पोटली खोलकर बैठ गया।
पडोस का लडका: अरे! दीना काका, कहा पडे हो उन अवारा कुत्तों के पीछें वो कोई सीमा-पार के आतंकवादी थोडे ही ना हैं, नौकरी से रिटायर हो गए लेकिन बल है कि तुम्हारा गया ही नहीं अब आओ यहां मैं कुछ खानें को ले आया हूँ। उन्हें बाद में देख लेना वो कोई भाग थोडे ही ना जाऐंगे।

दीना कुत्तों से अपना ध्यान अब-तक हटा चुका था, लेकिन ना तो वह उस चोरी और ना ही अपनें नौकरी के बारें में सोच रहा था, जो उसनें अपनें देश के लिए सीमा पर खडे होकर 35 साल गुजार दिए थें। उसे तो बस चिंता थीं तो अपनें भूख और उस पडोसी के लडके द्वारा लायी उस खानें की पोटली की।
वह तेजी से अपनी लाठी टेकता हुआ अपनें खाट तक पहुँचा। खानें को देखकर उसकी आँखों में एक चमक की किरण दौड गयी। जैसे-तैसे वो अपनें खाट-पर बैठा और खाना शुरू कर दिया। तेजी से खानें कारण उसे हिचकी आनें लगी। पडोस का लडका यह देखकर खाट से उठा और दीना के उस पुरानी झोंपडी में घुसा जिससे दीना नें अपने रिटायरमेन्ट से बनाया था। अब पैसे उतने नहीं आतें जिससे नया मकान और खानें का समान जुटाया जा सके। पैसे तो बस उतनें ही आते हैं जितना जमींदार को देकर अगले माह तक अपना गर्दन छुडाया जा सके। अब भी इस उम्र में चैंन कहा हैं। बस खुशी इसी बात की हैं बेटी उसनें अच्छी घर ब्याही हैं। भले से कर्ज़ है तो क्या?

पडोसी का लडका: काका! आप इन कुत्तों को नहीं पाल लेतें। [पानी का ग्लास बढाते-बढातें उसने कहा]
दीना हिचकी और पानी दोनों को उपर लेता हुआ पडोसी के लडके के तरफ देखता रहता हैं जैसे उसनें कोई उससे खजाना माँग लिया हो।
दीना: अरे! मैं क्या किसी को पालूंगा, यहां अपना पेट पलता नही। सब भगवान का दिया ही खातें हैं इसे भी मिल ही जाता होगा। भगवान के घर देर है अँधेर नहीं। [कहते-कहते दीना नें एक लम्बा डकार छोड दिया।]

पडोसी का लडका: अरे काका! पाल लो यह तुम्हारी कोठरी तका करेगा, तुम्हारा ख्याल करा करेगा। कुत्तें तो वफादार भी होते हैं बहोत, काका!
दीना: हाँ वफादार तो होते हैं, लेकिन कोठरी क्या तकेगा, वहां कौन-सा खज़ाना गडा हैं। वो तो मैनें अपनें मरने के बाद कोई इंतेजाम ना हो पाएं तो उसके लिए रख छोडा हैं जो मेरा निर्वाह कर दे वो ले लेगा उसे। या उसे बेच के। हाँ कभी-कभी ठंड मिटानें के लिए, बारिशों से बचानें के लिए यह मेरा साथी बना था, लेकिन अब कोई मोह नहीं इसका। सरकार नें वेतन कम कर दिया और भगवान नें दम। ज़िन्दगी भी यहां आकर ठहर गयी हैं जहाँ इसका कोई मतलब ही नहीं। [कहते-कहते दीना सो गया, आज जो पेट भर गया था उसका, अब बस थकान बची थीं जो अगली सुबह-तक उतर ही जाती]

अचानक तेज़-तेज़ आँधियां बहनें लगी और ओलें पडने लगे।

पडोस का लडका: अरे ओ दीना काका! जल्दी उठों ओले पड रहे हैं। [लडके ने हाथ लगाकर दीना को सहारा दिया]
तभी अचानक एक महिला की जोर से अवाज गूँजी: अरें ओ! भोला के बाऊजी, भोला कहाँ हैं, अओलें पड रहे हैं, कही फिर आज उस भिखारी के खटियें के पास तो नहीं, हे भगवान! इस लदके ने तो जीना हराम कर रखा है। अब तो रात में भी चैंन नहीं। और पता ना यह बूढा कब मरेगा, एक तो घर-घरारी इतना कर रखा हैं और भीख माँगता रहता हैं। ना-जानें उस झोंपडी में कितनी अशर्फियाँ चुरा के रखी होगें।
ऐसी विषम परिस्थिति को देखते हुएं पडोस के उस लडके ने खुद को पहले उस परिस्थिति से बचानें को चाहा और दीवार को फांद कर अपनें खिडके से घुस कर बिछावन पर जाकर सो गया।
जब उसकी माँ आई और उसे सोता हुआ पाया, तो किवाड को अच्छें से लगाकर अपनें कमरें चली गयीं।
भोला ने खिडकी से उठकर झांका तो बाहर पाया कि दीनू अपनें झोंपडी के चबूतरें के पास तक पहुँच गया हैं। 

[यह देख जैसे उसके जान में जान आया हो, आखिर आता भी क्यूं ना आखिर भोला का उसके सिवा उसकी सुननें-वाला कोई था ही कहा।]

अगली सुबह
चहल-पहल कुछ ज्यादा ही था। परंतु माहौल शोकित था। भोला अब अपनें कमरे से बाहर था। बाहर गया तो पाया दीनू की लाश उसके खटियें पर रखी हुई थीं। आज भी वही खटिया, उसे घर सचमुच कहा कभी नसीब हुआ था, जो अब होता। कोई कहता पी-कर मर गया होगा, तो कोई कहता शायद सिढियों से फिसल गया होगा, जितनें लोग उतनें बातें सब मुँह-मुँह की जुबाँ रंगीन। शर्म किसी के आँखों में रत्ती-भर ना था। भोला के आँखों में आँसू थें, मगर वो उसे जता भी नहीं पा रहा था, बगल में उसके माँ जो खडी थीं।
कुछ बडे लोग यह सोच-विचार कर रहे थें कि कौन क्या लेगा और कौन क्या। किसपे किसका अधिकार होगा तो कौन किसके लायक। किसी को भी यह चिंता नहीं थीं आज एक देश का रक्षक मर गया हैं। इक बच्चा जो बस उसे अपना समझ रहा था, वही इक था आज उसके गम में शरीक।

नितेश वर्मा

Sunday, 3 August 2014

..ग़रीब का बेटा.. [Gareeb Ka Beta]

पप्पा! मैं भी अब स्कूल जाऊँगां। राजू ने तेज़ी से दौडते-दौडते आकर हरिया से कहा। पापा, मुझे भी श्याम भैया की तरह एम.बी.ए. करके उनके जैसी बडी गाडी खरीदनी हैं। और फिर पापा उसमें मैं, आप और माँ साथ-साथ घूमा करेंगे, कितना मज़ा आयेगा ना, पापा। हरिया राजू की बातों को सुनकर द्रवित हो गया। वो बेचारा रोज़ाना कमानें वाला मज़दूर आखिर क्या पढाऐगा अपनें बेटे को, और उपर से ऐसे बडे ख्यालों को कैसे सच कराऐंगा जो उसके बेटे ने अंज़ानें में सँजों रक्खे हैं।

मग़र कहते है जब बच्चें माँ-बाप को जान से भी ज्यादा प्यारें हो तो वो खुद को गिरवीं रखकर भी अपनें बच्चें के सपनों को पूरा करते हैं। ठीक वैसा ही हरिया नें भी अपना पुत्र-प्रेम दिखातें हुएं करा था। हरिया की मेहनत और राजू की लगन ने उसे आखिरकार उस आलिशान कार तक पहुँचा ही दिया। लेकिन वो कहतें हैं ना ज़माना कहाँ कभी किसी के मुसीबतों को समझता हैं। हरिया के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था, राजू के उच्च शिक्षा हेतु उसनें अपनें घर से लेकर खेत तक को गिरवीं रख दिया था। एक शब्द में कहें तो सर से पावं तक वो कर्ज़ें में डूबा पडा था।

कुछ दिनों बाद राजू एक बडे से कार में आया और नोटों का एक भरा बैग हरिया के सामनें फेंकते हुएं कहा : आप अपना हिसाब कर लो मैं अब यहाँ रहना नहीं चाहता।
उबन सी होती हैं यहाँ, दम घुंटता रहता हैं यहां, मुझे यहाँ जीनें की आदत नहीं, जल्दी से आप बस हिसाब करों।
हरिया को बहोत पछतावा होता हैं जैसे उसनें अपनें बेटे को पढा-लिखा कर कोई पाप कर दिया हो। उसकी आँखों से आँसूओं की धाराएँ बहनें लगी। तभी अचानक कार में बैठी एक लडकी कार का हाँर्न बजाती हैं और उस बडी सी कार के उच्च ध्वनि में जैसे हरिया की सिसकियां छुप-सी जाती हैं। हरिया को जैसे लगता हैं उसकी यह हाल देख वहां की गलियां भी शर्मिंदा हैं जहां कभी राजू दिन-भर खेला करता रहता था। हवाएं भी अब खामोश ही हैं, किसी शोर-शराबें से जैसे मीलों दूर।

राजू शायद अब मार्डन हो चला था। भावुकता, भावनाएँ जैसे शब्द वो तो कहीं उन एम.बी.ए. की गलियों में छोड आया था। हरिया लाचार कभी फेंके हुएं रास्तें पे रखी बैग को देखता था तो कभी सूरज की बढती तपीश को जैसे वो आज़ उसके किएं से खफा हो। बाप का फर्ज़ निभातें-निभातें वो तो यह भूल ही गया था, आज़ के बेटे कैसे होते हैं। लाचारी, बेबसी, लोभी क्या कहें इसे शब्द भी शर्मं से आज़ शर्मिंदा हैं।
दूबारा हाँर्न बजनें पर राजू हरिया को यह सुनाता-सुनाता चला गया : अच्छा ठीक हैं रख ही लो पूरा..
मैं किसी का आभार नहीं रखता।

जातें-जातें उसने ऐसा कुछ कह दिया हो जिससे हरिया फूट-फूट कर रोनें लगा। उसकी आवाज़ें तो हो रही बारिशें भी ना छुपा पाई थीं। मौसम में एक ठंडक आ गई थीं लेकिन हरिया तो जैसे वो कोयला हो गया था जिसपे जलनें से पहलें ही किसी ने पानी डाल दिया हो। वह उठ खडा हुआ। शाम हो चली थीं उसे लगा जैसे अब घर को चलना चाहिएं। वो पैसे टटोलनें लगा कुछ तो आँधियाँ बहा के ले के चली गई थी तो कुछ बारिशों के कारण खराब हो चले थें। हरिया जिस बेचैनी से पैसों को इकट्ठा कर रहा था उसी बेचैंनी से यह भी सोच रहा था अखिर वो घर जाकर क्या कहेगा। ज़मींदार,साहूकार तो पैसा माँगेंगे लेकिन वो राजू के माँ को क्या कहेगा जिसनें राजू की पढाई में कोई बाधा ना हो, अपनी तमाम ज़िन्दगी को उस दो साडी और गलें के एक मंगलसूत्र में गुजार दिया था। आज़ वो सवाल करेगी तो हरिया क्या कहेगा, हरिया अपनें हाँल से शर्मिंदा यही सोच रहा था शायद यही की ग़रीब का बेटा अब ग़रीब ना रहा।

सोच:-

ज़िन्दगी का भी बहोत अज़ीब दस्तूर हैं। कब कैसा रूख मोड ले पता ही नहीं चलता। घर का एक सदस्य जो सपना देखता हैं उसके अपनें भी उसी सपनें में खुद को सँजोनें लगते हैं। बहोत ही संवेदनशील स्थिति होती हैं, आखिर हमें कैसे पहचान हो कौन आगे जाकर हमारें अपने ही हमारें दुख का कारण बन जाएं। बहोत मुश्किल हैं कुछ कहना, जैसा हमेशा एक प्रश्नचिन्ह एक समाज़ पर होता हैं, उसी का यह उद्दृत अंश हैं।

..नितेश वर्मा..

..जलाएँ जा रहा हूँ.. [Jalaye Jaa Raha Hoon]

बहोत सताती थीं उसकी हर वो यादें पुरानी
निकाला डायरी और पन्नें जलाएँ जा रहा हूँ

तय हुआ जो बँटवारा तौबा बच्चे लडने लगें
निकाला दीया और मकानें जलाएँ जा रहा हूँ

तुम सुनोगे तो बातें बनाओगें ही मेरे हबीब
ज़िंदा लाश था समेटा और जलाएँ जा रहा हूँ

सुने हैं के मेरे बात को भी वो गलें नहीं लगाता
निकाला तमन्चा और ता-शहर जलाएँ जा रहा हूँ

माँगनें से मिलता हैं यहाँ जबरन लूटना पडता हैं
पढा था जो किताबी-समाज़ी अब जलाएँ जा रहा हूँ

फाड के फेंक दो लिक्खी ये ग़ज़ले तुम्हारी वर्मा
लिक्खा हैं सिर्फ़ खून ही खून जलाएँ जा रहा हूँ

नितेश वर्मा


..क्या.. [Kya]

देखो मेरा वो अब हो गया क्या
साथी मेरा मुझमे सो गया क्या

चैंन की साँसें अब लेते हो क्या
प्यासें हो तो पानी पीते हो क्या

बातें मेरी तुम भी पढते हो क्या
आँखों में कशिश रखते हो क्या

कैसे हो अब तुम बताओगे क्या
हाल-ए-दिल अब सुनाओगे क्या

ज़िन्दगी ने हैं तुम्हें सताया क्या
हार है यह किसी ने दिखाया क्या

मानोगें तुम अब मेरा कहना क्या
मेरें हाथों मे हाथ तुम दोगे क्या

तेरे यादों में भी हूँ मैं अभ्भी क्या
आता हूँ हर- रात ख्वाबों में क्या

अब तुम्हें मैं कभी छू पाऊँगा क्या
मर के ऐसे ही मैं रह जाऊँगा क्या

नितेश वर्मा

..थोडे ही ना.. [Thode Hi Naa]

#ले के हम मर जाऐंगे थोडे ही ना
दिल ही हैं
चोरी करके जाऐंगे थोडे ही ना

#बहोत पुरानी यादें-किताबी थीं उसकी
जाकर कह दो उसे
पढने के बाद लेके जाऐंगे थोडे ही ना

#चेहरा चाँद से भी कई ज़्यादा खूबसूरत निकला
प्यार ही बताया हैं
लेके तुम्हें मर जाऐंगे थोडे ही ना

#होंठों पे उसके तब-भी एक ही धुन सवारं रहती थीं
मरता हैं मुझपे तो मरें
डोली-सज के घर उसके जाऐंगे थोडे ही ना

#कहते थे जो लोग हम कुछ कहेंगे ही नहीं
क्या लगता था उन्हें
सुनें बिना हम मर जाऐंगे थोडे ही ना

#अच्छा हैं हम भलों की महफ़िल से ना गुजरे कभी
समाजी बकवास, सियासती राज़, कानूनी ठाठ
मेरें बाप की कौन जागीर हैं लेके जाऐंगे थोडे ही ना

नितेश वर्मा

..तैरता रहा.. [Tairta Raha]

बचपन में जो बनाएं थें नाव बारिशों के
ज़िन्दगी आज़ भी कश्मकश में तैरता रहा

खरीदों हर जगह जो वो बिकता रहता हैं
लालच ये कैसा आँखों में आज-तक तैरता रहा

हर फूल को छूकर जो हाथ गुजर जाते हैं
ज़िस्म की सिहरन मेरी बातों पे तैरता रहा

माँग ले खुदा से हर इक मुशक्कत की दवा
क्यूं नेकी फेंके दरिया में जो उपर तैरता रहा

परिंदों का भी तो कोई घर हो सुनहरी-इमारती
इक सुबह से शाम जो आसमानों में तैरता रहा

थक चुकी हैं ज़ान ना सही ज़िस्म ही मेरे आका
रिहा करो इन गुनाहों से मुझे जिससे मैं तैरता रहा

नितेश वर्मा

..मरें भाई-भाई होता हैं हिन्दु-मुस्लमान तो होनें दो..

..होता हैं ग़र नाराज़ तो उसे होनें दो..
..इस मुहब्बत को बेग़ुनाह भी तो होनें दो..

..मेरें हिस्सें में भी धूप का इक कोना हो..
..ग़र होता है ज़मींदार नाराज़ तो होनें दो..

..ले आऐंगे घसीट के समुन्दर प्यासें हैं जो हम..
..मेरें इरादों से खफ़ा गर होता हैं खुदा तो होनें दो..

..चलता रहेगा हमेशा ऐसे ही यह सामयिक चक्र पुराना..
..मरें भाई-भाई होता हैं हिन्दु-मुस्लमान तो होनें दो..

..होता हैं ग़र नाराज़ तो उसे होनें दो..
..इस मुहब्बत को बेग़ुनाह भी तो होनें दो..

..नितेश वर्मा..

Saturday, 2 August 2014

..कैसी है यादें.. [Kaisi Hai Yaadein]

कैसी है यादें
सताती हैं

उमर गुजर जाती है
आँखें ठहर जाती हैं
बनाना था जिसे मुक्कदर
एहसासों से दब जाती हैं

खिलौनें की खेल रह जाती हैं
बच्चों की भी ज़िन्दगी
अब उल्झ जाती हैं
जब से जन्मा
काम ही काम देखा था
हँसाता कोई
हैं तो ये ज़िन्दगी ही
मुश्किलों से ही क्यूं हर-बात हैं
समझ आया कहाँ हैं
तुम तो उल्झें ही रह गए
ता-उम्र
तुमनें कुछ बताया ही कहाँ हैं


मेरे हर दर्द के आगें
आओगे तुम
महज़ बातों से
वो कतराया क्यूं हैं
परेशां ही रहना था
तो मौत से ज़िन्दगी
जिन्दगी से मौत
रास्ता ये अपनाया क्यूं है
बहोत साणां है
कुत्ता पुराना
मेरें बातों पे
वो मुस्कुरायां क्यूं हैं
ज़िन्दगी क्या यही
सिमट के रहनें का नाम हैं
डर ही डर क्या
यही मुकाम हैं
हारें तो हार जाते हम
जीत के कौन सा
ज़न्नत नसीब हैं
सीखाया होता
किसी गुरू ने भी कभी
ये मूल्यों को दिखाया होता
रूपयों से उपर कभी
हम भी उनकी हुनर का
रखते बखूबी ख्याल
दिखाया होता
ज़िन्दगी में कुछ सुकूँ का मकान

हम तो हार ही गये
ये ज़िन्दगी पुरानी
कहानी ही कहानी
नाम कहाँ हैं
सारें मसले हो गये
सियासती हैं
तुम किसके हो
समझ आया नहीं है
यादें है
ऐसी उल्झी बेकसक पडी
नई किताब हो 
जैसे धूल से भरी पडी
अब कोई दवा नहीं हैं
ज़िन्दगी हैं दारू
पीना भी हैं
जीना भी हैं
और मरना
ये भी कानून जारी हैं

कैसी है यादें
सताती हैं

उमर गुजर जाती है
आँखें ठहर जाती हैं
बनाना था जिसे मुक्कदर
एहसासों से दब जाती हैं

नितेश वर्मा

..जा रहे है.. [Ja Rahein Hai]

..इस महफ़िल से हमें अब और ख्वाहिशें ना रही..
..हाथों में भरा ज़ाम और लिये जा रहे हैं..

..किसने बुलाया था जो हम कबर से चले आते..
..अपनों से जो हम रूठें चले जा रहे है..

..और भी बहोत चेहरें देखें थें इन आँखों ने..
..जानें-क्यूं आँखों में तस्वीर तुम्हारी लिये जा रहे हैं..

..प्यास हैं जो हम कभी बुझा दिये होते तुम्हारी..
..तमन्ना था समुन्दर का हम लिये जा रहें हैं..

..कैसे मिलते है हर-बात पे ये चोर-सिपाही..
..ये समाजी-किताब हैं हम लिये जा रहे है..

..बहोत सयानें बनते थें वो लोग देखो तो वर्मा..
..हमनें हँसायां था कब जो रूलायें जा रहें हैं..

..नितेश वर्मा..

..चार लोग.. [Chaar Log]

बहसों से परें हो तो अच्छा नहीं लगता। अगर चार लोग बातें ना सुने तो अच्छा नहीं लगता। भडकाऊँ और अश्लील शब्दें भी कभी-कभी जरूरतें बन जाती हैं, कुछेक को बातें उसी रूप में समझ आती हैं या समझायी जा सकती हैं जिसकी भाषा वो बोलते हैं। अज़ीब दौर है सब अच्छें हैं मगर चारों तरफ़ रंजिशे हैं। जमाना टेक्निकल है चार लोग चारों दिशा में घिरें पडे हैं। काम, मुश्किलात, विवाद, सुलझ, हिंसा, रूकावट चाहें जो हो चार लोग तो होते ही हैं।

चार लोग कहते हैं कॉमनवेल्थ गेम्स गुलामी का प्रतीक है,चार लोग कहते हैं भारत में खेलों की दुर्दशा क्यों है? चार लोग कहते हैं खिलाडियों के लिए कुछ करते नही। चार लोग कहते हैं फलानी खिलाडी फलानिस्तानी है। चार लोग कहते हैं एक पदक लाने वाले शूटर को करोडों और सरहद पर खड़े होने वाले को कुछ नही। चार और लोग हैं जो कहते हैं,कब तक सहोगे,हमला क्यों नही करते? चार लोग कहते हैं युद्ध क्यों? युद्ध विभीषिका है। चार लोग ईराक पर रोते हैं,चार फिलिस्तीन पर,चार को गाज़ा दिखता है,चार कहते हैं इजराईल सा बनो,और चार वो हैं जो गाज़ा पर कहने वालों को कहते हैं इराक पर कुछ कहो।

चार लोग चार अलग-अलग चीजों को एक साथ लाकर जस्टीफाई कर सकते हैं,दो ऐसी चीजों को जोड़ सकते हैं जिनका मेल ही नही।

..सबसे बडा रोग..
..आखिर क्या कहेंगे..
..चार लोग..

..नितेश वर्मा..

..लबों पे तेरा नाम आया हैं..

बारिशों में इक जान आया हैं
लबों पे तेरा नाम आया हैं
छूं-लूं किस कदर ख्वाबों में तुझे
दिल के पर्दें पे जो पयाम आया हैं
बेचैंन-भटकती साँसों में
इक जान आया हैं
बारिशों में इक जान आया हैं
लबों पे तेरा नाम आया हैं

क्यूं गुजरेंगी अब रातें तन्हा
होंगी क्यूं शामें अब तन्हा-तन्हा
मेरी बातों में जो इक बात आया हैं
छूं ले तू चेहरा भींगा मेरा
चेहरें पे मेरे तेरा नाम आया हैं
बारिशों में इक जान आया हैं
लबों पे तेरा नाम आया हैं

होंगी जब ये बारिशें थम
होंठों पे होंगे इक-दूजे के हम
सीनें के अंदर जो उबाल आया हैं
तेरा हैं जो दिल बेबाक आया हैं
बारिशों में इक जान आया हैं
लबों पे तेरा नाम आया हैं

..नितेश वर्मा..

Friday, 1 August 2014

Nitesh Verma Poetry

जुदा हुएं हैं लोग बहोत एक तुम भी सही
अब इत्ती-सी बात पे क्या ज़िन्दगी हराम करें

मिलता तो ना कोई दफनाता किसी कोनें मुझे
अब इत्ती-सी बात पे क्या खानदानी आग करें

नितेश वर्मा

..कैसे लायें.. [Kaise Layein]

..आँखों में मुहब्बत अब कैसे लायें..
..घर उजडा हैं चादर कैसे लायें..

..बच्चें माँगते नहीं ले लेते हैं..
..जायदाती हिस्सा हैं समझ कैसे लायें..

..फूलों के बाग़ मुरझा जातें हैं..
..माली था जो खानदानी कैसे लायें..

..पीकर भी नशें में ना-चूर हुआ..
..घर अफ़ीम की खेती कैसी लायें..

..बतातें जो सब सजदें हो आता..
..दरहो-हरम उठा अब के कैसे आयें..

..फलता-फूलता रहता हैं यह मकाँ पुराना..
..यादें जो हो ज़ज्बाती कैसे लायें..

..आग़ में ज़ला सब खाख हुआ..
..सजाकर रखे कहानी हम कैसे लायें..

..दो बूंद मिलता बुझा लेते हम..
..लगी हैं आग समुन्दर कैसे आयें..

..नितेश वर्मा..


..शुकर तेरा.. [Shukar Tera]

आँखों में धूल, चेहरें पर दाग़
शुकर तेरा बारिशों में सब धूल गया

घर के बच्चें, उमर का बोझ
शुकर तेरा मौत में सब भूल गया

हाथों में कलम, सौदों का ख्वाब
शुकर तेरा तस्वीरों में सब झूल गया

ठिठकतें रहे कदम, संभलते चले राह
शुकर तेरा सज़दे में सब शूल गया

जले हुएं राख, पंडितों की बात
शुकर तेरा मुहब्बत में सब कूल गया

..नितेश वर्मा..