शायद अब मुझे उससे मिल ही लेना चाहिएं। बे-वजह के रिश्तें को जितनी जल्दी किनारें कर दो उतना ही खुद के लिये सही होता हैं। इस दुनियाँ में वहीं तुम्हारा एक अपना हैं जो तुम्हारें लिये नहीं बल्कि तुममें जीयें। तुम्हारी जरूरतें उसकी आदत हो, तुम्हारी खुशी उसकी हो, वो तुममें जीयें और तुममें ही रहें। स्वरा ये सब कुछ अभी सोच ही रही थीं तब-तक पीछें से आकर एक बच्चें नें शिकायती लहज़ें में कहा : मैम! ये ना मेरी काँपी फाड दिया हैं।
स्वरा [ कुछ देर उन दोनों बच्चों को देखतें हुए ] : अए! हम्म्म। क्यूं तुमनें ऐसा क्यूं किया चलो सारी बोलो उसे।
दूसरा बच्चा : मैम मैनें तो पहलें ही सारी बोल दिया था, पर ये मान ही नहीं रहा, ज़िद पे बैठा हैं।
स्वरा : ज़िद। हाँ शायद उसकी भी तो ये ज़िद ही थीं कि वो विभय को तलाक देना चाहती थीं, उसे अब कोई समझौता मंज़ूर नहीं था, और हो भी क्यूं विभय नें तो कभी उसके लिये कोई वक्त नहीं निकाला था। जब भी कोई बात करो तो बात-बात पे हाथ उठा देता था, आखिर किसे जाकर कहती। परेशां होकर ही उसनें ये निर्णय लिया था कि अब वह विभय का साथ छोड देगी।
लेकिन उसके दिमाग में अपनी माँ की कहीं बात हर-वक्त घूमा करती : बेटा। रिश्तें तो बस रिश्तें होतें हैं उन्हें निभाना या छोडना तो इंसानों पे निर्भर करता हैं। बेटा कोई इंसान बुरा नहीं होता, बुरें तो बस हालात हुआ करतें हैं। अग़र उस बुरें से वक्त में जो तुम्हारें साथ हैं वो ही तुम्हारा अपना हैं।
लेकिन माँ की आँखों से देखी ज़िन्दगी जैसे उसे कुछ और ही लगा करती थीं, वो सोचती आखिर माँ को क्या पता के बाहर देश के लोग कैसे हुआ करते हैं। यहाँ अपनों और परायों में फर्क करना उतना ही मुश्किल हुआ करता हैं जितना किसी नयें बाजार में जुआ खेलना। सारें खिलाडी नयें होतें हैं और शिकार खुद का होता हैं। स्वरा ये सब कुछ सोच समझ के ही विभय का साथ छोडनें का निश्चित निर्णय कर चुकी थीं।
मैम हम जाएं? स्वरा इस बात को सुनके चौंक सी गयी और उनकी तरफ देखकर बोली : कहाँ?
मैम छुट्टी हो गयी अब हम घर जाऐंगे, इसका काम मैं फिर लिख दूगां घर जाकर, शायद वो मान जाएं।
स्वरा उन दोनों बच्चों को जातें हुएं देखनें लगी और फिर अतीत के पन्नों में डूबनें लगी। क्या ऐसा नहीं हो सकता की फिर से वही लम्हा आ जाएं, विभय मुझे फिर से समझनें लगे, मेरा ख्याल करनें लगे। नहीं-नहीं स्वरा तू ये क्या सोच रही हैं, ऐसा नहीं हो सकता। उससे आज मिल के बात करनी ही होगी। स्वरा ये सोच के उठी और फिर टेक्सी स्टेंड की तरफ बढ गयी।
भैया, न्यू विहार चलोगें?
आईये मैडम बिल्कुल चलेंगे। न्यू विहार में कहाँ?
स्वरा : कहीं भी उतार देना भैया।
ड्राइवर : मतलब, नहीं समझा मैडम।
स्वरा : फस्ट क्रास पे ही ड्राप कर देना।
ड्राइवर: तो ऐसा कहिए ना, मैडम।
फिर टेक्सी अपनी स्पीड में चल पडी।
आखिर स्वरा को तो अब पता ही नहीं की विभय रहता भी कहाँ हैं, उसनें उसकी आफिस से उसका ये नया ऐड्रस लिया था। वो चाहती तो वो तलाक के पेपर्स अपनें ऐडवोकेट के हाथ भी भिंजवा सकती थीं, मगर वो कहतें हैं ना शक एक बार दिल में घर कर ले तो वो तब-तक दिल से नहीं मिटती जब-तक वो किसी परिणाम को ना आ जाएं। हाँ, बेशक उसे शक था की विभय किसी और लडकी में इंट्रेस्टेड होनें लगा था, और वजह साफ थीं अगर ऐसा ना होता तो वो उससे इतनी दूरी बना के क्यूं रहनें लगता। स्वरा नें उससे इस बात को लेके न-जानें कितनी बार बहस की थीं और आखिर में विभय का हाथ उठ जाता और वो खामोश हो जाती। यहीं नियम हैं, लडकियाँ सहम जाती हैं, इज्जत की परवाह कर जाती हैं, किसी दूसरें के खातिर खुद को कहीं समेट लेती हैं, तो ये नियम गलत हैं जिसमें सिर्फ मजबूरियाँ, हालातें सब एक स्त्री के हाथ को बाँध दे, उसकी हकों को, उसकी आवाजों को कहीं छुपा दे। ऐसे नियम से तो बेनियम का होना अच्छा हैं कम से कम कोई स्वांग तो नहीं रचना होगा। ऐसे नियम जला क्यूं नहीं दिये जातें कभी-कभी सोच के स्वरा खुद में खुद को समेट लेती। यही सामाज़ हैं यहीं विडंबना।
मैडम आ गया न्यू विहार।
स्वरा : कितना हुआ?
ड्राइवर : 200 ₹ ।
स्वरा नें पैसे दिये और पर्स से विभय का ऐड्रेस निकाल कर कालोनी के घरों पे लगे नेम-प्लेट को पढनें लगी।
A-26
Vibhay Vashisthya
General Manager Of Seva-Sadan
स्वरा नें डोर बेल बजाई। लेकिन किसी के कोई जवाब ना देनें पे कुछ कान लगा के सुनने की कोशिश करनें लगी। तभी दरवाजा अचानक खुलता हैं और वो विभय के बाहों में गिर जाती हैं, वही एहसास, वही स्पर्श, वही ख्याल सब कुछ तो उसे पहलें सा कितना अच्छा लग रहा था। ऐसे लग रहा था मानों उसकी पूरी थकान अब जाकर दूर हुई हैं। उसकी शिकायतें जैसे अब उससे खैर माँगनें लगी है। फिर अचानक कुछ ख्याल सा करके वो संभल गयी और फिर नारमोल होतें हुएं बोली : विभय मुझे तुमसे इस पेपर पे साइन चाहिए।
विभय : हाँ-हाँ, कर दूंगा। पर कितनी दिन बाद आयी हो, बैठों तो सही, ये बताओ क्या लोगी?
स्वरा : नहीं, कुछ नहीं। तुम बस साइन कर दो, मुझे अब और भी बहोत से काम होते है। मैं जल्दी में हूँ।
विभय : तुम जाना चाहती हो?
विभय की इस बात को सुनकर वो चौंक गयी, क्या आखिर सचमुच वो उसे छोडकर जाना चाहती थीं। तो ऐसा क्यूं था कि वो हर- वक्त अभी भी उसके ख्यालों में जिंदा रहना चाहती थीं। ऐसा तो नहीं होना था वो आज की पढी-लिखी कामकाज़ी महिला थीं। लेकिन वो कहते है ना प्यार कभी मरता नहीं, रिश्तों के कभी खून नहीं होते, लेकिन ये सब तो बस कहनें-समझनें की बातें हैं, सब झूठ हैं झूठ, एक सफेद झूठ।
विभय : किस सोच में हो, अग़र तुम जाना चाहती तो बताओ मैं भी बाहर चलता हूँ तुम्हारें साथ, तुम्हें छोड दूँगा।
स्वरा : नहीं, इसकी कोई जरूरत नहीं, तुम बस मुझे इस बोझ से रिहा करो।
कहतें हुएं स्वरा नें विभय के तरफ पेन बढाया और फिर एकदम से ठिठक गयी। विभय के नाक से खून गिर रही थीं।
स्वरा एकदम से अपनें पल्लूं को लेकर विभय के नाक को साफ करनें लगी, उसके सर को अपनें गोद में ले लिया और वही फर्श पे नीचें बैठ गयी।
विभय बस एकदम से उसे देखे जा रहा था जैसे मानों उसे एक पल में ही जन्नत नसीब हो गयी हो। कितना सुकून था स्वरा की बाहों में उसे, अब तो उसे मौत का कोई खौफ भी नहीं था, विभय की आँखों से अब आँसू मोतियों की तरह गिर रहें थें और वो धीरें-धीरें बेहोशी में खोनें लगा था। स्वरा की वो बेचैंन सी आवाज बस उसके कानों में जा पा रही थीं, जो वो जोर-जोर से हर दूसरें पल अपनें साँस लेने के साथ ले लेती, मानों जैसे उसे ये लग रहा था अगर एक पल भी वो ये नाम लेने से चूकी तो वो अपनी ज़िन्दगी से भी चूक जाऐगी।
स्वरा ने जल्दी से मोबाईल उठाया और डाक्टर को फोन करनें लगी।
डाक्टर : सही किया आपनें यहाँ आकर। कुछ दिन ही मगर अब सुकून से तो गुजार लेंगे। मैनें पहलें ही कहा था यार! भाभी जी को सब कुछ बता दे। मग़र दलीलें साहब के तो ऐसे होतें हें पूछों मत और आपसे बेहतर ये कौन जान सकता हैं आप तो खुद इनकी शायरी से कभी मुहब्बत किया करती थीं।
स्वरा जैसे सारी बातों को अनसुना करके एकदम से खामोश होकर बैठ गयी, जैसे उसे अब किसी बात की कोई परवाह नहीं थीं। वो डाक्टर की तरफ मुडकर बोली : आखिर बात क्या हैं?
डाक्टर : मतलब, विभय नें आपको अभी तक कुछ नहीं बताया। ओह माय गाड!
स्वरा : क्या हुआ हैं इन्हें? आवाज इतनी भारी जैसे किसी तूफानी बारिश होनें से पहलें वहाँ की घटाएं किया करती हैं। गला पूरा सूखा-सूखा सा, आँखें इतनी भींगी जैसे कोई समुनदर हो।
डाक्टर स्वरा की हालत को देखकर परेशां, आज वो ये बात अपनी कसम तोड के कह लेना चाहता था जो कभी उसनें अपनें सबसे बेहतरीन दोस्त से की थीं। आज वो उन सभी हालातों से पर्दा हटा देना चाहता था जो अनचाहें में उनकी ज़िन्दगी में हो गया था।
डाक्टर ने स्वरा की तरफ देखकर कहा : सुन पाओगी?
स्वरा : बिन सुने तो ऐसे भी मर जाऊँगी।
डाक्टर : ना कहो, ऐसी बात। विभय तो इसी बात से डरता था।
स्वरा : अब बस भी करो, अब सब्र का बाँध मुझमें टूट गया हैं, इससे पहले में बिखर जाऊँ और फिर खुद को समेट ना पाऊँ, तुम दया करके मुझे वो सब बता दो जिसको मैं जाननें का हक रखती हूँ, प्लीज़।
डाक्टर : विभय को हाइयपोथेलेमस हैमरटोमा [ Hypothalamus hamartoma ] हैं, एण्ड ही इज ओन हीज़ लास्ट स्टेज़। आइ एम सारी, भाभी फार ऐवरी-थींग। आई वास... .. ..
मग़र स्वरा अब उसकी आवाजों से दूर होना चाहती थीं, उसे अपनी कानों पे यकीन नहीं हो रहा था, वो उन आवाजों से खुद को कही दूर कर लेना चाहती थीं, वो अपनी आँखों से बहती आँसूओं को तो ना रोक पायी थीं मग़र उसनें अपनें अंदर ही अपनी आवाज को दबा दिया था। वो आज खुल के रो लेना चाहती थीं, मगर उसे जिस काँधे की जरूरत थीं, आज वो इस हाल में भी नहीं की उसकी आँखों की आँसूओं को देख सकें। स्वरा अब खुद ही खुद में शर्म से गढनें लगी। कितनी गलत खुद को साबित कर लिया था उसनें। बात ये थीं, विभय ये नहीं चाहता था की उसके साथ स्वरा की भी ज़िन्दगी कही रूक जाएं। वो खुद को उसकी यादों में ना मारें। आज स्वरा को अपनें सारें किये पे पछतावा हो रहा था।
मग़र कहतें हैं ना जब इंसान अच्छें होतें हैं, उनके साथ भी सब अच्छा होता हैं। हाँ, यकीनन कुछ वक्त लग जाता हैं, मगर वक्त अपनें साथ वो इंसान लेकर आता हैं जो उसके सभी घाव को मरहम से भर देता हैं। यही दस्तूर है। अब तक विभय का हाथ स्वरा के कंधे पे आ गए थें, उसनें स्वरा को अपनी तरफ किया, उसके जुल्फें सवारनें लगा तो कभी उसकी आँखों से गिर रहें उन कतरें को उसकी नर्म गालों से हटानें लगा। दोनों एक-दूसरें को देखनें लगे, दोनों एक दूसरें के आलिंगन में आ गए। डाक्टर उन्हें एक साथ देखकर मुस्कुरा रहा था। स्वरा की आँखों में देखकर उसनें फिर वही शे’र गुनगुना दिया जो पहली बार उसनें सिर्फ और सिर्फ उसके लिये लिखा था।
के आ जाओ अब शर्मांना बहोत हुआ
मेरे दिल को यूं भरमाना बहोत हुआ।
तुम्हारें खातिर अभ्भी ये लिक्खा मैनें
सीनें लग जाओ जमाना बहोत हुआ।
नितेश वर्मा