Tuesday, 28 July 2015

A tribute to Kalam Sir By Nitesh Verma

एक और पन्ना बिछड़ गया .. किताब 📚 जिन्दगी की और सस्ती हो गयी। ‪#‎KalamSir‬‪ #‎RIP‬

नितेश वर्मा और जिन्दगी

कुछ ख्याल सवाल बन गए
ऐसे तो अपने हाल बन गए।

उसके शहर से मरे है दोनों 
जां जहां के बेहाल बन गए।

कोई मर गया याद आया यूं 
इक बात से कंगाल बन गए।

साथ रहा था वो शख्स मेरे 
जो गये तो मिसाल बन गए।

महज आँसू तो गिरे हैं वर्मा 
कहे तो ये कलाम बन गए।

नितेश वर्मा और बन गए।

कुछ ख्याल सवाल बन गए

कुछ ख्याल सवाल बन गए
ऐसे तो अपने हाल बन गए।

उसके शहर से मरे है दोनों
जां जहां के बेहाल बन गए।

कोई मर गया याद आया यूं
इक बात से कंगाल बन गए।

साथ रहा था वो शख्स मेरे
जो गये तो मिसाल बन गए।

महज आँसू तो गिरे हैं वर्मा
कहे तो ये कलाम बन गए।

नितेश वर्मा और बन गए।

Sunday, 26 July 2015

थोडीं बरसात

माँगा जो आज हक घर से सबने
किसी का दिल दुखा
तो कोई दिल गया टूट खुदमें
पहचानता कहा हैं कोई दीवारों-दर को
कोई टुकडा हो गया तो कोई बे-औकात
नज़रों का क्या दोष हैं
आँखों से कभी गिरे तो थें
बारिश नें खुद में समेट लिया
तो क्या करें
बरसात में बरसात
आँखें, दिल , जिस्म सब रोंये
जुबां से कोई बात क्या करें
कहीं से टूटकर हैं गिरा
किसी के खुशियों को
कोई बात हैं इसे बुनना
ज़मीं पे बिखरकर
मिटा लो हर ग़म को
कर लो खुद को साफ
भींगा हैं ज़िस्म तो
कर लो खुद में थोडी बरसात.. थोडीं बरसात

नितेश वर्मा और थोडी बरसात।

बेफिक्र रहा है रात भर

बेफिक्र रहा है रात भर
दिल ये तन्हा खुद से हार कर
आके हैं ठहरा क्यूं यूं ही
ये नाम आखिर तेरे नाम पर

कोई कहानी है अगर
दिल की जुबानी है अगर
होठों से अपने तुम पढो
मेरा हाथ रखकर
अपने हाथ पर
थोड़ी शिकायत तुम करो
थोड़ा सा मुश्किल मैं लगू
हर बात को रखकर
इस बात पर
खुदको सबसे आजाद कर
मिल जा गलें मुझसे
कोई बरसात कर
बेफिक्र रहा है रात भर
दिल ये तन्हा खुद से हार कर

नितेश वर्मा और बेफिक्र

आँखों से यूं आँसू किसी के कब तक बहें

आँखों से यूं आँसू किसी के कब तक बहें
रों ले तू जब तक ये जां मुझमें जिन्दा रहे।

नितेश वर्मा

मुझे खबर नहीं कब निकल गये आँसू

मुझे खबर नहीं कब निकल गये आँसू
दिल परेशां हैं क्यूं यूं निकल गये आँसू।

रोका हैं यूं हर बार इसको खुद में मैंने
मिला जो तू तो यूं ये निकल गये आँसू।

कुछ कहने को हुए कभी हम भी बड़े
जिक्र जो आया तेरा निकल गये आँसू।

साया हर वक्त उमड़ता हैं मुझमें तेरा
तुझसे जान छूटा तो निकल गये आँसू।

क्यूं ये एहसास हर वक्त लगा है वर्मा
यूं ज़रा बुरा कहा तो निकल गये आँसू।

नितेश वर्मा और निकल गये आँसू।

रोटियां

कोई बेच रहा है बेहिसाब रोटियां
कोई देख रहा है ख्वाब की रोटियां
कोई किस्मत से हैं तोड़ता कभी
तो किसी की है ये जागीर रोटियां

भूखा हैं, कुछ थोड़ा प्यासा भी
मजदूर चाहता है सब दूर करें
खाकर कमाई की दो रोटियां
कुछ और खरीद ले, लेकिन क्यूं
कल तो फिर सताऐंगी
आग पेट की लपटें-दर-लपटें
कब तक तडपाऐंगी ये रोटियां
जब तलक जां हैं लड़ रही है
मरने के बाद मेरे
मुँह मे सबके ठूँसी जाऐंगी रोटियां
कोई बेच रहा है बेहिसाब रोटियां
कोई देख रहा है ख्वाब की रोटियां

नितेश वर्मा और रोटियां।

सुहासी: एक जुबां

सुहासी से अभय की दोस्ती ऐसी थीं की बात कभी भी गर्ल-फ्रेंड वाली बन सकती थीं और गर्ल-फ्रेंड के बाद शादी की।
सुहासी अपनें नाम की जैसी हर पल मुस्कुरानें वाली। जिंदगी को खुशियों से जीनें वाली। अभय के पूछनें पे खिलखिला ये बतानें वाली की सुहासीं का अर्थ ही हैं जिसकी हंसी सुन्दर हो और मेरी हैं तो मेरे पापा ने मेरा नाम सुहासी रखा हैं।
अभय भी अपनें नाम के जैसा बिना किसी भय के जीनें वाला। किसी भी बातों का कोई भय नहीं, जो सच हैं उसको समझ के, उसको मान के जीनें वाला।
नियती को कुछ और मंज़ूर होता हैं, एक रोज़ शापिंग से आतें वक्त कुछ गुंडे-बदमाश अभय और सुहासीं से छीना-झपटी करते हैं फिर अभय को लहू-लूहान करकें सुहासीं का बलात्कार कर देते हैं। समय जैसे बदल जाता हैं, वो प्यार, वो शादी के किस्सें किताबी लगनें लगते है। सामाज़ सुहासीं को जिम्मेवार ठहराता हैं।
अभय के माँ-बाप ऐसी पीडित लडकी को अपनें घर की बहू बनानें को तैयार नहीं हैं, जिससे कभी उनका बेटा या अब भी प्यार करता हो। ऐसा करके वो अपनें कुल-खानदान को बदनाम नहीं करना चाहतें हैं। जबकि सब ये जानते हुएं भी कि उस वक्त अभय भी सुहासीं के साथ था, वो उसे उस वक्त ना बचा सका और अभी भी वो कुछ कर नहीं पा रहा या करना नहीं चाहता।
सुहासीं का हाल बुरा हैं, वो अपनें उस अभय को याद करके कभी आँसू बहाती जो सिर्फ और सिर्फ कभी उसका हुआ करता था तो कभी हुएं अपनें पे उस ज़ुर्म को सोचकर अंदर तक टूट जाती। उससे उसकी हंसी छीन गयी थीं, उसका नाम उससे ले लिया गया था, उसकी इज्जत लूट लीं गयी थी। क्या अब वो मजबूर हो गयी थीं।
सुहासीं के माँ-बाप का हाल बिलकुल उसी माँ-बाप की तरह था जिनकी बेटी के साथ ये दुर्व्यहार हुआ हो। फिर भी हिम्मत जुटा के अपनें बेटी को समेटनें की एक कोशिश करते हैं। सुहासीं अपनें माँ-बाप को अपनी हालत के कारण इतनी परेशान देखकर फिर से जिंदगी जीनें की कोशिश करती हैं, वो बाहर निकल फिर कुछ नये सिरे से जीनें की चाह रखती हैं।
बाहर निकल सुहासीं खुद पे शर्मिंदा हैं। अखबारें कभी कुछ तो कभी कुछ कहती हैं, मिडिया उससे तरह-तरह की सवालें करती हैं, लोग उसे देख आपस में फुसफुसानें लगते हैं, उससे दूरी बनानें लगते हैं, अपनें बच्चें को आंटियाँ और मायें आँचल में छुपानें लगती हैं। ऐसा देख जैसे उसे लगता हैं के ये रस्तें की बेजान दीवारें भी उससे कुछ पूछ रही हैं, कुछ छुपा रही है। सुहासीं ऐसे सामाज को देखकर खुद ग्लानि से भर जाती हैं।
एक पार्टी फंक्शन में फिर अभय से मुलाकात होती हैं, जो ना के बराबर होती हैं। सुहासीं अभय को जानती हैं, भले से वो कुछ भी कर रहा हो या उससे कुछ कराया जा रहा हो वो सुहासीं को इस हालत में नहीं देख सकता। सुहासीं उससे खुद को भूला देनें को कहती हैं। उसे अभय की कोई हमदर्दी की जरूरत नहीं, वो नहीं चाहती की अभय उससे शादी कर उसपे कोई दया दिखाएं, कोई उपकार करें या धौंस जमाएं।
महफिल के लोग उसे देख फिर से वही एक बात दुहरातें हैं, हाँ इसी का रेप हुआ था। पता ना कैसे जी रही हैं अब-तक और कोई होता तो शर्म के मारें मर गया होता। देखनें में तो भली ही लगे हैं, पता ना अंदर क्या हैं। अब पता ना कैसे रेप हो गया, गलतियाँ तो भाई आजकल लडकियों में भी होता हैं। जितनी लोग उतनी बातें, जितनी रंग उतनें जुबां रंगीन।
महफिल की खामोशी टूटती हैं, अभय फिर से जिंदा होता हैं। वो खुद को वहाँ ज़िम्मेवार ठहराता हैं। गलती किसकी रहती हैं, गलती कौन करता हैं, गलती क्यूं हुईं इन सब को दरकिनार कर वो उन बदमाशों की अपराध को बताता हैं। सामाज को उनकी गलतियाँ बताता हैं, उसी सामाज की एक लडकी को उसी सामाज से ठुकराया हुआ दिखाता हैं। उस लडकी की आत्मीयता को दिखाता हैं।
सुहासीं को फिर से उसका प्यार अभय मिल जाता हैं। वो लोगों को एक नयी नज़र से खुद को दिखता हुआ देखकर खुश हैं। एक उम्मीद की किरण जगती हैं, उसे कुछ बदलता हुआ दिखता हैं, एक शुरूआत सा, मग़र वो इससे भी खुश हैं, सुहासीं की हंसी फिर से वापस आ जाती हैं।
सोच : एक लडकी का बलात्कार एक बलात्कारी सिर्फ एक बार करता हैं, फिर ये जमाना हर-बार उसका बलात्कार करता हैं। उस बलात्कारी और फिर इस पूजें जानें वालें सामाज़ में कौन समझदार हैं, दोनों फिर एक ही रंग के लगनें लगते हैं। सज़ा देना कानून का काम हैं, मग़र उस पीडित लडकी का साथ देना हमारा काम हैं, इस सामाज़ का काम हैं। अपनें कर्तव्य को समझें और जिम्मेदार बनें ना की जिम्मेवार।

A girl is raped by a rapist at once, then after this cruel society will rape her at every second of her life.

Nitesh Verma

जो कमाता हैं उसको पता है

जो कमाता हैं उसको पता है
आखिर दुख,दर्द,दवा क्या है।

मिले हैं जो तो यूं परेशां हैं जां
जाने वो उसकी खता क्या है।

खुदके पीछे खुद है भाग रहा
जाने यह काला साया क्या है।

पर्दा लगाके हुआ है सबकुछ
वर्मा फिर ये तेरा हया क्या है।

नितेश वर्मा और क्या है।

Wednesday, 22 July 2015

बेजान रिश्ते

शायद अब मुझे उससे मिल ही लेना चाहिएं। बे-वजह के रिश्तें को जितनी जल्दी किनारें कर दो उतना ही खुद के लिये सही होता हैं। इस दुनियाँ में वहीं तुम्हारा एक अपना हैं जो तुम्हारें लिये नहीं बल्कि तुममें जीयें। तुम्हारी जरूरतें उसकी आदत हो, तुम्हारी खुशी उसकी हो, वो तुममें जीयें और तुममें ही रहें। स्वरा ये सब कुछ अभी सोच ही रही थीं तब-तक पीछें से आकर एक बच्चें नें शिकायती लहज़ें में कहा : मैम! ये ना मेरी काँपी फाड दिया हैं।
स्वरा [ कुछ देर उन दोनों बच्चों को देखतें हुए ] : अए! हम्म्म। क्यूं तुमनें ऐसा क्यूं किया चलो सारी बोलो उसे।
दूसरा बच्चा : मैम मैनें तो पहलें ही सारी बोल दिया था, पर ये मान ही नहीं रहा, ज़िद पे बैठा हैं।
स्वरा : ज़िद। हाँ शायद उसकी भी तो ये ज़िद ही थीं कि वो विभय को तलाक देना चाहती थीं, उसे अब कोई समझौता मंज़ूर नहीं था, और हो भी क्यूं विभय नें तो कभी उसके लिये कोई वक्त नहीं निकाला था। जब भी कोई बात करो तो बात-बात पे हाथ उठा देता था, आखिर किसे जाकर कहती। परेशां होकर ही उसनें ये निर्णय लिया था कि अब वह विभय का साथ छोड देगी।
लेकिन उसके दिमाग में अपनी माँ की कहीं बात हर-वक्त घूमा करती : बेटा। रिश्तें तो बस रिश्तें होतें हैं उन्हें निभाना या छोडना तो इंसानों पे निर्भर करता हैं। बेटा कोई इंसान बुरा नहीं होता, बुरें तो बस हालात हुआ करतें हैं। अग़र उस बुरें से वक्त में जो तुम्हारें साथ हैं वो ही तुम्हारा अपना हैं।
लेकिन माँ की आँखों से देखी ज़िन्दगी जैसे उसे कुछ और ही लगा करती थीं, वो सोचती आखिर माँ को क्या पता के बाहर देश के लोग कैसे हुआ करते हैं। यहाँ अपनों और परायों में फर्क करना उतना ही मुश्किल हुआ करता हैं जितना किसी नयें बाजार में जुआ खेलना। सारें खिलाडी नयें होतें हैं और शिकार खुद का होता हैं। स्वरा ये सब कुछ सोच समझ के ही विभय का साथ छोडनें का निश्चित निर्णय कर चुकी थीं।
मैम हम जाएं? स्वरा इस बात को सुनके चौंक सी गयी और उनकी तरफ देखकर बोली : कहाँ?
मैम छुट्टी हो गयी अब हम घर जाऐंगे, इसका काम मैं फिर लिख दूगां घर जाकर, शायद वो मान जाएं।
स्वरा उन दोनों बच्चों को जातें हुएं देखनें लगी और फिर अतीत के पन्नों में डूबनें लगी। क्या ऐसा नहीं हो सकता की फिर से वही लम्हा आ जाएं, विभय मुझे फिर से समझनें लगे, मेरा ख्याल करनें लगे। नहीं-नहीं स्वरा तू ये क्या सोच रही हैं, ऐसा नहीं हो सकता। उससे आज मिल के बात करनी ही होगी। स्वरा ये सोच के उठी और फिर टेक्सी स्टेंड की तरफ बढ गयी।
भैया, न्यू विहार चलोगें?
आईये मैडम बिल्कुल चलेंगे। न्यू विहार में कहाँ?
स्वरा : कहीं भी उतार देना भैया।
ड्राइवर : मतलब, नहीं समझा मैडम।
स्वरा : फस्ट क्रास पे ही ड्राप कर देना।
ड्राइवर: तो ऐसा कहिए ना, मैडम।
फिर टेक्सी अपनी स्पीड में चल पडी।
आखिर स्वरा को तो अब पता ही नहीं की विभय रहता भी कहाँ हैं, उसनें उसकी आफिस से उसका ये नया ऐड्रस लिया था। वो चाहती तो वो तलाक के पेपर्स अपनें ऐडवोकेट के हाथ भी भिंजवा सकती थीं, मगर वो कहतें हैं ना शक एक बार दिल में घर कर ले तो वो तब-तक दिल से नहीं मिटती जब-तक वो किसी परिणाम को ना आ जाएं। हाँ, बेशक उसे शक था की विभय किसी और लडकी में इंट्रेस्टेड होनें लगा था, और वजह साफ थीं अगर ऐसा ना होता तो वो उससे इतनी दूरी बना के क्यूं रहनें लगता। स्वरा नें उससे इस बात को लेके न-जानें कितनी बार बहस की थीं और आखिर में विभय का हाथ उठ जाता और वो खामोश हो जाती। यहीं नियम हैं, लडकियाँ सहम जाती हैं, इज्जत की परवाह कर जाती हैं, किसी दूसरें के खातिर खुद को कहीं समेट लेती हैं, तो ये नियम गलत हैं जिसमें सिर्फ मजबूरियाँ, हालातें सब एक स्त्री के हाथ को बाँध दे, उसकी हकों को, उसकी आवाजों को कहीं छुपा दे। ऐसे नियम से तो बेनियम का होना अच्छा हैं कम से कम कोई स्वांग तो नहीं रचना होगा। ऐसे नियम जला क्यूं नहीं दिये जातें कभी-कभी सोच के स्वरा खुद में खुद को समेट लेती। यही सामाज़ हैं यहीं विडंबना।
मैडम आ गया न्यू विहार।
स्वरा : कितना हुआ?
ड्राइवर : 200 ₹ ।
स्वरा नें पैसे दिये और पर्स से विभय का ऐड्रेस निकाल कर कालोनी के घरों पे लगे नेम-प्लेट को पढनें लगी।
A-26
Vibhay Vashisthya
General Manager Of Seva-Sadan

स्वरा नें डोर बेल बजाई। लेकिन किसी के कोई जवाब ना देनें पे कुछ कान लगा के सुनने की कोशिश करनें लगी। तभी दरवाजा अचानक खुलता हैं और वो विभय के बाहों में गिर जाती हैं, वही एहसास, वही स्पर्श, वही ख्याल सब कुछ तो उसे पहलें सा कितना अच्छा लग रहा था। ऐसे लग रहा था मानों उसकी पूरी थकान अब जाकर दूर हुई हैं। उसकी शिकायतें जैसे अब उससे खैर माँगनें लगी है। फिर अचानक कुछ ख्याल सा करके वो संभल गयी और फिर नारमोल होतें हुएं बोली : विभय मुझे तुमसे इस पेपर पे साइन चाहिए।
विभय : हाँ-हाँ, कर दूंगा। पर कितनी दिन बाद आयी हो, बैठों तो सही, ये बताओ क्या लोगी?
स्वरा : नहीं, कुछ नहीं। तुम बस साइन कर दो, मुझे अब और भी बहोत से काम होते है। मैं जल्दी में हूँ।
विभय : तुम जाना चाहती हो?
विभय की इस बात को सुनकर वो चौंक गयी, क्या आखिर सचमुच वो उसे छोडकर जाना चाहती थीं। तो ऐसा क्यूं था कि वो हर- वक्त अभी भी उसके ख्यालों में जिंदा रहना चाहती थीं। ऐसा तो नहीं होना था वो आज की पढी-लिखी कामकाज़ी महिला थीं। लेकिन वो कहते है ना प्यार कभी मरता नहीं, रिश्तों के कभी खून नहीं होते, लेकिन ये सब तो बस कहनें-समझनें की बातें हैं, सब झूठ हैं झूठ, एक सफेद झूठ।
विभय : किस सोच में हो, अग़र तुम जाना चाहती तो बताओ मैं भी बाहर चलता हूँ तुम्हारें साथ, तुम्हें छोड दूँगा।
स्वरा : नहीं, इसकी कोई जरूरत नहीं, तुम बस मुझे इस बोझ से रिहा करो।
कहतें हुएं स्वरा नें विभय के तरफ पेन बढाया और फिर एकदम से ठिठक गयी। विभय के नाक से खून गिर रही थीं।
स्वरा एकदम से अपनें पल्लूं को लेकर विभय के नाक को साफ करनें लगी, उसके सर को अपनें गोद में ले लिया और वही फर्श पे नीचें बैठ गयी।
विभय बस एकदम से उसे देखे जा रहा था जैसे मानों उसे एक पल में ही जन्नत नसीब हो गयी हो। कितना सुकून था स्वरा की बाहों में उसे, अब तो उसे मौत का कोई खौफ भी नहीं था, विभय की आँखों से अब आँसू मोतियों की तरह गिर रहें थें और वो धीरें-धीरें बेहोशी में खोनें लगा था। स्वरा की वो बेचैंन सी आवाज बस उसके कानों में जा पा रही थीं, जो वो जोर-जोर से हर दूसरें पल अपनें साँस लेने के साथ ले लेती, मानों जैसे उसे ये लग रहा था अगर एक पल भी वो ये नाम लेने से चूकी तो वो अपनी ज़िन्दगी से भी चूक जाऐगी।
स्वरा ने जल्दी से मोबाईल उठाया और डाक्टर को फोन करनें लगी।
डाक्टर : सही किया आपनें यहाँ आकर। कुछ दिन ही मगर अब सुकून से तो गुजार लेंगे। मैनें पहलें ही कहा था यार! भाभी जी को सब कुछ बता दे। मग़र दलीलें साहब के तो ऐसे होतें हें पूछों मत और आपसे बेहतर ये कौन जान सकता हैं आप तो खुद इनकी शायरी से कभी मुहब्बत किया करती थीं।
स्वरा जैसे सारी बातों को अनसुना करके एकदम से खामोश होकर बैठ गयी, जैसे उसे अब किसी बात की कोई परवाह नहीं थीं। वो डाक्टर की तरफ मुडकर बोली : आखिर बात क्या हैं?
डाक्टर : मतलब, विभय नें आपको अभी तक कुछ नहीं बताया। ओह माय गाड!
स्वरा : क्या हुआ हैं इन्हें? आवाज इतनी भारी जैसे किसी तूफानी बारिश होनें से पहलें वहाँ की घटाएं किया करती हैं। गला पूरा सूखा-सूखा सा, आँखें इतनी भींगी जैसे कोई समुनदर हो।
डाक्टर स्वरा की हालत को देखकर परेशां, आज वो ये बात अपनी कसम तोड के कह लेना चाहता था जो कभी उसनें अपनें सबसे बेहतरीन दोस्त से की थीं। आज वो उन सभी हालातों से पर्दा हटा देना चाहता था जो अनचाहें में उनकी ज़िन्दगी में हो गया था।
डाक्टर ने स्वरा की तरफ देखकर कहा : सुन पाओगी?
स्वरा : बिन सुने तो ऐसे भी मर जाऊँगी।
डाक्टर : ना कहो, ऐसी बात। विभय तो इसी बात से डरता था।
स्वरा : अब बस भी करो, अब सब्र का बाँध मुझमें टूट गया हैं, इससे पहले में बिखर जाऊँ और फिर खुद को समेट ना पाऊँ, तुम दया करके मुझे वो सब बता दो जिसको मैं जाननें का हक रखती हूँ, प्लीज़।
डाक्टर : विभय को हाइयपोथेलेमस हैमरटोमा [ Hypothalamus hamartoma ] हैं, एण्ड ही इज ओन हीज़ लास्ट स्टेज़। आइ एम सारी, भाभी फार ऐवरी-थींग। आई वास... .. ..
मग़र स्वरा अब उसकी आवाजों से दूर होना चाहती थीं, उसे अपनी कानों पे यकीन नहीं हो रहा था, वो उन आवाजों से खुद को कही दूर कर लेना चाहती थीं, वो अपनी आँखों से बहती आँसूओं को तो ना रोक पायी थीं मग़र उसनें अपनें अंदर ही अपनी आवाज को दबा दिया था। वो आज खुल के रो लेना चाहती थीं, मगर उसे जिस काँधे की जरूरत थीं, आज वो इस हाल में भी नहीं की उसकी आँखों की आँसूओं को देख सकें। स्वरा अब खुद ही खुद में शर्म से गढनें लगी। कितनी गलत खुद को साबित कर लिया था उसनें। बात ये थीं, विभय ये नहीं चाहता था की उसके साथ स्वरा की भी ज़िन्दगी कही रूक जाएं। वो खुद को उसकी यादों में ना मारें। आज स्वरा को अपनें सारें किये पे पछतावा हो रहा था।
मग़र कहतें हैं ना जब इंसान अच्छें होतें हैं, उनके साथ भी सब अच्छा होता हैं। हाँ, यकीनन कुछ वक्त लग जाता हैं, मगर वक्त अपनें साथ वो इंसान लेकर आता हैं जो उसके सभी घाव को मरहम से भर देता हैं। यही दस्तूर है। अब तक विभय का हाथ स्वरा के कंधे पे आ गए थें, उसनें स्वरा को अपनी तरफ किया, उसके जुल्फें सवारनें लगा तो कभी उसकी आँखों से गिर रहें उन कतरें को उसकी नर्म गालों से हटानें लगा। दोनों एक-दूसरें को देखनें लगे, दोनों एक दूसरें के आलिंगन में आ गए। डाक्टर उन्हें एक साथ देखकर मुस्कुरा रहा था। स्वरा की आँखों में देखकर उसनें फिर वही शे’र गुनगुना दिया जो पहली बार उसनें सिर्फ और सिर्फ उसके लिये लिखा था।

के आ जाओ अब शर्मांना बहोत हुआ
मेरे दिल को यूं भरमाना बहोत हुआ।

तुम्हारें खातिर अभ्भी ये लिक्खा मैनें
सीनें लग जाओ जमाना बहोत हुआ।

नितेश वर्मा

पंछी

बेटा कहाँ रह गयी तू, ओफोह! अभी तक तू तैयार भी नहीं हुई। बेटा लडके वालें तुझे देखने आते ही होंगे। जल्दी कर मेरा प्यारा बच्चा। 45 वर्षीय कमला देवी ने अपनी बेटी पंछी को मोबाइल में सर खपाते हुएं देखकर कहा।
और ये तेरा 24 घंटो इस मोबाइल में क्या गुम रहता हैं जो तू ढूँढती फिरती हैं।

पंछी मोबाइल से एक नज़र हटाते हुएं कमला देवी से कहती हैं माँ मैनें आपको कितनी बार मना किया हैं कि मैं अभी शादी नहीं कर सकती, अभी मुझे बहोत कुछ करना हैं, मुझे भी नाम कमाना हैं मुझे भी अपनें पैरों पे खडा होना हैं, मुझे अभी ये शादी-वादी नहीं करना, आप पापा से बोल के उन्हें मना क्यूं नहीं कर देती।
कमला देवी : बेटा यूं कब तक तुम अपने आप से भागती रहोगी। यूं कब तक उस एक गलती से खुद को और अपनें घरवालों को दुख देती रहोगी। बेटा हो जाता हैं ऐसा ज़िन्दगी में, कभी-कभी कुछ चीजें अपनी हदों से दूर की होती हैं, कुछ चीजों पे हमारा बस नहीं होता, तभी तो हम किस्मत के भरोसें से कुछ वक्त जी लिया करते हैं। बेटा अब देर मत करो चलो जल्दी तैयार हो जाओ, मुझे अभी इतनी फुरसत नहीं की मैं तुम्हें फिर से वही बात समझानें बैठ जाऊँ जो मुझे समझाना कभी अच्छा नहीं लगता।

पंछी : ओके, ममा। तुम चलो मैं आती हूँ। तुमनें उनलोगों को मेरे बारें में बताया हैं ना।

कमला देवी : हाँ बेटा उन्हें इस बात से कोई ऐतराज नहीं। वो तुम्हारें अतीत से नहीं तुम्हारें वर्तमान से तुम्हें स्वीकार करेंगे।

पंछी : ठीक हैं माँ, जैसा तुम्हें अच्छा लगे।

पंछी 27 वर्षीय एक मध्यम वर्गीय परिवार से हैं, लेकिन उसे इसका कभी अफसोस ना हुआ था कि वो मध्यम वर्ग से हैं जब तक उसके ससुराल वालों नें उसे यह कह कर ना दुत्कारा था कि हमें देनें के लिये अब तुम्हारें बाप के पास कुछ हैं ही नहीं तो हम तुम्हें अपनें पास मुफ्त की रोटिया तोडनें के लिये क्यूं रखें रहें, इकलौती हो जा के कुछ ले आओ या फिर अपनें बाप के पास ही पडी रहो। बहोतों नाज और प्यार से पली-बढी पंछी ने कभी ये सपनें भी नहीं सोचा था के उसे भी कभी वैसी ही सामाज़ का सामाना करना पडेगा जो वो कभी किताबो और कहानी या फिर अपनें दादा-दादी से सुना करती थीं। पंछी अपनें नाम के जैसी थीं, बिल्कुल बेबाक, खुली ख्यालों की, आसमां को मुठ्ठी में करनें वाली, बिन पता, बिन मंज़िल सफर करनें वाली। पंछी कभी-कभार अपनें ससुराल में ये बैठ के रोतें हुएं सोचा करती थीं, शायद उसे इतनें प्यार से पलनें का कोई अधिकार नहीं था, उसे भी सामाज़ी बातों में घुट-घुट के जीना था, कमसे कम आदत तो लगी रहती, किसी की बातों का कोई बुरा नहीं लगता। काश! मैं भी पापा के लाड –प्यार से कभी परे होके माँ की ये बात सुन लेती.. की बेटियाँ भी अगर पढ-लिख के अच्छी रोजगार की मालिक हो तो उसे भी घर में एक अच्छा औदा मिलता हैं, उसके भी बातों के कोई मायनें होते हैं। पंछी की छ्न-छन करती पायलें भी तो पंछी को कभी एक डाल पे बैठनें नहीं देती थीं। कभी यहाँ तो कभी वहाँ, क्या वो आज भी उसे किये को फिर से भोग रही हैं, ज़िन्दगी की तस्वीरें बदल गयी हैं लेकिन ज़िंदगी तो अभ्भी भी वही ठहरी हैं।

पंछी, ओ पंछी बेटा जल्दी कर वो लोग आ गये हैं, बेटा इस बार थोडा ढंग से बात करना और ज्यादा बोलनें की कोई जरूरत नहीं हैं। तेरे पापा को जो अच्छा लगेगा वो उन्हें देंगे, और बेटा ये शादियाँ भी तो दहेजों पे ही होती हैं, मैं भी तुम्हारी माँ हूँ मगर मुझे भी तुम्हारें पापा के घर आनें के लिये दहेज देना पडा था। बेटा ये तो रिवाज़ हैं, यही नियम हैं और नियम तो हम तोड नहीं सकतें ना, परंपराएं बेटा बंद नहीं होती, बस दब जाती हैं या दबा दी जाती हैं। कमला देवी ये बात पंछी को इसलिये बता देना चाहती थीं कि वो चाहती थीं कि बेटा लडकियाँ ही थोडा दब के रह जाएं तो क्या होगा।

पंछी तो थीं खुली ख्यालातों की मगर जब इंसान अंदर से टूट जाता हैं तो सब समझदारी, सारी सीखें सब चीजें धरी की धरी रह जाती हैं। पंछी अब अपनी माँ को समझनें लगी थीं। वो ये नहीं चाहती थीं कि जिस पापा की वो गुड-बुक्स में गुड गर्ल थीं वो किताबी पन्नें ये कहके मोड दिये जाये कि वो अब किसी काम के नहीं। मगर पंछी तो ये भी कभी नहीं चाहती थीं की वो अपनें पापा के शरीर पे फिर कभी कोइ बोझ बने, अगर उसके ससुराल वालें उससे किसी चीज की डिमांड करते हैं तो वो उन चीजों को पूरा करें। इसलिये वो पढ-लिख के कुछ बनना चहती थीं, किसी कालेज में दाखिला नहीं ले सकी, हालांकि ऐसा नहीं हैं की उसनें कोशिशें नहीं की। उसनें जितनें बार भी घर से बाहर कदम निकालें लोगों की बातें उसे फिर उसी चूल्हें की आँच में धकेल देती। घर नहीं सँभाल पायी तो अब दुनिया सँभालनें निकली हैं, नौकरी करेगी। मगर पंछी चाह के भी ये किसी को समझा नहीं सकी ये दुनिया कितनी आसान हैं जो सिर्फ बातें बोल के उसे रोनें को छोड देती हैं, उसे उसके हाल का छोड देती है, मगर घर दो लोगों के मिलन से बनता हैं, विवादें जन्म लेती हैं लोगों में अलगाव होता हैं तो घर प्रेम छोड के दुनियादारी में बदल जाती हैं, लोगों के मायनें बदल जाते हैं, उनके रूप बदल जाते हैं। यहीं कारण हैं पंछी ने डिस्टेंस-लर्निंग कोर्स ज्वाइन करा था, जिन्दगी के खराब होनें से अच्छा हैं की वो आँखें खराब हो जायें जो उसके लिये कभी खराब दिन ले के आनें वाली थीं। मगर ये बात उसके अलावा और कौन समझ सकता था, माँ मना करती रहती थीं, दलीलें देते फिरती थीं, बेटा लडकियों का गहना तो उनका रूप हुआ करता हैं। मगर जिंदगी ने पंछी को जो कुछ भी सिखाया था वो सब इसके विपरीत था। मगर इंसान तो परिस्थितियों से ही तो सीखा करता हैं सोच के पंछी अपनें आप को स्वीकर लेती।

कुछ देर में लडके वालें भी पंछी को देखने आ गये। बात पहले ही सब हो गयी थीं। फिर उसके अपनों ने बिना उससे पूछें उसके खुशहाल भविष्य की बात कहीं कर ली थीं या यों कहें की खरीदनें की फिर से एक नाकाम कोशिश कर ली थीं, पंछी ये समझती थी, लेकिन कभी वो ये भी सोचती थीं की जब उसके पापा उसके माँ से इतना प्यार करतें हैं उन्हे इतना खुश रखते हैं तो उन्हें पैसे से तौल के क्यूं ले आये थे कभी। उस वक्त माँ के माँ-बाप पे क्या बीतती होगीं, जब कहीं पापा लोग के भी डिमांड हाई हुआ करते होंगे, जब हर रोज कोइ नयी चीज पसंद आ जाती होंगी। पंछी बहोत सोचती पर कोई जवाब नहीं तालाश कर पाती, वो खुद से तो कभी इन हालातों से हार कर अपनें कमरें में खुद को बंद करके रोनें लगती थी। क्या हैं आखिर ये ज़िन्दगी और दुनियादारी पंछी अभी तक कुछ समझ नहीं पायी थीं।

फिर से वही लडको वालों की एक लम्बी लिस्ट। पंछी आज खुद को और अपनें बाप को इतना मजबूर और इतना हारा महसूस कर रही थीं कि उसके पापा आज उसके लिये रिश्तें खरीद रहें हैं, भले से उस खरीद में उनकी घर जायें उनकी जमीन बिक जायें वो खुद कर्जें-कर्जें में डूब जायें। पंछी ये सोचती आज वो लोग कहाँ गये जो लडके और लडकियों की बराबरी की बात किया करते हैं और जो ये लडका देखनें भी उसे आया था वो भी तो एक पढा-लिखा और किसी ऊँचे औदे का लगता था, फिर उसकी मत कहाँ गयी, उसकी सारी शिक्षा कहाँ गुम हो गयी, क्या किताबी महारत दुनियादारी पे आके खत्म हो जाती हैं।

फिर भी पंछी चुप रही.. सौदा हुआ, कुछ खरीदा तो कुछ बेचा गया। आदमियों को एक हद तक गिरतें देखा गया, सब पढे-लिखें मगर सारें के सारें मतलबी। खैर सौदा भी खत्म हुआ अब लडकी को देखनें की बारी। जो लडका दहेज की बात पर एक बार भी ना बोल पाया वो लडकी को कभी हाइट मैच करके देखता तो कभी उसके आँखों पे लगे चश्में का कारण पूछनें बैठ जाता। दलीलें खत्म हुई, पंछी फिर से पंसद कर ली गयी थीं। सब खुश थें खास कर घरवालें। अब एक ऐसे घर पंछी को जाना था जहाँ उसके लिये उसके माँ-बाप नें उसे ये कहकर भेजा था, बेटा वो अब तेरा घर हैं, उसी घर अब तुझको जाना हैं, बेटा यहीं रिवाज हैं लडकियों को दहलीज बदलना होता हैं, उन्हें लडकों के पास जाना होता हैं। सब बराबर हैं लेकिन हक आज भी लडकियों को अधूरा ही मिलता हैं। उन्हें सारें सुख दिये जाऐंगे या उनका वादा किया जाऐगा लेकिन वो सुख कोई और अपनी मर्ज़ी से जब चाहें जैसे चाहें करेगा, उन्हें उनका ही मोहताज बनकर ता-उम्र जीना पडता हैं। अब शायद पंछी पंछी नहीं रहीं अब तो वो बडी हो गयी हैं, उसकी पायल अब बेडियाँ हो गयी हैं वो सिर्फ दहलीज के अंदर ही आवाजें कर सकती हैं। पंछी की पढ-लिख के कमानें की ख्वाहिश से फिर लडके वालों के ऐतराज के कारण वो फिर अपनी ज़िंदगी से परेशां हो गयी, माँ-पापा भी लडके वालों की इस बात को मना नहीं कर पाये थें। यहीं उसके माँ-बाप नें उसके लिये सामाज़ बनाया था, मान के पंछी नें खुद को इस जहाँ से रिहा कर दिया। यही पंछी की कहानी थीं, पंछी कब तक पिंज़रें में रहती, उसके हक में मर जाना ही था। पंछी की सवालें आज भी दफ्न हैं, किसी के घर में तो ऐसे ही किसी के किताबो-पन्नों में।


नितेश वर्मा

दिल बेघर एक जबाँ चाहिए

दिल बेघर एक जबाँ चाहिए
हमको हमारा मकाँ चाहिए।

वो बुझ-बुझ के कहते रहे है
जलता हुआ ये शमाँ चाहिए।

हदें जिस को रोकें हैं मुझसे
उस आँखों को ख्वाँ चाहिए।

क्यूं सिमटे खुद में दरिया तू
वर्मा को इसकी वजाँ चाहिए।

नितेश वर्मा और चाहिए।

उसको कहाँ कभी कोई आराम आया है

उसको कहाँ कभी कोई आराम आया है
जिसको ताउम्र मुझसे ही काम आया है।

वो जो यूं जलाकर मुझे राख करने पर है
जीतके वो शहरयार का इनाम आया है।

कर दो और भी मुझे खुदमे शर्मिंदा तुम
होके बदनाम जिसको एक नाम आया है।

जैसा करेगा वैसा भरेगा तू भी यहाँ वर्मा
ले के कौन सा तू पीर-ए-ज़ाम आया है।

नितेश वर्मा और आया है।

नितेश वर्मा और इंसान

उसकी कदमें उसका साथ नहीं दे रही थीं फिर भी वो लगातार भागें जा रही थी, वो खुद को शायद बचा लेना चाहती थीं मग़र अंधेरी काली रातों में ना तो वो कुछ देख पा रही थी और ना ही कहीं रूक के दो पल सँभलना चाहती थी। बारिश ऐसी हो रही थी मानों किसी बेसब्र नदी का बाँध टूट पड़ा हो, आँधी उसके कदमों को जैसे आगे बढ़ने से इस तरह रोक रही थी के वो चाहती थी की वो आज इस नाज़ुक पल को समझे और अपने हठ को छोड़ दे।
मगर शैला ने विभय को जो आज तक माना था, उसे भगवान बना के पूजा था, वो सब बेवजह था। कोई प्यार नहीं था सब एक झूठ सा लग रहा था। वो बस भाग के खुद को खुद से रिहा कर लेना चाहती थीं, वो थक गयी थी लेकिन वो रूकना नहीं चाहती थी, वो दौड़ें जा रही थी लगातार, बेमंजिल। उसको आज अपनी माँ की फिर वही बात याद आ गयी थी कि बेटा एक अच्छा इंसान भी इंसान ही होता हैं, भगवान नहीं।

नितेश वर्मा और इंसान

उल्-उल्-अज़्मी घटा घनघोर ले आये हैं।

अब एआदए शबाब किस मोड़ ले आये हैं
उल्-उल्-अज़्मी घटा घनघोर ले आये हैं।

दीनेक़य्यिम,दीन-ए-हनीफ़ फ़जाओं में हैं
ग़िज़ाए रूहानी संग कुछ शोर ले आये हैं।

तंगमआशी और हैं खिलौनों की बाज़ार में
यूं हम भी कुछ चुराकर चकोर ले आये हैं।

तक़दीम,तअस्सुब,तकबीर,तकमील वर्मा
तक़रीबन जबां बेरंग हर ओर ले आये हैं।

नितेश वर्मा और ले आये हैं।

एआदए शबाब : बूढ़े से जवान होना।
उल्-उल्-अज़्मी : ऊँचा हौसला।
दीनेक़य्यिम : सच्चा धर्म।
दीन-ए-हनीफ़ : हज़रत इब्राहिम का धर्म।
फ़जाओं : वातावरण।
ग़िज़ाए रूहानी : अच्छी आवाज़।
तंगमआशी : जीविका की कमी।
चकोर : एक प्रकार का गोलाकार खिलौना जो मिष्ठान से बनाया जाता है, जिससे खेलने और भूख की चाह दोनों एक साथ ही मिट जाती हैं।
तक़दीम : श्रेष्ठता।
तअस्सुब : पक्षपात।
तकबीर : खुदा का नाम लेने वाला।
तकमील : पूरा होना।
तक़रीबन : लगभग।

अगर उस इंसान को यूं मौत ना आये

अगर उस इंसान को यूं मौत ना आये
उसे फिर कभी कोई खौफ ना आये।

वो यूंही सबके दीयेंलौ बुझाता रहेगा
ग़र खुद उसे आँधी-ए-रौंस ना आये।

बादस्तूर चलने की आदत हो गयी हैं
अब ना चले तो कोई धौंस ना आये।

के कई मरहम ठुकरा दिये मैंने वर्मा
भूल जायें सब तो कोई जौक ना आये।

नितेश वर्मा

इस जुबां को इक उड़ान चाहिए

इस जुबां को इक उड़ान चाहिए
दिल बेजबां पर आसमान चाहिए।

क्यूं यूं शख्स बिखरता हैं खुद में
इंसानों को कुछ समाधान चाहिए।

गरीब के बच्चे भी अब माँगते हैं
महीना एक उन्हें रमज़ान चाहिए।

वो होश में आ संभला तो सोचे हैं
उसे अब बाप की सुनान चाहिए।

वो चाहता तो हैं कहीं निकल जाएं
मग़र खबर उसे ये गुमनाम चाहिए।

परिंदे भी जब जिन्दगी से थके तो
बोलें वर्मा जंगल सुनसान चाहिए।

नितेश वर्मा और उसे चाहिए।

सब कुछ जलाकर भी जिंदा हैं

सब कुछ जलाकर भी जिंदा हैं
घर का चूल्हा फिर भी ठंडा हैं।

उसे क्या लगी है, मिलने की यूं
वो तो आसमाओं का परिंदा हैं।

कुछ परहेज कर हम चलते रहे
लगा जबके ये जां भी बसींदा हैं।

सबको हारा देखकर, जीत गया
शख्स आज वहीं इक शर्मिंदा हैं।

नितेश वर्मा और शर्मिंदा शख्स

बद्दुआएँ दे के गयी है हवायें मुझको

बद्दुआएँ दे के गयी है हवायें मुझको
कोई चिठ्ठी घर को अब बुलाये मुझको

मेरी भी जाँ इन सरहदों में सिमटी रहे
अब यूं ना आकर कोई जगाये मुझको

इंसानों को मजहबों में यूं बाँट दिया है
हिंदू-मुसलमां आके सच बताये मुझको

बंजर जमीं कितना सूखा-सूखा मैं वर्मा
प्यासा एक दरिया कोई बुझाये मुझको

नितेश वर्मा और एक दरिया

कुछ शे'र मुकम्मल तभी होते हैं

कुछ शे'र मुकम्मल तभी होते हैं, जब उसे सुनने वाला कोई अपना हो।

नितेश वर्मा और कोई अपना

किसे यकीन है के वो कुछ करेगा

किसे यकीन है के वो कुछ करेगा
ये परिंदा तो ऐसे ही जियेगा-मरेगा।

भूलकर भी नहीं भूल की है जिसनें
फिर भी उम्र तक वो इससे डरेगा।

उसका किया उसके साथ होगा यूं
मगर बुराइयाँ तो वो बाप ही भरेगा।

परेशान इस दिल का इतना है वर्मा
गुनाहों से ये सर कब तक लड़ेगा।

नितेश वर्मा और गुनाह

कुछ ख्वाहिशों को हमने भी दबा दिया

कुछ ख्वाहिशों को हमने भी दबा दिया
जलती उस चराग़ को यूं ही बुझा दिया।

उसको ही ये तू-तू, मैं-मैं रास आयी थीं
उसके लिये खुदको हमने सजा दिया।

जब नाउम्मीद होकर मैं यूं लौटने लगा
सजदे में बैठें जाने किसने दुआ दिया।

नसीहतें सारी मिटा के हमने भी की है
वो काम जिससे हमको यूं भूला दिया।

नितेश वर्मा

मुश्किल बहोत ये जमाना हुआ है

मुश्किल बहोत ये जमाना हुआ है
तभी तो बच्चे को कमाना हुआ है।

सब बस उसको ही दोष देने लगे
उसके ही सर सौ हर्जाना हुआ है।

यूं मामूली सी प्यास लगी थीं उसे
आँखों से गिर के बताना हुआ है।

फर्ज करो अग़र हम ना होते वर्मा
कौन कहता मुझे जुर्माना हुआ है।

नितेश वर्मा और ये जमाना

कोई दिल यूं खुमारी में कब तक रहे

कोई दिल यूं खुमारी में कब तक रहे
आशिकी ये बीमारी में कब तक रहे।

कोई हर्ज ना हो तो कभी बताएं हम
जिंदगी-मौत सवारी में कब तक रहे।

कोई आकर मिटा दे इन दूरियों को
दो जां इस व्यापारी में कब तक रहें।

ये दौर बहोत मुश्किल से गुजरे है वर्मा
जां यूंही ये सरकारी में कब तक रहें।

नितेश वर्मा और कब तक रहें।

कुछ जिक्र तो कुछ फिक्र हुआ है

कुछ जिक्र तो कुछ फिक्र हुआ है
लग रहा है थोड़े सवाली हम भी है।

किस्से कैसे कैसे बंधे है यूं मुझसे
जिन्दगी थोड़े अखबारी हम भी है।

उनसे ना पूछो जो रिश्तेदारी से है
मुश्किल बहोत दीवानी हम भी है।

इश्क़ का जिक्र किसी और से करे
थोड़े तो कीड़े किताबी हम भी है।

नितेश वर्मा

रहे बेरूख हरपल किसी से तो नफरत हैं जिन्दगी।

किसी के ख्यालों में यूं गुजरें तो मुहब्बत हैं जिन्दगी
रहे बेरूख हरपल किसी से तो नफरत हैं जिन्दगी।

किसको मिटाएँ, किसको याद रखें सवाली जिन्दगी
हर विरह से तुझे सोच गुजरें तो सोहबत हैं जिन्दगी।

सब लिखा, सब मेरे हिस्सों से टूटकर गिरने लगा था
जब एहसास हुआ तो लगा जैसे तोहमत हैं जिन्दगी।

उसने ख्वाबों की कई चादर बिछाके रक्खी थी वर्मा
हल्की सी आहट पाकर बिखरी हतोहद हैं जिन्दगी।

नितेश वर्मा और जिन्दगी

मुझमें कुछ जल रहा और कुछ खाक हैं

मुझमें कुछ जल रहा और कुछ खाक हैं
इक ख्वाबों का ढेर और खंडहर पास हैं।

कुछ हिस्सा किताबों में यूं कालिख सा हैं
और कुछ ये जबां बेरंग बेहिसाब राख हैं।

नितेश वर्मा

थीं खामोशियां लब को सजाने लगीं

थीं खामोशियां लब को सजाने लगीं
ये फुहारें किसकी याद दिलाने लगीं।

मौसमों में अब के तो जां हैं ही नहीं
ये शिकायतें कुछ दिल लगाने लगीं।

कुछ बूंदें चेहरे के इस ओर भी गिरीं
भींगी सी जुल्फे लिये वो शर्माने लगीं।

अब कोई गिलां ना रहा है यारब मुझे
खुदको छुपा के वो पर्दा हटाने लगीं।

कोई ख्याल का जिक्र क्यूं करे वर्मा
बारिश का दिन और वो मनाने लगीं।

नितेश वर्मा और बारिश ☔ का दिन

हम खामोश रहे और वक्त खर्च होता रहा

कभी यूं भी हुआ.. हम खामोश रहे और वक्त खर्च होता रहा।

नितेश वर्मा और खर्च

मैं शहर की आवाज़ लिखनें आया हूँ

मैं शहर की आवाज़ लिखनें आया हूँ
मैं भी हूँ उतना ही गुनेहगार
जितना के मैं गुनाह लिखनें आया हूँ

किसी मासूम को रस्तें के किनारें देखा
किसी बच्चें को जीनें के लिये कमाते देखा
कोई बेबस बाप को हारतें देखा
किसी माँ की बेटी को भटकतें देखा
हर ओर एक शोर सा हैं, ये लहर कैसा हैं
ज़िंदा तो हैं सब
मग़र सबको साँसों से बिछडते देखा
लडते हैं देखा, मौत में खुद को करते हैं देखा
सब दिवा-स्वप्न सा हैं लगता
सबका वादा उतना ही झूठा लगता
काली रात वो तूफा-ओ-बारिश वाली
छ्ट तो गयी हैं,
मग़र सूरज को खुद से ही छुपते देखा
सब बदलते, बिछडते, बिगडतें, बिखरते देखा
मग़र अब जब जागा तो कहनें आया हूँ
मैं शहर की आवाज़ लिखनें आया हूँ
मैं भी हूँ उतना ही गुनेहगार
जितना के मैं गुनाह लिखनें आया हूँ

नितेश वर्मा और गुनाह लिखनें आया हूँ

कहते है अबके कौन सा खता किया तुमने

कहते है अबके कौन सा खता किया तुमने
वर्मा दिल अब किस दीया को दिया तुमने।

नितेश वर्मा, दिल और दीया

सुहासी

सुहासी से अभय की दोस्ती ऐसी थीं की बात कभी भी गर्ल-फ्रेंड वाली बन सकती थीं और गर्ल-फ्रेंड के बाद शादी की।
सुहासी अपनें नाम की जैसी हर पल मुस्कुरानें वाली। जिंदगी को खुशियों से जीनें वाली। अभय के पूछनें पे खिलखिला ये बतानें वाली की सुहासीं का अर्थ ही हैं जिसकी हंसी सुन्दर हो और मेरी हैं तो मेरे पापा ने मेरा नाम सुहासी रखा हैं।
अभय भी अपनें नाम के जैसा बिना किसी भय के जीनें वाला। किसी भी बातों का कोई भय नहीं, जो सच हैं उसको समझ के, उसको मान के जीनें वाला।
नियती को कुछ और मंज़ूर होता हैं, एक रोज़ शापिंग से आतें वक्त कुछ गुंडे-बदमाश अभय और सुहासीं से छीना-झपटी करते हैं फिर अभय को लहू-लूहान करकें सुहासीं का बलात्कार कर देते हैं। समय जैसे बदल जाता हैं, वो प्यार, वो शादी के किस्सें किताबी लगनें लगते है। सामाज़ सुहासीं को जिम्मेवार ठहराता हैं।
अभय के माँ-बाप ऐसी पीडित लडकी को अपनें घर की बहू बनानें को तैयार नहीं हैं, जिससे कभी उनका बेटा या अब भी प्यार करता हो। ऐसा करके वो अपनें कुल-खानदान को बदनाम नहीं करना चाहतें हैं। जबकि सब ये जानते हुएं भी कि उस वक्त अभय भी सुहासीं के साथ था, वो उसे उस वक्त ना बचा सका और अभी भी वो कुछ कर नहीं पा रहा या करना नहीं चाहता।
सुहासीं का हाल बुरा हैं, वो अपनें उस अभय को याद करके कभी आँसू बहाती जो सिर्फ और सिर्फ कभी उसका हुआ करता था तो कभी हुएं अपनें पे उस ज़ुर्म को सोचकर अंदर तक टूट जाती। उससे उसकी हंसी छीन गयी थीं, उसका नाम उससे ले लिया गया था, उसकी इज्जत लूट लीं गयी थी। क्या अब वो मजबूर हो गयी थीं।
सुहासीं के माँ-बाप का हाल बिलकुल उसी माँ-बाप की तरह था जिनकी बेटी के साथ ये दुर्व्यहार हुआ हो। फिर भी हिम्मत जुटा के अपनें बेटी को समेटनें की एक कोशिश करते हैं। सुहासीं अपनें माँ-बाप को अपनी हालत के कारण इतनी परेशान देखकर फिर से जिंदगी जीनें की कोशिश करती हैं, वो बाहर निकल फिर कुछ नये सिरे से जीनें की चाह रखती हैं।
बाहर निकल सुहासीं खुद पे शर्मिंदा हैं। अखबारें कभी कुछ तो कभी कुछ कहती हैं, मिडिया उससे तरह-तरह की सवालें करती हैं, लोग उसे देख आपस में फुसफुसानें लगते हैं, उससे दूरी बनानें लगते हैं, अपनें बच्चें को आंटियाँ और मायें आँचल में छुपानें लगती हैं। ऐसा देख जैसे उसे लगता हैं के ये रस्तें की बेजान दीवारें भी उससे कुछ पूछ रही हैं, कुछ छुपा रही है। सुहासीं ऐसे सामाज को देखकर खुद ग्लानि से भर जाती हैं।
एक पार्टी फंक्शन में फिर अभय से मुलाकात होती हैं, जो ना के बराबर होती हैं। सुहासीं अभय को जानती हैं, भले से वो कुछ भी कर रहा हो या उससे कुछ कराया जा रहा हो वो सुहासीं को इस हालत में नहीं देख सकता। सुहासीं उससे खुद को भूला देनें को कहती हैं। उसे अभय की कोई हमदर्दी की जरूरत नहीं, वो नहीं चाहती की अभय उससे शादी कर उसपे कोई दया दिखाएं, कोई उपकार करें या धौंस जमाएं।
महफिल के लोग उसे देख फिर से वही एक बात दुहरातें हैं, हाँ इसी का रेप हुआ था। पता ना कैसे जी रही हैं अब-तक और कोई होता तो शर्म के मारें मर गया होता। देखनें में तो भली ही लगे हैं, पता ना अंदर क्या हैं। अब पता ना कैसे रेप हो गया, गलतियाँ तो भाई आजकल लडकियों में भी होता हैं। जितनी लोग उतनी बातें, जितनी रंग उतनें जुबां रंगीन्।
महफिल की खामोशी टूटती हैं, अभय फिर से जिंदा होता हैं। वो खुद को वहाँ ज़िम्मेवार ठहराता हैं। गलती किसकी रहती हैं, गलती कौन करता हैं, गलती क्यूं हुईं इन सब को दरकिनार कर वो उन बदमाशों की अपराध को बताता हैं। सामाज को उनकी गलतियाँ बताता हैं, उसी सामाज की एक लडकी को उसी सामाज से ठुकराया हुआ दिखाता हैं। उस लडकी की आत्मीयता को दिखाता हैं।
सुहासीं को फिर से उसका प्यार अभय मिल जाता हैं। वो लोगों को एक नयी नज़र से खुद को दिखता हुआ देखकर खुश हैं। एक उम्मीद की किरण जगती हैं, उसे कुछ बदलता हुआ दिखता हैं, एक शुरूआत सा, मग़र वो इससे भी खुश हैं, सुहासीं की हंसी फिर से वापस आ जाती हैं।

सोच : एक लडकी का बलात्कार एक बलात्कारी सिर्फ एक बार करता हैं, फिर ये जमाना हर-बार उसका बलात्कार करता हैं। उस बलात्कारी और फिर इस पूजें जानें वालें सामाज़ में कौन समझदार हैं, दोनों फिर एक ही रंग के लगनें लगते हैं। सज़ा देना कानून का काम हैं, मग़र उस पीडित लडकी का साथ देना हमारा काम हैं, इस सामाज़ का काम हैं। अपनें कर्तव्य को समझें और जिम्मेदार बनें ना की जिम्मेवार।

A girl is raped by a rapist at once, then after this cruel society will rape her at every second of her life.

Nitesh Verma

Monday, 6 July 2015

रात सिराहनें आ कहीं माँ अब छुपा ले मुझे

नजानें कौन किस हक से कब बुला ले मुझे
मैं इक सवाल हूँ जानें कौन सुलझा ले मुझे।

बदनसीब हूँ इतना के अब रातों में नींद नहीं
कोइ हो ग़र तो आके बाहों में सुला ले मुझे।

दिन भर दिन वो बेफिक्र रही हैं घूमती यूंही
रात सिराहनें आ कहीं माँ अब छुपा ले मुझे।

वो परिन्दा भी कितना अज़ीब निकला यारों
प्यासा हारा तो कहा गर्मी अब जला ले मुझे।

बिखरा जब वो इक तस्वीर आइना कमरें का
वर्मा को हैं समझायें के अब अपना ले मुझे।

नितेश वर्मा


Thursday, 2 July 2015

उसकी बिगड़ती जुल्फें

उसकी बिगड़ती जुल्फें.. जो उसके गालों तक आयीं है.. आज वो फिर मुझे कितनी याद आयी हैं।

नितेश वर्मा और बिगड़ती जुल्फें

फिक्र ये तेरा नहीं उनका हैं वर्मा

होनी होगी तो फिर होगी बरसात
तू क्यूं मरें जा रहा है यूं ही बेबात।

तू तो अलग होके रह गया था ना
फिर क्यूं आ गई वहीं मुश्किलात।

जिंदा हैं तब तक जिक्र कर ले वो
मरने के बाद कहाँ होंगी ऐसी रात।

नेकियों का भी तो कुछ सिला हैं ये
बच्चे आये हैं करने जमीं जायदाद।

फिक्र ये तेरा नहीं उनका हैं वर्मा
कहते थे जो बदलेंगे ये तंगेहयात।

नितेश वर्मा

थोडी राख लेके तुम भी अब लौट जाओ

मुझे जी-भर के देख के अब लौट जाओ
खो दिया हैं तुमनें मुझे अब लौट जाओ

किसी और घर की हयां ही होना हैं मुझे
मुझे गलत मान तुम भी अब लौट जाओ

शिकन की बूंद दो बूंद अब भी हैं मुझमें
यूं हारा देख मुझे तुभ भी अब लौट जाओ

सबकी बेफिजूली सुनके भी चुप रही हूँ
कुछ सुनाके मुझे तुम भी अब लौट जाओ

खुद में कहीं खुद को दफ्न किया हैं मैनें
थोडी राख लेके तुम भी अब लौट जाओ

नितेश वर्मा

यूं सबके अंदर एक तूफां का बसेरा हैं

हर बार मौत से वो पीछा छुडा लेता हैं
ज़िन्दगी को वो क्यूं बडा बना लेता हैं

क्या कम तकलीफें दिये हैं ज़िंदगी ने
फिर क्यूं उसे ये मौत गले लगा लेता हैं

यूं सबके अंदर एक तूफां का बसेरा हैं
फिर भी वो इक आग क्यूं जला लेता हैं

कोई प्यासा था तेरे शहर में कभी वर्मा
आजतक वो क्यूं यूं नजर छुपा लेता हैं

नितेश वर्मा

Wednesday, 1 July 2015

मैं धीरे-धीरे उसका होने को हूँ

मैं धीरे-धीरे उसका होने को हूँ
उसकी आवाजों में खोनें को हूँ
उसकी यादों में
दिल डूबा-डूबा रहता हैं
उसमें ही दिन-रात
हर फरियाद, हर कहीं-अनकही बात
हर वक्त उसमें ही रहा करता हैं
ये उसी में ठहरा रहता हैं
ये तुमसे ही मुहब्बत किया करता है।

नितेश वर्मा

ये उसकी तरफ का ही पहला इकरार हैं

उसको आज भी मेरे इंतजार का ऐतबार हैं
उसकी निगाहों में देखा मैंने वहीं प्यार हैं

कोई डर नहीं आके पढ ले कोई निगाहें उसकी
ये उसकी तरफ का ही पहला इकरार हैं।

नितेश वर्मा

ठहर गयी तुझे देखकर मेरी आवाज़ क्यूं

ठहर गयी तुझे देखकर मेरी आवाज़ क्यूं
कोई बेहिसाब छेड़ गयी बात
मुझे देखकर तेरी आवाज़ क्यूं

कबसे ख्वाबों में ड़ूबी थीं निगाहें उसकी
मुझपे आकर रुक गयी
उसकी हर तालाश क्यूं

यही ख्याल कबसे परेशां कर रहा मुझे
किस्मत-ए-शर्तों पे गुजारी
भरी जिंदगी-ए-शराब क्यूं

मुहब्बत की यूं आजमाइश करने को है
कब तलक गुनाहों में रहे
नाम तेरा वर्मा बर्बाद क्यूं

ठहर गयी तुझे देखकर मेरी आवाज़ क्यूं
कोई बेहिसाब छेड़ गयी बात
मुझे देखकर तेरी आवाज़ क्यूं

नितेश वर्मा

क्यूं कुछ कहानियाँ अधूरी रहती हैं

क्यूं कुछ कहानियाँ अधूरी रहती हैं
या खुदा तेरी क्या मजबूरी रहती हैं

सवालें उसकी भी जुबाँ पे रहती हैं
फिर क्यूं निगाहों की दूरी रहती हैं

हर मर्तबा धड़क जाता हैं देखकर
साँसें ये मेरी उसी से जुड़ी रहती हैं

उसकी जुल्फों का बिगड़ना यूंही हैं
दिल क्यूं फिर उसपे ठहरी रहती हैं

नितेश वर्मा

उन परिंदों की प्यास हूँ मैं वर्मा

कुछ वादे, कुछ रिश्ते टूट गये
मेरे सारे मुझसे यूं ही रूठ गये

मैं इस ख्याल से जिंदा रहा था
कौन मेरे होके मुझसे छूट गये

दुआएँ भी शामिल है हिस्से में
पहेली जिंदगी में सब लूट गये

उन परिंदों की प्यास हूँ मैं वर्मा
जो थकन से आसमां में घुट गये

नितेश वर्मा

छिपाकर निगाहें तभी तो वो चली है

अब तो ये जिन्दगी ऐसी हो चली है
किसी और के यादों में खो चली है।

क्यूं हर बार ये मेरे साथ ही होता है
वो बिछड़ के मुझमें ही सो चली है।

मैं अपने जेहन से निकाल दूं इनको
करकें कोशिशें आँखें भी रो चली है।

कुछ तो निगाहें उससे कहने को थी
छिपाकर निगाहें तभी तो वो चली है।

मेरी साँसों से कभी उसकी साँसें थी
मगर तन्हा ही आज मौत को चली है।

नितेश वर्मा

मजहब मेरा मुझे यही सिखाता रहा है

हर दर पर जाकर ये सर झुक जाता है
मजहब मेरा मुझे यही सिखाता रहा है।

नितेश वर्मा

बदनाम शहर का बदनाम शख्स हूँ मैं वर्मा

कोई किसी को यूं कहाँ तक याद रखता है
अब नहीं दिल मेरा कोई जज्बात रखता है।

वो जो यूं टूटता हैं तो दिल से भी टूट जाये
आईना भी टूट के कहाँ कुछ साथ रखता है।

उसको भी बिछड़ के कहाँ एक पल सुकूं है
फिर क्यूं वो साथ अपने आफताब रखता है।

अब तो वो अपनी जां तक कुर्बां करने को है
फिर जुबां क्यूं उसे यूं ही गिरफ्तार रखता है।


बदनाम शहर का बदनाम शख्स हूँ मैं वर्मा
मगर फिर भी होना मेरा कुछ बात रखता है।

नितेश वर्मा

किस फिक्र में जी रहे है जिन्दगी वर्मा

अब तो शर्मिंदगी इस बात को लेकर है
जानें नाराज वो किस बात को लेकर है।

ना जाने वो ऐसे क्यूं परेशां रहने लगी है
अब हर आवाज़ इस बात को लेकर है।

हर दो कदम के बाद वो मुकर जाता है
दिल ये हैंरां बस इस बात को लेकर है।

किस फिक्र में जी रहे है जिन्दगी वर्मा
मौत भी इंतजार इस बात को लेकर है।

नितेश वर्मा

अपनी सारी ख्वाहिशों को एक दिन खरीद लूंगा

अपनी सारी ख्वाहिशों को एक दिन खरीद लूंगा
जिस दिन जिंदगी-गरीबीयत से रिहा हो जाऊंगा।

नितेश वर्मा और एक दिन

वर्मा अजीब ये सरकारी बीमारी हुआ

जनहित में तो बहोत कुछ जारी हुआ
वर्मा अजीब ये सरकारी बीमारी हुआ

अबके जो मेरे साथ जला दिया जायेगा
ता-उम्र बस यहीं इक खरीददारी हुआ

तो खून खौलता है उसका हर बात पे
कोई बताएं ये कैसा समझदारी हुआ

इस चार-दीवारी से घुटन हैं मुझे वर्मा
निगाहें देख उसे मुझे ये लाचारी हुआ

अब तो रस्ते बदल के है सजदा किया
कोई न कहें कैसे रोजा-अफ्तारी हुआ

नितेश वर्मा

जहाँ तक हो ये आवाज़ कर दो

जहाँ तक हो ये आवाज़ कर दो
सर हमारे भी इक ताज़ कर दो

किस साहिबेमसनद को बताएं
गूंगेबहरी वाली सामाज़ कर दो

हम ही इक मालिक है यहाँ के
इसे इश्तेहार तुम आज कर दो

कितना कुछ मुझमें वो छोड़ गई
बस उन्हें मुझमें इक राज़ कर दो

नितेश वर्मा

मरके भी वो रो रहा घर जमीन था कितना

बिछड़ के फिर मिलेंगे यकीन था कितना
ख्वाब तो था ही लेकिन हसीन था कितना।

मैं उसकी उलझनों से रिहा होनें लगा था
मगर वो जुल्फ उसका ज़रीन था कितना।

थोड़ा करीब उसे सीनें से लगाकें रखा था
नज़र यूं मुझपे सबका गमगीन था कितना।

कौन कहता हैं एक दिन सब भूल जाने है
मरके भी वो रो रहा घर जमीन था कितना।

इंसानों का इंसानियत से है नाता टूट चुका
वर्मा उन शब आँखों में तौहीन था कितना।

नितेश वर्मा